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वह नौजवान शहीद जिसकी राख के ताबीज़ बना मांओं ने अपने बच्चों को पहनाए

वह नौजवान शहीद जिसकी राख के ताबीज़ बना मांओं ने अपने बच्चों को पहनाए

Saturday December 03, 2022 , 3 min Read

1905 में बंगाल विभाजन के फैसले को लेकर देश में बड़े पैमाने पर अहिंसक आंदोलन चल रहे थे. बंगाल के अरबिंदो घोष ‘वंदे मातरम नाम’ के अखबार में विदेशी सामानों की होली जलाने की खबरें छाप रहे थे. नेता और आम जन विदेशी सामानों की होली जला रहे थे. लेकिन अंग्रेज सरकार का दमन भी जारी था. तब कलकत्ता (अब कोलकाता) में डग्लस किंग्सफोर्ड (Douglas Kingsford) चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट को बहुत ही सख्त और बेरहम अधिकारी के तौर पर जाना जाता था. इतिहास में दर्ज है कि वह ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों को किंग्सफोर्ड द्वारा कितनी क्रूर और बर्बर यातनाएं दी जा रही थी. बंगाल विभाजन के बाद उभरे जनाक्रोश के दौरान लाखों लोग सड़कों पर उतर गए और तब बहुत सारे भारतीयों को मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने ऐसी क्रूर सजाएं सुनाईं, जो आखिरकार उनकी जान लेने पर ही खत्म होते थे.


बंगाल विभाजन के विरोध में बोस ने अपनी 9वीं कक्षा की पढ़ाई छोड़ बहुत ही कम उम्र में स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए थे. इसी दौरान वह एक क्रांतिकारी संगठन ‘युगांतर’ से भी जुड़े. डग्लस किंग्सफोर्ड को ब्रितानी हुकूमत ने प्रोमोशन देकर मुजफ्फरपुर का सत्र न्यायाधीश बना दिया. युगांतर समिति ने किंग्सफोर्ड द्वारा भारतीयों पर ढहाए गए जुल्म का बदला लेने का फैसला किया. संगठन के दो जांबाज़ सदस्य, खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी, ने बिहार के मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की बग्गी पर बम फेंक कर उनकी हत्या का प्लान बनाया.


30 अप्रैल की शाम बिहार के मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी अपनी योजना अनुसार किंग्स्फोर्ड के बग्गी पर बम फेंककर हमला कर दिया. कार्य को अंजाम देने के बाद वे वहां से फरार हो गए.


लेकिन बाद में पता चला कि इस बग्गी में उनकी जगह ब्रिटेन के एक Barrister प्रिंगल केनेडी (Pringle Kennedy) की पत्नी और बेटी बैठी थीं. जिनकी इस हमले में मौत हो गई.


पूरे शहर को घटना की जानकारी थी और हर यात्री पर नजर रखने के लिए सभी रेल मार्गों पर सशस्त्र पुलिसकर्मी तैनात किए गए थे. बोस को गिरफ्तार कर लिया गया. प्रफुल्ल चाकी ने लंबे समय तक पुलिस को चकमा दिया और सफ़र के दौरान  किसी ने उनके कलकत्ता के लिए एक टिकट की व्यवस्था भी कर दी. इस दौरान एक पुलिसकर्मी ने उन्हें पहचान लिया. उसने मोकामघाट स्टेशन पर प्रफुल्ल को गिरफ्तार करने की कोशिश की लेकिन प्रफुल्ल ने अपनी रिवॉल्वर से खुद के मुंह में गोली मार ली.

13 जून 1908 को खुदीराम बोस को इस मामले में फांसी की सजा सुनाई गई, तब वह महज़ 18 साल के थे. 11 अगस्त 1908 को ब्रिटिश हुकूमत ने खुदीराम बोस को फांसी दे दी. इस नौजवान की शहादत का असर अभूतपूर्व था. कहा जाता है खुदीराम बोस जनता के बीच इतने लोकप्रिय थे कि उनकी चिता की भस्म लेने दाहस्थल पर लोगों में होड़ लग गई थी. माताओं ने बच्चों के गले में उनकी राख के ताबीज बांधे कि उनका बच्चा भी बोस की तरह बहादुर बने.


यही नहीं, बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे थे, जिनके किनारे पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था. स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले नौजवानों में यह काफी लोकप्रिय था.