ऐसा है छोटी सी माचिस का 195 साल पुराना इतिहास
क्या आपको पता है कि रसोई में इस्तेमाल होने वाली छोटी-सी माचिस का इतिहास 195 साल पुराना है?
भारत में माचिस के निर्माण की शुरुआत साल 1895 से हुई थी. इसकी पहली फैक्ट्री अहमदाबाद में और फिर कलकत्ता (अब कोलकाता) में खुली थी. लेकिन, दुनिया में सबसे पहले माचिस का आविष्कार ब्रिटेन में 31 दिसंबर 1827 में हुआ था. इसके आविष्कार थे ब्रिटेन के वैज्ञानिक जॉन वॉकर. साल 1827 में उन्होंने माचिस बनाया था. लेकिन उनके द्वारा बनाई गयी माचिस ज्यादा सुरक्षित नहीं थी. क्योंकि उनके द्वारा बनाई गई माचिस की तीली ऐसी बनी थी, जो किसी भी खुरदरी जगह पर रगड़ने से जल जाती थी. दरअसल, माचिस की तीली पर सबसे पहले एंटिमनी सल्फाइड, पोटासियम क्लोरेट और स्टार्च का इस्तेमाल किया गया था. रगड़ने के लिए रेगमाल लिया गया. नतीजा ये हुआ कि माचिस की तीली जैसे ही रेगमाल पर रगड़ी जाती, छोटा विस्फोट होता जो इस्तेमाल के लिहाज़ से सुरक्षित नहीं थी. इसके बाद, माचिस को लेकर कई प्रयोग किए गए.
1832 में बदला माचिस का रूप
साल 1832 में फ्रांस में एंटिमनी सल्फाइड की जगह माचिस की तीली पर फॉस्फोरस का इस्तेमाल किया गया. फॉस्फोरस अत्यंत ही ज्वलनशील रासायनिक तत्व होता है. पहले सफेद फॉस्फोरस का इस्तेमाल किया गया, जिससे गंध की समस्या का तो समाधान हो गया था. लेकिन जलते वक्त निकले वाला धुआं भी काफी विषैला होता था. इससे बाद में सफेद फॉस्फोरस के इस्तेमाल पर बैन लगा दिया था.
सफ़ेद फोस्फोरस मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए बड़ा ही हानिकारक होता है. सफेद फास्फोरस के गंभीर प्रभावों के कारण कई देशों ने इसके उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया. फ़िनलैंड ने 1872 में सफेद फास्फोरस के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया, उसके बाद 1874 में डेनमार्क, 1897 में फ्रांस, 1898 में स्विट्जरलैंड और 1901 में नीदरलैंड में. एक समझौता, बर्न कन्वेंशन, सितंबर 1906 में बर्न, स्विट्जरलैंड में हुआ था जिसने माचिस में सफेद फास्फोरस के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया.
'सेफ्टी मैच' का आविष्कार
माचिस के निर्माण में सफेद फास्फोरस के खतरों के कारण "स्वच्छ" या "सुरक्षा मैच" का विकास हुआ. फास्फोरस का यौगिक रूप 'फॉस्फोरस सेस्क्यूसल्फाइड' का माचिस बनाने में इस्तेमाल किया जाने लगा, जो मनुष्य के लिए हानिरहित था. ब्रिटिश कंपनी अलब्राइट एंड विल्सन व्यावसायिक रूप से 'फॉस्फोरस सेस्क्यूसल्फाइड' माचीस का उत्पादन करने वाली पहली कंपनी थी. कंपनी ने 1899 में 'फॉस्फोरस सेस्क्यूसल्फाइड' की व्यावसायिक मात्रा बनाने का एक सुरक्षित साधन विकसित किया और इसे बेचना शुरू किया. स्वीडन के जोहान एडवर्ड और उनके भाई कार्ल फ्रैंस लुंडस्ट्रॉम ने 1847 के आसपास जोंकोपिंग, स्वीडन में बड़े पैमाने पर मैच उद्योग शुरू किया. प्रयोग करने योग्य 1858 में उनकी कंपनी ने लगभग 12 मिलियन माचिस की डिब्बियों का उत्पादन किया.
किन चीजों से बनती है माचीस
बता दें, इतनी छोटी से माचिस की डब्बी को बनाने में 14 कच्चे माल की जरूरत होती है. जिसमें लाल फास्फोरस, मोम, कागज, स्प्लिंट्स, पोटेशियम क्लोरेट और सल्फर का मुख्य रूप से इस्तेमाल होता है इसके अलावा माचिस की डिब्बी दो तरह के बोर्ड से बनते हैं. बाहरी बॉक्स बोर्ड और भीतरी बॉक्स बोर्ड. वहीँ, माचिस की तीली कई तरह की लकड़ियों से बनाई जाती हैं. सबसे अच्छी माचिस की तीली अफ्रीकन ब्लैकवुड से बनती है. पाप्लर नाम के पेड़ की लकड़ी भी माचिस की तीली बनाने के लिए काफी अच्छी मानी जाती है.
भारत में माचीस कब आया
भारत में माचिस स्वीडन और जापान से निर्यात किए जाते थे. साल 1910 के आसपास एक जापानी परिवार कलकत्ता (अब कोलकाता) में आकर बस गया और उन्होंने देश में माचिस का निर्माण शुरू किया. देखते ही देखते, माचिस बनाने की और भी कई छोटी-छोटी फैक्ट्री लगने लगीं.
साल 1921 तक गुजरात इस्लाम फैक्ट्री अहमदाबाद के अपवाद के साथ भारत में माचिस निर्माण की कोई कंपनी सफल नहीं हो सकी थी.
लेकिन 1927 में तमिलनाडु के शिवाकाशी शहर में माचिस की फैक्ट्री लगने के बाद धीरे-धीरे भारत में माचिस निर्माण का ज्यादा काम दक्षिण भारत में बढ़ने लगा. आज भी शिवकाशी को माचिस उत्पादन के लिए जाना जाता है. आज भी भारत में सबसे बड़ा माचिस उद्योग तमिलनाडु में है. मुख्यतौर पर तमिलानाडु के शिवकाशी, विरुधुनगर, गुडियाथम और तिरुनेलवेली मैन्युफैक्चरिंग सेंटर हैं. भारत में फिलहाल माचिस की कई कंपनिया हैं, अधिकतर फैक्टरीज में अब भी हाथों से काम होता है. जबकि कुछ फैक्ट्रियों में मशीनों की मदद से माचिस का निर्माण होता है.