कौन हैं भारत के सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखक वेद प्रकाश शर्मा
साल 1993 में बाज़ार में एक ऐसी उपन्यास आई, वर्दी वाला गुंडा,’ जिसके पहले संस्करण की 15 लाख प्रतियां हाथों-हाथ बिक गईं. उपन्यास ने तहलका मचा दिया था. कहते हैं इस उपन्यास इसकी आठ करोड़ प्रतियां बिकीं. इसके उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा ने इस उपन्यास की बिक्री से एक आलिशान घर ख़रीदा. यह सोच अपने आप में प्रेरक था कि हिंदी का एक लेखक किताब की कमाई से एक आलिशान घर खरीद सकता है. वरना लेखकों की आर्थिक हालात कितनी तंग होती है, इससे हम सब वाकिफ हैं.
कौन थे वेद प्रकाश शर्मा
1980 और ’90 का दशक हिंदी पल्प फिक्शन का सुनहरा दौर था. जिसके पीछे वेद प्रकाश शर्मा का बहुत बड़ा योगदान था. उनका जन्म 10 जून 1955 को मेरठ, उत्तर प्रदेश में हुआ था. उनके उपन्यास अलग-अलग विषयों पर होते थे जैसे सामाजिक मुद्दों, धोखे, विश्वासघात, रिश्ते, प्यार और बहुत कुछ. कहानियां अमूमन जासूसी होती थीं जिसमें हत्या, रहस्य, रोमांच, फैंटेसी, प्रेमकाव्य और पुरुषत्व सब एक साथ आ जाती थीं. इस साहित्य को लुगदी साहित्य या सस्ता साहित्य या सड़क छाप साहित्य कहा जाता था. उन्होंने तकरीबन 176 उपन्यास लिखे थे, जिसमें कुछ रचनाएं ‘बहू मांगे इंसाफ,’ ‘वर्दी वाला गुंडा,’ ‘साढ़े तीन घंटे,’ ‘कैदी नं. 100’, ‘कारीगर’, ‘हत्या एक सुहागिन की,’ ‘दौलत पर टपका खून’ हैं. ‘सस्पेंस के बादशाह’ कहे जाने वाले वेद प्रकाश शर्मा को 1995 और 2003 में मेरठ रत्न, नटराज भूषण पुरस्कार जैसे खिताबों से सम्मानित किया गया था. लंबे समय से कैंसर से पीड़ित वेद प्रकाश शर्मा 17 फरवरी, 2017 में मेरठ में स्थित अपने घर में अपनी अंतिम सांसे लीं.
कैसा था इनका साहित्य
अपने वृहत काम से वेद प्रकाश शर्मा ने ‘80 से ‘90 के दशक में जासूसी, थ्रिलर साहित्य का एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार किया. आंकड़े बताते हैं कि उस दौर में पल्प फिक्शन को पढने वालों की एक बड़ी जमात थी. इनके पाठकों में इन उपन्यासों को लेकर अजीब दीवानगी रहती थी. उनके उपन्यासों में दिमाग का वह खेल था जहां पाठक खुद अपना पाठ रचने लगता है. मोटी-मोटी किताबें पाठक 2-4 दिन में पढ़ कर फारिग कर देते थे. नई सीरीज का इंतजार रहता था. आलम यह था कि उपन्यासों को लोग किराए पर ले-लेकर पढ़ा करते थे.
सस्ता साहित्य कहे जाने वाले इन किताबों को मध्यवर्गीय संभ्रांत तबके दवा पढ़े जाने लायक नहीं माना जाता था. यह तबका ‘गोदान,’ ‘मैला आंचल,’ ‘शेखर,’ ‘गुनाहों के देवता,’ इत्यादि के साथ-साथ विश्व साहित्य के शाहकारों में सैर करता. लेकिन पल्प फिक्शन की बिक्री के आंकड़ों को देखकर यह इनकार नहीं किया जा सकता कि इनके पाठकों में हर तबके के लोग शामिल थे, हालांकि इनके पाठकों का एक बड़ा वर्ग हिंदी-भाषी गांवों-कस्बों का ही होता था. यह वो वर्ग भी था जिसको पढने का चस्का हिंदी की इन्हीं किताबों से लगा था.
किनका साहित्य?
वेद प्रकाश शर्मा और अन्य लेखक बहुत तैयारी के साथ उस हिंदी भाषी समाज के लिए लेखन करते थे जो सभ्रांत तबके के बनाए गए मानकों से असफल रह गए. छोटे-मोटे काम करने वाला, गुमटी पर बैठने वाला, वैष्णो ढाबा चलाने वाला, किराने स्टोर पर बैठने वाला, अलाने-फलाने एंट्रंस एग्जाम की तैयारियों में उल्झे युवाओं में इन किताबों ने पढ़ने एक आदत डाली. अंग्रेजी पॉपुलर फिक्शन के ट्रोप्स की परवाह किए बिना, वेद प्रकाश शर्मा जैसे लेखकों ने न सिर्फ उनकी जैसी भाषा में साहित्य लिखा बल्कि अपने उपन्यासों में कई चरित्र भी उनके ही वर्ग और समाज से गढ़े. यह लोकप्रिय साहित्य था जो जनता की भाषा में जनता से संवाद करती थी.
रेलवे और लुगदी साहित्य
रेलवे के प्रासंगिक बाजार के बिना हिंदी पल्प फिक्शन की लोकप्रियता की कहानी अधूरी होती. रहस्य, रोमांच से भरपूर जासूसी उपन्यासों में खो कर ट्रेन का लम्बा सफ़र काटने वालों की एक जेनरेशन जवान हुई है. रेलवे स्टेशन के स्टॉलों पर उपलब्ध कलात्म सुनहरे अक्षरों में छपे शीर्षक के साथ ये उपन्यास रेलवे से जुड़ी यादों के पूरक हैं.
स्मार्टफोन और उसके बेपनाह डेटा वाले सिम के इस ज़माने में यह पाठक वर्ग सिमट गया है. अब यह वर्ग देखता ज्यादा है, पढता कम. रेलवे स्टेशन पर इन स्टॉलों पर न उस तादात में ये किताबें दिखती हैं न इनका पाठक वर्ग.
साहित्य बनाम सस्ता साहित्य
इस साहित्य का पाठक वर्ग रहा या नहीं, लेकिन इस साहित्य के औचित्य पर सवाल आज भी बना हुआ है, कि क्या इस तरह के लेखन को साहित्य का दर्ज़ा मिलना चाहिए भी या नहीं?
साहित्य हमारे हर तरह की सोच को प्रभावित करती है, राजनैतिक, भावनात्मक, सामाजिक, हर तरह की सोच को. पल्प फिक्शन अद्भूत तरीके से हमारे सामान्य इच्छाओं को ही दर्शाता है और प्रभावित भी करता है. हिंदी का पल्प फिक्शन में आस-पास घटित हो रहे सामाजिक मुद्दे होते हैं, पर उन समस्याओं के हल के बीच में ही पितृसत्तात्मक सोच झांकने लगती है. एक सावधान पाठक को इन उपन्यासों में किसी समस्या को फ़ौरन निपटारे के तर्ज़ पर सुलझाने के प्रति भी सजग रहना होगा. हीरो-केन्द्रित इस साहित्य का नतीजा हम अपने आस-पास अक्सर देखते हैं जब कोई बड़ा अपराध होता है तो सजा के तौर पर चौराहे पर लटकाने या दोषी को जान से मारना ही हमें सबसे पहला हल नज़र आता है. ऐसा हल जिसमें चर्चा, प्रगतिशीलता या संवैधानिक कवायद होती नहीं दिखती.
एक समाज में साहित्य पढने वाले हर तरह के लोग होते हैं. जैसे, लोग फार्मूला फिल्म भी देखना पसंद करते हैं और सामजिक लिहाज़ से ज़रूरी किन्तु गंभीर फिल्म्स भी. भाषा की समृद्धि के लिहाज से भी हर तरह के साहित्य की ज़रूरत है. समाज में प्रेमचंद और वेद प्रकाश शर्मा दोनों की ज़रूरत होने के बावजूद प्रेमचंद और वेद प्रकाश शर्मा की उपयोगिता में फ़र्क करने की क्षमता ही हमें एक सावधान पाठक बनाती है.
(फीचर ईमेज क्रेडिट: Flipkart)