‘रुक जाना नहीं’ : यू.पी. के किसान परिवार से, हिन्दी लेकर पी.सी.एस. परीक्षा में सफलता की कहानी
आज हम इस सीरीज़ की 24वीं कड़ी में सुनेंगे उत्तर प्रदेश के पिछड़े क्षेत्र कुशीनगर के किसान परिवार से पढ़ाई करने दिल्ली यूनिवर्सिटी आने और फिर हिन्दी मीडियम लेकर यू.पी. पी.सी.एस. परीक्षा पास करने वाले दीपक जायसवाल की प्रेरक कहानी। लिखने के शौक़ीन दीपक पिछड़े क्षेत्रों से आने वाले लाखों विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत हैं। डी.यू. में हिन्दी साहित्य के गोल्ड मेडलिस्ट रहे दीपक कहानियाँ और कविताएँ भी लिखते हैं। वह वर्तमान में उत्तर प्रदेश के टैक्स डिपार्टमेंट में अधिकारी हैं।
यू.पी. के कुशीनगर के एक छोटे से गाँव सोहरौना में पैदा हुआ हूँ, जहाँ से हिमालय की श्रृंखलाएं दिखती हैं। सांस्कृतिक रूप से बेहद समृद्ध क्षेत्र लेकिन शिक्षा और विकास की दृष्टि से यह बेहद पिछड़ा क्षेत्र है। खेती की जोत छोटी-छोटी है, उस पर आश्रित लोग ज़्यादा हैं। शिक्षा का स्तर यह है कि अंग्रेज़ी माध्यम का ठीक से एक स्कूल तक नहीं है और जहाँ विज्ञान जैसी चीजों की पढ़ाई किसी आसमानी चिड़िया को पकड़ने जैसा होता है।
इंटरमीडियेट में रसायन, भौतिकी या जीव विज्ञान के प्रैक्टिकल हमने किसी प्रयोगशाला में नहीं किताबों के फोटो में किए।हमारे यहाँ कंप्यूटर गणेश जी की मूर्ति की तरह था सो यह लाज़िम था कि यह बस देखने और श्रद्धा करने की चीज थी, सो हम लोगों के 'कभी माउस गहि न हाथ' यह हाल मेरे पृष्ठभूमि के हर एक विद्यार्थी की कहानी रही। जबकि आज की प्रतियोगिताओं में इनके बिना आपका कहाँ ठहरते हैं?
गाँव और महानगरों की शिक्षा और अवसंरचना में बहुत बड़ा फ़र्क़ है।इसके बावजूद इनसे जुड़ी एक अच्छी बात यह है कि इन छोटे शहरों और गाँवों के बच्चों को ज़्यादा सपने आते हैं और उनको ज़िंदा कर देने का जुनून इनके पास ज़्यादा होता है।
मेरे दादा खेतों में हल चलाते थे और जब शाम को लौटते तो उनके पैरों के दरारों से खून रिसता था। जब कोई बीमार होता तो कोई ढंग का अस्पताल तक नहीं होता थे। लोग छोटी-छोटी बीमारियों से मर जाते, यह सब देख दुख होता था दिल कचोटता था।
बहुत से मेरे साथ के प्राथमिक पाठशाला में पढ़े बच्चे भूख और ग़रीबी से पढ़ाई छोड़ दूर शहरों में मज़दूरी करने चले गए। लोगों को बहुत आधारभूत ज़रूरतों के लिए अपनी ज़मीन, अपनी माटी छोड़नी पड़ी।
ढ़ेर सारी चीज़ें मुझको सालती रहती। ढेर सारी समस्याएं थी और हैं लेकिन मेरे साथ थोड़ी अच्छी चीज़ें थी। मेरे बाउजी हमेशा बेहद सकारात्मक इंसान रहे। वे बोलते, ‘आपके पाँव भले कीचड़ में धँसे हो, फिर भी आप आसमान देख सकते हैं।’ इस तरह कि ढेर सारी प्रेरक लोकोक्तियाँ,कहावतें हमारे सामने रखते।
मैं थोड़ा भाग्यशाली रहा कि बारहवीं की पढ़ाई करके मैं दिल्ली आ गया। भारी चका-चौंध थी। पढ़ने वाले धुरंधर थे। कान्वेंट और देश के प्रतिष्ठित स्कूलों से आये हुए बच्चे थे। बहुत प्रतिभावान और हर सलीके से समृद्ध-सम्पन्न।
जब गाँव से दिल्ली पहुँचा मुझे इस छोटी सी बात को लेकर भी आश्चर्य होता था कि यहां बिजली नहीं गुल होती थी,लाइट चौबीस घण्टे आती थी, यहाँ बड़ी बड़ी लाइब्रेरीयाँ थीं और ढेर सारे विद्वान लोग, जिन्हें देखकर आप प्रेरणा ले सकते थे। भटकाव भी था, भटकाव का दरिया भी यह शहर था, मगर मुझे बाउजी के पैर के फ़टी बेवाईं, उनका क़र्ज़ में डूबा हुआ चेहरा याद हो आता, जो भटकावों से बचाए रखता। अब मुझे लगता है जो भी लड़के अपने घर-परिवार धरती को छोड़ते वक्त अपने सीने में जो आग भरकर लाए थे म, यदि उसे बनाएँ रखें, जुनून और धैर्य से यदि उसका पीछा करें तो वे अपने सपनों को ज़िंदा कर सकते हैं।
मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और मुझे स्नातक तथा परास्नातक में गोल्ड मेडल भी मिला। मुझे खुशी हुई लेकिन मुझे एहसास था यह बहुत छोटी चीज़ थी बड़े से जीवन के सामने। बाबूजी बचपन में हमेशा मुझसे पूछते पुलिस की बंदूक में संगीन क्यों लगा रहता है जबकि सिपाही तो बंदूक़-गोली से लड़ता है? फ़िर मैं उन्हीं का बताया हुआ जवाब उन्हें देता कि ‘ताकि जब कभी बंदूक न चले या जाम हो जाए जब गोली खत्म हो जाए तब भी सिपाही बंदूक के आगे लगे संगीन से लड़ सके, बंदूक से भाले की तरह काम लिया जा सके, आपके पास,आपकी ज़िंदगी के पास विकल्प खत्म न हो।
’यह प्रश्न मेरे सामने फिर था ? इसलिए सिविल सेवा की तैयारी करने के साथ साथ मैंने विकल्प के तौर पर जे. आर. एफ़ निकाला और पीएचडी करके प्रोफ़ेसर बनने की राह खुली रखी। मेरे पृष्ठभूमि वाले बच्चों के पास उस समय एक बड़ी समस्या आई.ए.एस. और पी.सी.एस. में हिंदी-अंग्रेज़ी माध्यम को लेकर भी थी लेकिन निशांत जैन भैया जैसे लोगों ने इस किले को हिंदी माध्यम से भेद कर दिखा दिया था कि यह माध्यम से कहीं ज्यादा धैर्य और जुनून से जुड़ा हुआ मामला है।
मैं भाग्यशाली रहा कि उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा में मुझे प्रथम बार में ही सफलता मिल गयी। जो सपना मैंने अपने गाँव के खेतों के मेढ़ों पर खड़े होकर देखा था उसे मैं अब जीने वाला था। यह सफलता उन सारे लोगों की थी जो मेरे पीछे खड़े थे साथ बने रहे जिन्होंने मुझे हौसला दिया प्रेरणा दी। लेकिन फिर कहूँगा जीवन हर हार और सफलता से बहुत बड़ी चीज है, हार में बहुत-बहुत निराश नहीं होना।
राम-रावण युद्ध में एक समय ऐसा आया जब राम भी हताश हो गए थे। उन्हें लगा संसाधन, शक्ति, सेना, सब रावण-अन्याय की तरफ हैं, मैं इस युद्ध में कहाँ हूं? लेकिन हताश राम ने अपने विवेक को ताक पर कभी नहीं रखा, उन्होंने ‘आराधन का दृढ़ आराधन से उत्तर’ दिया, ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ की और विजयी हुए।
रौशनी की राह किसी घने अंधेरे में भी समाप्त नहीं होती, रात के बाद दिन आता है, तीर को चलाने के लिए प्रत्यंचा को थोड़ा पीछे खींचना होता है। जीवन हताश और निराश होने के लिए नहीं है ‘सह सवार ही गिरा करते हैं मैदान-ए-जंग में, वह तिफ़्ल ही क्या जो घुटनों के बल चले।’
सफलता या हार जीवन के पड़ाव हैं बस।रास्ते के ढेर सारे पड़ावों से हमें गुजरना होता है।हम सब एक राही ही तो हैं। जीवन जो मिला है जिसे बिना रिहर्सल के इस दुनियावी रंगमंच पर सिर्फ एक बार जीना है कोशिश होनी चाहिये उसे बेहद खूबसूरती से जीने की। जो दुनिया हमें सौंपी गयी है उसे थोड़ा और सुंदर बेहतर और अगली पीढ़ी के लिए सुविधाजनक और इंसानियत की तरफ़ झुकी हुई बनाए रखनी की।मेरी भी कोशिश है कि ऐसा कुछ कर सकूँ, जीवन के मुश्किलों से हताश न होऊँ, बैट का बल्ला हमेशा हाथ में पकड़ा रहूँ और जो खुशियाँ जो ज्ञान इस दुनिया,समाज,लोगों से मिला है उसे लौटा सकूँ।
गेस्ट लेखक निशान्त जैन की मोटिवेशनल किताब 'रुक जाना नहीं' में सफलता की इसी तरह की और भी कहानियां दी गई हैं, जिसे आप अमेजन से ऑनलाइन ऑर्डर कर सकते हैं।
(योरस्टोरी पर ऐसी ही प्रेरणादायी कहानियां पढ़ने के लिए थर्सडे इंस्पिरेशन में हर हफ्ते पढ़ें 'सफलता की एक नई कहानी निशान्त जैन की ज़ुबानी...')