बेहतर समाज के लिए सबको सोचना होगा, सिर्फ बातें नहीं, काम करना होगा-अंशु गुप्ता
भारत में तेजी से आर्थिक और राजनीतिक बदलाव हो रहे हैं। जब आर्थिक और राजनीतिक बदलाव होते हैं तो उसका सीधा असर समाज पर पड़ता है और ऐसे में सामाजिक संरचनाएं टूटती हैं। संरचनाओं के टूटने का असर लोगों की मानसिकता पर गहरा पड़ता है। तय है इससे हर उम्र और हर तबके के लोगों पर प्रभाव पड़ता है। लेकिन क्या जो सामाजिक बदलाव हो रहा, वो सही है? जिन हालात में हम रह रहे हैं क्या उससे हम संतुष्ट हैं? क्या समाज के हर तबके तक वो सारी चीज़े पहुंच रही हैं जिसकी उन्हें उम्मीद है? इन सारे सवालों से जूझना ज़रूरी है और गंभीरता से सोचना ज़रूरी है। ये सारी चिंता है सामाजिक कार्यकर्ता, मैग्सेसे सम्मान से सम्मानित और ‘गूंज’ के संस्थापक अंशु गुप्ता का।
TiECon 2015 में ‘सोशल आंत्रप्रेन्योरशिप एंड इम्पैक्ट इन्वेस्टिंग’ पर अपनी राय रखते हुए अंशु गुप्ता ने अपनी ‘गूंज’ उन लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जो समाज को लेकर चिंतत हैं, समाज की बेहतरी के लिए प्रयासरत हैं, जो समाज में कुछ अच्छा कर रहे, सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए निवेश करने की तैयारी कर रहे हैं। अंशु ने अपनी बात बड़ी बेबाकी से रखी और समाज की असलियत को सबके सामने लाने की कोशिश की। अंशु का मानना है कि
“समाज के बदलने से पहले खुद को बदलना ज़रूरी है, दुनिया को बदलने से पहले खुद को ठीक करना ज़रूरी है। यह बिलकुल ऐसा ही है कि हमें जब ट्रैफिक पुलिस वाला पकड़ता है और चालान करने करने लगता है तो हम सौ रुपए देकर अपनी जान छुड़ाते हैं। ऐसे में हम क्या करते हैं? चूंकि चालान पांच सौ रुपए का होता, इसलिए हमने चार सौ रुपए बचा लिए। ज़ाहिर है हम उस ट्रैफिक वाले से चार गुणा ज्यादा बड़े चोर हैं। ऐसे में हम किस समाज के बदलाव के बात करते हैं।”
अंशु गुप्ता उन बुनियादी सवालों की तरफ इशारा करते हैं जिनसे हमारा, आपका और हम सबका सरोकार है। अंशु का मानना है कि
“हम कितने गर्व से बताते हैं कि हमारे बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं। लेकिन कितने ऐसे देश हैं जहां प्राइवेट स्कूल और पब्लिक स्कूल हैं। ऐसे में आपने कभी सोचा है कि प्राइवेट स्कूल की ज़रूरत क्यों पड़ती है और प्राइवेट स्कूल क्या अपनी लागत से सबकुछ करता हैं? सच ऐसा नहीं है। जिन प्राइवेट अस्पतालों में हम इलाज कराते हैं उनके मालिकों को सरकार ने एक रुपए के हिसाब से ज़मीन देती है। ऐसे में नुकसान किसका हो रहा है? हमारा। हमारा ही पैसा अस्पताल बनाने में लगा है और बाद में वही अस्पताल हमसे ढेर सारे पैसे लेता है। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान किसका हुआ? ज़ाहिर है जनता का।”
देश में हर क्षेत्र में लगातार काम करने की ज़रूरत है। अंशु गुप्ता का मानना है कि सामाजिक बदलाव के लिए शुरूआत करनी होगी किसानों से। किसान जिनकी बदौलत हमें खाना मिलता है। अगर किसान अन्न उपजाना बंद कर दें तो हमारी हालत क्या होगी, इसका हम अंदाजा लगा सकते हैं। लेकिन कितने लोग उठ कर ये कहते हैं कि मैं किसानों की बेहतरी के लिए काम करना चाहता हूं। पैसे लगाना चाहता हूं। शायद बहुत कम। ऐसे में हमें सिर्फ कहने के लिए काम नहीं करना है। बदलाव के लिए काम करना है। अंशु का मानना है कि
“समाज में जिस बदलाव की सबसे ज्यादा ज़रूरत है वो है लोगों के मन में सुरक्षा का भाव आना। जिसकी शुरुआत घर से होती है। ऐसा क्यों नहीं होता कि हम अपने घरों में अपनी छोटी बेटी को अकेले रहने देते हैं। वजह है असुरक्षा। जिस दिन हम ऐसा करने लगेंगे उस दिन समझा जाएगा कि बदलाव आ रहा है समाज में। इसलिए समाज को तभी बदला जा सकता है जब हमारी मानसिकता बदलेगी।”
अंशु गुप्ता के सारे सवाल असल में बेहतर समाज की कामना ही हैं। जिस दिन इन सवालों से हम जूझना बंद कर देंगे उस दिन हमारा समाज वाकई बेहतर और चिंता मुक्त हो जाएगा।
(‘गूंज’के ज़रिए अंशु गुप्ता समाज के उन तबकों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं जिनके पास बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। खास तौर से जिनके पास पहनने को कपड़े नहीं हैं।)