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पर्यावरण के लिए खतरा बना लाखों टन सैनिटरी नैपकिन का कचरा

sanitary pads

सांकेतिक तस्वीर

हर साल जमा हो रहे नॉन-कमपोस्टेबल 113,000 टन प्लास्टिक मिश्रित सैनिटरी नैपकिन का कचरा पर्यावरण के लिए मुसीबत बनते जाने के बीच इसकी एक नई किस्म ने पूरी दुनिया के बाजारों में दस्तक दे दी है। इसका नाम है 'सेनेटरी कप'। बाजार की भाषा में इसे 'सिल्क कप' भी कहते हैं। इसकी ऑनलाइन भारी डिमांड है। ये एक बार खरीदकर दस साल तक इस्तेमाल हो सकता है। 


हमारा देश जिस रफ्तार से विकास की ओर बढ़ रहा है, उसी स्पीड में सैनिटरी नैपकिन के बिजनेस की संभावनाएं भी बड़ा आकार लेती जा रही हैं और इसी के साथ पर्यावरण का बोझ भी भारी होता जा रहा है। पर्यावरण विज्ञानी इस बात से चिंतित हैं कि हर साल जो 113,000 टन प्लास्टिक मिश्रित सैनिटरी नैपकिन का कचरा जमा हो रहा है, डिस्पोजल की दृष्टि से उसका स्वच्छता प्रबंधन आज भी उपेक्षित मुद्दा बना हुआ है। दुनिया के बाकी देशों की तुलना में भारत सैनिटरी कचरे के निपटारे में बहुत पीछे है।


आने वाले तीन वर्षों में सेनेटरी से जुड़े बाजार करीब 42.7 अरब डॉलर का हो जाएगा। भारत में पैतीस करोड़ महिलाएं इस बाजार का हिस्सा बन चुकी हैं। हमारे देश में सालाना 43.4 करोड़ सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल हो रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि बड़े शहरों की अधिकांश महिलाएं कॉमर्शियल डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं, जिन्हें मालूम नहीं कि ये उत्पाद कुछ रासायनिक पदार्थों (डायोक्सिन, फ्यूरन, पेस्टिसाइड आदि) के कारण स्वास्थ्य के लिए खतरा हैं।


वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक प्लास्टिक पदार्थ से बने नैपकिन हेल्थ के लिए कई बार काफी खतरनाक हो जाते हैं और इससे कैंसर होने तक की आशंका रहती है। इसके निस्तारण की जानकारी के अभाव में अधिकांश महिलाए इसे कचरे के डिब्बे में फेंक देती हैं, जो अन्य प्रकार के कचरे में मिक्स हो जाता है। इसे रिसाइकिल नहीं किया जा सकता और खुले में ऐसा कचरा उठाने वाले के स्वास्थ्य को भी इससे खतारा होता है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक, एक अरब से ज्यादा नॉन-कमपोस्टेबल पैड कचरा वाले क्षेत्रों और सीवर में डाल दिए जाते हैं।


बाजार और स्वास्थ्य सेवाओं, स्वच्छता अभियानों के बीच यह बढ़ता असंतुलन ही पर्यावरणविदों के तनाव का कारण बन गया है। विद्यालयों तथा संस्थानों में इस तरह के कचरा निस्तारण की भट्ठियां लगाई हैं, जो अपर्याप्त हैं। भारत सरकार भी ऐसे अपशिष्ट ठिकाने लगाने के बारे में चिंतित है। एक अरब से ज्यादा नॉन-कमपोस्टेबल पैड कचरा वाले क्षेत्रों और सीवर में डाले जा रहे हैं। अब पर्यावरणविद् दोबारा इस्तेमाल होने वाले कपड़े के पैड, बायोडिग्रेडेबल पैड और कप के इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं।


इसी बीच सेनेटरी नैपकीन के एक और नए किस्म के बाजार ने पूरी दुनिया में दस्तक दे दी है- सेनेटरी कप। चूंकि सैनिटरी नैपकिन को डि-कंपोज होने में पांच-छह सौ साल लग जाते हैं, इसलिए अब बायोडेग्रेडेबल सैनिटरी कप बाजार में आ गया है, जिसकी कीमत तीन सौ से लेकर एक हजार रुपए तक है। इसकी ऑनलाइन बढ़ती डिमांड की एक और वजह है, इसका लगातार आठ-दस वर्षों तक इस्तेमाल।


एक बार खरीद लिया तो दस साल की छुट्टी। इसे बाजार की भाषा में सिल्की कप भी बोलते हैं, जो तीन साइज लार्ज, मीडियम और स्मॉल में उपलब्ध है। इस्तेमाल के बाद इसे पानी में 10 मिनट तक उबालने के बाद सुखाकर दोबारा इस्तेमाल के लिए रख लिया जाता है। चिकित्सक बताते हैं कि इसेको जानवरो और बच्चों की पहुँच से दूर रखते हुए शुष्क कैरी पाउच में सुरक्षित स्थान पर स्टोर करना चाहिए। इस समय इस कप की डिमांड छोटे शहरों में ज्यादा है।


पर्यावरण और सेहत की दृष्टि से फिलहाल, अपशिष्ट निस्तारण के लिए ग्रीनडिस्पो मशीन बाजार में आ गई है। इस आठ सौ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाली मशीन नुमा भट्ठी ग्रीनडिस्पो में अपशिष्ट तुरंत नष्ट हो जाता है। यह मशीन हैदराबाद के इंटरनेशनल एडवांस्ड रिसर्च सेंटर फॉर पाउडर मेटलर्जी एंड न्यू मैटेरियल्स (एआरसीआई), नागपुर स्थित नेशनल राष्ट्रीय पर्यावरणीय अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) और सिकंद्राबाद की कंपनी सोबाल ऐरोथर्मिक्स ने मिलकर बनाई है।


हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिए इस भट्टी में 1050 डिग्री सेल्सियस तापमान वाला एक चैंबर भी है। सिरेमिक सामग्री के उपयोग से इस उपकरण को विशेष रूप से डिजाइन किया गया है। 'पैड बर्न' नाम से मैसर्स गर्ल केयर द्वारा ग्रीनडिस्पो की मार्किटिंग देश भर में की जा रही है। बिजली से चलने वाली यह नन्ही सी भट्ठीनुमा मशीन इंसान और पर्यावरण दोनों की सेहत का ख़्याल रखती है। स्वयंसेवी संस्थाओं और नगर निकायों की मदद से इसे सार्वजनिक स्थानों पर लगाया जा सकता है।


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