मैत्रेयी पुष्पा वो बेबाक महिला साहित्यकार, जिन्होंने जो सोचा वो लिखा...
मैत्रेयी पुष्पा ने एक बार जो ठान लिया, सो ठान लिया...
मैत्रेयी जी अपने निर्भीक लेखन और बेबाकबयानी के लिए कभी कथाकार राजेंद्र यादव और हंस के बहाने तो कभी अपने वैवाहिक जीवन और स्त्री-विमर्शों के चलते अक्सर मीडिया सुर्खियों में आती रहती हैं। वह एक बार जो ठान लेती हैं, सो ठान हैं, फिर चाहे कितना भी विरोध होता रहे। शायद ही कोई लेखिका हो, जो इतने साहस के साथ स्वयं के वैवाहिक जीवन पर इतना मुंहफट रहे...
वह कहती भी हैं कि लोग तरह-तरह के कमेंट देते हैं, अपनी समझदारी से देते हैं, सहमति-असहमति प्रकट करते हैं। उससे मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता।
अक्सर अपने लेखन और बयानों से विवादों, बात-बेबात में घिर जाने वाली देश की चर्चित हिंदी लेखिका एवं दिल्ली साहित्य अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा का आज जन्मदिन है। वह अकादमी उपाध्यक्ष मनोनीत किए जाने पर सुर्खियों में आ जाती हैं तो कभी अपने वैवाहिक जीवन पर व्यक्त विचारों और कृतियों में स्त्रियों पर साहसिक लेखन के लिए। अलीगढ़ (उ.प्र.) के सिकुर्रा गांव की रहने वाली प्रसिद्ध कथा लेखिका एवं दिल्ली हिन्दी अकादमी उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा का आज (30 नवंबर) जन्मदिन है। उनके जीवन का शुरुआती दौर बुंदेलखण्ड में बीता है। अब लंबे समय से दिल्ली में रह रही हैं।
मैत्रेयी जी अपने निर्भीक लेखन और बेबाकबयानी के लिए कभी कथाकार राजेंद्र यादव और हंस के बहाने तो कभी अपने वैवाहिक जीवन और स्त्री-विमर्शों के चलते अक्सर मीडिया सुर्खियों में आती रहती हैं। वह एक बार जो ठान लेती हैं, सो ठान लेती हैं, फिर चाहे कितना भी विरोध होता रहे। शायद ही कोई लेखिका हो, जो इतने साहस के साथ स्वयं के वैवाहिक जीवन पर इतना मुंहफट रहे।
वह कहती हैं- 'मैंने खुद को कभी पत्नी माना ही नहीं। यह मेरे पति का दुर्भाग्य मानिए कि पत्नी की तरह कभी उनकी सेवा नहीं की, जैसी दूसरी औरतें करती हैं। जैसे कि कहीं जा रहे हैं तो अटैची लगा दी, नहाने जा रहे हैं तो कपड़े रख देती, उनके कपड़े प्रेस करती - यह सब कभी नहीं किया। और पति ने कभी इस बात की शिकायत नहीं की। उन्होंने हमेशा अपना काम कर लिया। मैंने कभी नहीं पूछा कि तुम कब आओगे तो लोगों को इससे बहुत शिकायत होती है कि वो जाते हैं तो तुम तो पूछ लेतीं कि कब वापस आओगे? पर उनके जाने पर मैं खुद को स्वतंत्र महसूस करती। मैं सोचती कि अब मैं अपने मन का कुछ करूंगी। कुछ अपने मन का करूंगी, कुछ गज़ल सुनूंगी। उडूंगी, चाहे घर में ही उडूं। हालांकि पति सोचते थे कि ये क्यों नहीं मानती। वो मुझे उदाहरण भी देते दूसरी स्त्रियों के। मैं कहती थी कि पता नहीं, मैंने तुमसे शादी इसलिये नहीं की। हालांकि मेरा प्रेम विवाह नहीं हुआ था, अरेंज्ड मैरिज थी लेकिन अरेंज्ड मैरिज भी मेरी मर्जी से हुई थी। मैं कहती कि मैं तुमको पति मानकर नहीं आई थी, मैंने तो सोचा था कोई साथी मिलेगा। लेखिका भी नहीं माना अपने आपको। कोई मुझे लेखिका कहता है तो सकुचा जाती हूं।'
मैत्रेयी जी की प्रमुख कृतियां हैं - स्मृति दंश, चाक, अल्मा कबूतरी, कहैं ईसुरी फाग, बेतवा बहती रही, चिन्हार, इदन्नमम, गुनाह बेगुनाह, कस्तूरी कुण्डल बसै, गुड़िया भीतर गुड़िया, ललमनियाँ तथा अन्य कहानियां, त्रिया हठ, फैसला, सिस्टर, सेंध, अब फूल नहीं खिलते, बोझ, पगला गई है भागवती, छाँह, तुम किसकी हो बिन्नी?, लकीरें, अगनपाखी, खुली खिड़कियां आदि। उनकी कहानी 'ढैसला' पर टेलीफिल्म बन चुकी है। उनके उपन्यासों में देश अत्यंत पिछड़ा अंचल बुंदेलखंड जीवंत हो उठता है। वह हिंदी अकादमी के साहित्य कृति सम्मान, कहानी 'फ़ैसला' पर कथा पुरस्कार, 'बेतवा बहती रही' उपन्यास पर उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद सम्मान, 'इदन्नमम' उपन्यास पर शाश्वती संस्था बंगलौर द्वारा नंजनागुडु तिरुमालंबा पुरस्कार, म.प्र. साहित्य परिषद द्वारा वीरसिंह देव सम्मान, वनमाली सम्मान आदि से समादृत हो चुकी हैं।
मैत्रेयी जी कई बार साहित्यिक हलकों में विवाद का केंद्र बन चुकी हैं। एक बार 'हंस' के संपादक राजेंद्र यादव ने उनकी तुलना 'मरी हुई गाय' से की तो पूरे देश में जमकर बात का बतंगड़ हुआ था। वह कहती भी हैं कि लोग तरह-तरह के कमेंट देते हैं, अपनी समझदारी से देते हैं, सहमति-असहमति प्रकट करते हैं। उससे मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। सन 2010 में एक बार महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा के तत्कालीन कुलपति और लेखक विभूति नारायण राय की हिंदी लेखिकाओं पर दो अखबारों में एक टिप्पणी छपी जिसमें विभूति राय की ओर से कहा गया कि- 'हिंदी लेखिकाओं में एक वर्ग ऐसा है, जो अपने आप को बड़ा 'छिनाल' साबित करने में लगा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में कुछ महिला लेखिकाएं ये मान के चल रही हैं कि स्त्री मुक्ति का मतलब स्त्री के देह की मुक्ति है। हाल में कुछ आत्मकथाएं भी आई हैं, जिनमें होड़ लगी है कि कौन सबसे बड़ा इन्फेडेल है। यह गलत है।'
इस पर मैत्रेयी पुष्पा का वक्तव्य आया था कि 'हम महिलाओं के सम्मान के लिए बड़ी लंबी लड़ाई लड़कर यहां पहुंचे हैं, लेकिन इस तरह के पुरुष हमें गालियां देते हैं, एक पत्थर मारते हैं और सब पर कीचड़ फैला देते हैं। इसमें क्या संकीर्ण है कि अगर औरतें अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक़ जीना चाहती हैं, घर से बाहर निकलना चाहती हैं। आपसे बर्दाश्त नहीं होता तो हम क्या करें, पर आप क्या गाली देंगे?' मैत्रेयी जी पहली ऐसी महिला लेखिका मानी जाती हैं जिसने अपनी कृतियों में गांव की स्त्री की व्यथा को पूरी गहराई से जाना, समझा और व्यक्त किया।
वह कहती हैं- 'शादी से पहले मैं ऐसी लड़की थी जिसके पास खाने के लिये रोटी भी नहीं थी, रहने के लिये घर नहीं था, पढ़ने के लिये साधन नहीं थे। आदमी सारी उम्र भूला जाता है लेकिन बचपन नहीं भूलता। तो बचपन ऐसी निश्छल चीज है जो अभी तक याद है। बचपन विपन्नता में गुजरा, संकटों में गुजरा। वही सब मेरे साथ था, जिसे मैं साहित्य में ले आई। वही सब आज भी मुझे उनसे जोड़े हुए है। मुझे किसी भी क्षेत्र में, देश के किसी भी इलाके में भेज दीजिए, मैं बहुत खुश रहूंगी और वहां जैसे मैंने बचपन काटा, वैसे ही लोगों से जुड़कर फिर कुछ लिखना चाहूंगी। असल में पहले तो मुझे यह भी नहीं पता था कि जो मैं लिखूंगी वह छप भी जायेगा, जैसा कि हर लेखक को लगता है। मैं बार-बार कहती हूं कि मेरी बड़ी बेटी है, उसने कहा कुछ लिखो। तुम हमारे लिये लिखतीं थीं तो कुछ इनाम-विनाम मिल जाते थे। अपने नाम से लिखो। तो मैंने उससे यह कहा था कि बेटा मेरा नाम क्या है? मैं तो नाम भी भूल गई। मैं तो मिसेज शर्मा हूं। डाक्टर आर.सी.शर्मा की वाइफ। इसके सिवा मुझे कुछ याद नहीं। तो उस वक्त मैं इस अवस्था में थी। बच्चियों के कहने से मैंने कहानी लिखी। मुझे नहीं पता था कि वह छपेगी भी या नहीं। वह छपी भी नहीं।'
वे लिखती हैं, 'मैं पढ़ती भी थी लेकिन पढने की एक और विडम्बना मेरे साथ थी कि जब मैं किसी की कहानी पढ़ती थी, मान लो मैं धर्मयुग या साप्ताहिक हिंदुस्तान में किसी की कहानी पढ़ रही हूं, उसके समानान्तर मेरे मन में कोई कहानी चलने लगती थी। मैं इससे इतनी परेशान हो जाती थी कि पढ़ना छोड़ देती थी और अपनी मन की कहानी कहने लगती थी। इस तरह दूसरे की कहानी को भी एक प्रेरणा कह सकते हैं। मैं उस समय इस अवस्था में थी कि यह जानते हुये भी कि यह कहानी छपेगी नहीं मैंने कहानी लिखी। कहानी छपी नहीं लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। जैसा कि नये लेखक करते हैं कि एक बार कहानी नहीं छपी तो निराश हो जाते हैं कि हम फिर कभी नहीं लिखेंगे। मैंने सोच लिया था कि बच्चों ने कहा है तो अब मैं यह नहीं करूंगी कि नहीं छपी तो नहीं लिखूंगी। फिर मैंने लिखी कहानी। वह नहीं छपी तो फिर लिखी। फिर-फिर लिखी। एक कहानी 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में छप गई। जब एक बार छप गई तो लिखना शुरू हो गया। यह भी बहुत जरूरी है किसी लेखक के लिये उसका एकबार छप जाना।'
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