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जीवन की बेचैनियों को स्थिर करते: साधना के कवि पुरुषोत्तम अग्रवाल

ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में जन्मे अग्रवाल जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान भी एसोसिएट प्रोफेसर रहे। प्रतिभाशाली प्राध्यापक के रूप में वे विद्यार्थियों में काफी लोकप्रिय रहे। 

पुरुषोत्तम अग्रवाल (फाइल फोटो)

पुरुषोत्तम अग्रवाल (फाइल फोटो)


पुरुषोत्तम अग्रवाल की पहचान भक्तिकाल, खासतौर पर कबीर के मर्मज्ञ आलोचक की है। शायद इसीलिए राजकमल प्रकाशन ने उन्हें सम्पूर्ण 'भक्ति श्रृंखला' के संपादक का दायित्व सौंप दिया था। 

कवि-हृदय पुरुषोत्तम अग्रवाल की सुमन का इंतज़ार करते हुए, गति, मैं बना विद्याधर, वसीयत, अश्वमेध, चिट्ठी, विद्याधर, स्मृति, उत्तररामचरित का एक श्लोक हिन्दी में, समुद्र को याद करते हुए, वह पता है मेरा, सपने में कवि, आदि काव्यात्मक रचनाएं लोकप्रिय हुई हैं।

हिंदी के एक प्रमुख आलोचक, कवि, चिन्तक और कथाकार हैं पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं। आज (25 अगस्त) उनका जन्मदिन है। उनकी लिखी कई पुस्तकें लगातार सुर्खियों में रही हैं। 'संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध', 'तीसरा रुख', 'विचार का अनंत', 'शिवदान सिंह चौहान', 'निज ब्रह्म विचार', 'कबीर: साखी और सबद', 'मजबूती का नाम महात्मा गाँधी', 'अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय' आदि उनकी ऐसी ही सुपठनीय पुस्तकें हैं।

पुरुषोत्तम अग्रवाल को कबीर पर केंद्रित पुस्तक से दुनियाभर में कबीर के मर्मभेदी आलोचक के रूप में प्रसिद्धि मिली। कबीर पर अनगिनत पुस्तकें और लेख लिखे गए हैं लेकिन ऐसा माना जाता है कि हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक 'कबीर' के बाद अग्रवाल की यह पुस्तक कबीर को नए ढंग से समझने में सबसे अधिक सहायक साबित होती है। पुरुषोत्तम अग्रवाल की पहचान भक्तिकाल, खासतौर पर कबीर के मर्मज्ञ आलोचक की है। शायद इसीलिए राजकमल प्रकाशन ने उन्हें सम्पूर्ण 'भक्ति श्रृंखला' के संपादक का दायित्व सौंप दिया था। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कई अन्य तरह के मूल्यवान रचनात्मक लेखन भी किए हैं।

उनका यात्रा-वृत्तान्त 'हिंदी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान' प्रकाशित हुआ। उनकी कहानी - 'चेंग चुई', 'चौराहे पर पुतला' और 'पैरघंटी' चर्चाओं में रही हैं। एक फिल्म समीक्षक और स्तंभकार के रूप में भी उनका काम महत्वपूर्ण रहा है। नाटक और स्क्रिप्ट लेखन, वृत्तचित्र निर्माण और फिल्म समीक्षा में भी उनकी गहरी दिलचस्पी रहती है। कवि-हृदय पुरुषोत्तम अग्रवाल की सुमन का इंतज़ार करते हुए, गति, मैं बना विद्याधर, वसीयत, अश्वमेध, चिट्ठी, विद्याधर, स्मृति, उत्तररामचरित का एक श्लोक हिन्दी में, समुद्र किनारे मीरा, मेवाड़ में कृष्ण, गुमशुदा, समुद्र को याद करते हुए, वह पता है मेरा, केवल शब्द ही, पहले ही आए होते, सपने में कवि, आदि काव्यात्मक रचनाएं लोकप्रिय हुई हैं। बहुखंडीय रचना - रज़ा (विख्यात चित्रकार) पर उनकी पंक्तियां पढ़ते ही बनती हैं-

सागर की साँवरी देह पर चाँदनी

जैसे तुम्हारे साँवरे गात पर आभा

करुणा की, प्रेम की, अपनी सारी बेचैनी को स्थिर करती साधना की

कितना अलग दिखता है समुद्र तुम्हें याद करते हुए,

कैसी समझ आती हो तुम

समुद्र को याद करते हुए..।

ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में जन्मे अग्रवाल जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान भी एसोसिएट प्रोफेसर रहे। प्रतिभाशाली प्राध्यापक के रूप में वे विद्यार्थियों में काफी लोकप्रिय रहे। इसके साथ ही वह राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान परिषद् (एनसीईआरटी) की हिंदी पाठ्यक्रम निर्माण समिति के प्रमुख सलाहकार भी रहे। वह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (यूनाइटेड किंगडम) के फैकल्टी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में ब्रिटिश एकेडमी विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे।

वह वर्ष 2007 में संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य मनोनीत हुए। इस दौरान उनकी छवि एक लोक बुद्धिजीवी की बनी। सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर टीवी पर बहसों से वे देशभर में लोकप्रिय हुए। अपनी आलोचना पुस्तक 'तीसरा रुख' के लिए देवी शंकर अवस्थी सम्मान, 'संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध' के लिए मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् का मुकुटधर पाण्डेय सम्मान, 'अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय' के लिए उनको प्रथम राजकमल कृति सम्मान से समादृत किया जा चुका है।

कई तरह की नर्म-नर्म स्मृतियों में भीगी हुई एक अन्य कविता है - सुमन का इंतज़ार करते हुए। आइए, उसकी पंक्तियों से रूबरू होते हैं-

शब्दों को नाकाफ़ी देख

मैं तुम तक पहुँचाना चाहता हूँ

कुछ स्पर्श

लेकिन केवल शब्द ही हैं

जो इन दूरियों को पार कर

परिन्दों से उड़ते पहुँच सकते हैं तुम तक

दूरियाँ वक़्त की फ़ासले की

तय करते शब्द-पक्षियों के पर मटमैले हो जाते हैं

और वे पहुँच कर जादुई झील के पास

धोते हैं उन्हें तुम्हारी निगाहों के सुगंधित जल में ।

यूँ बाल गर्दन के नीचे समेट कर

बाँध लिए हैं तुमने

मेज़ के करीब सिमट कर वैसे ही खड़ी हो,

उन्हीं दिनों की तरह...

थरथरा रही है स्मरण में आकृति

सामने बैठा मैं

निस्पंद

झाँक रहा हूँ अतीत में

जहाँ तो अब भी दिखते हैं

वे नाज़ुक खरगोश

छोटे-छोटे वादों के

वे प्रकाश-कण

बड़े-बड़े इरादों के

और वह विस्तार जिसे हम अपना हरा आकाश कहते थे

सब कुछ वैसा ही स्मरण पल में

फिर, सखी,

इस पल में क्यों इतनी स्याही है।

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