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'अंधा युग' में युवा पीढ़ी की कुंठा और संघर्ष के चित्र

धर्मवीर भारती के जन्मदि पर विशेष

'अंधा युग' में युवा पीढ़ी की कुंठा और संघर्ष के चित्र

Monday December 25, 2017 , 8 min Read

कभी कलम से गुनाहों का देवता, अंधा युग, कनुप्रिया जैसी कृतियां रचते, कभी पत्रकारिता के दौरान युद्ध-संवाददाता के रूप में भारत- पाक युद्ध (स्वतंत्रता बांग्ला देश) की रिपोर्टिंग करते तो कभी धर्मयुग जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका का ऐतिहासिक संपादन करते धर्मवीर भारती हमें कई तरह से याद आते हैं। पद्मश्री भारती जी का आज (25 दिसंबर) जन्मदिन है।

धर्मवीर भारती (फाइल फोटो)

धर्मवीर भारती (फाइल फोटो)


भारती जी की कृति 'कनुप्रिया', कनु अर्थात कृष्ण की प्रिया राधा की अनुभूतियों की गाथा है। इस कृति में जैसे स्त्री के अंतर्मन की एक-एक परत खोल कर रख दी गई है।

हिन्दी के सबसे महत्त्वपूर्ण नाटकों में से एक अंधा युग में धर्मवीर भारती ने ढेर सारी संभावनाएँ रंगमंच निर्देशकों के लिए छोड़ी हैं। कथानक की समकालीनता नाटक को नवीन व्याख्या और नए अर्थ देती है।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के स्तंभ धर्मवीर भारती की रचना 'सूरज का सातवां घोड़ा' कहानी कहने की अपने ढंग की एक अलग ही विधा वाली अनमोल कृति मानी जाती है। भारती जी आजीवन अपनी दो अभिरुचियों में प्राथमिकता से जीते रहे। एक तो गहन अध्येता के रूप में, दूसरे घुमक्कड़ लेखक के रूप में। सन 1972 में उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया गया। 1984 में हल्दी घाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार मिला। इसके अलावा वह संगीत नाटक अकादमी दिल्ली, भारत भारती उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, महाराष्ट्र गौरव, महाराष्ट्र सरकार, व्यास सम्मान से भी समादृत हुए। उनकी प्रमुख कृतियां हैं - मुर्दों का गाँव, स्वर्ग और पृथ्वी, चाँद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान, साँस की कलम से, समस्त कहानियाँ एक साथ, ठंडा लोहा, सात गीत, वर्ष कनुप्रिया, सपना अभी भी, आद्यन्त, गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, ग्यारह सपनों का देश, प्रारंभ व समापन, ठेले पर हिमालय, पश्यंती आदि।

भारती जी की कृति 'कनुप्रिया', कनु अर्थात कृष्ण की प्रिया राधा की अनुभूतियों की गाथा है। इस कृति में जैसे स्त्री के अंतर्मन की एक-एक परत खोल कर रख दी गई है। इसमें नारी के मन की संवेदनाओं और प्यार के नैसर्गिक सौन्दर्य का अप्रतिम चित्रण है। कनुप्रिया का प्रथम संस्करण सन 1959 में प्रकाशित हुआ था। ऐसे तो क्षण होते ही हैं जब लगता है कि इतिहास की दुर्दान्त शक्तियाँ अपनी निर्मम गति से बढ़ रही हैं, जिन में कभी हम अपने को विवश पाते हैं, कभी विक्षुब्ध, कभी विद्रोही और प्रतिशोधयुक्त, कभी वल्गाएँ हाथ में लेकर गतिनायक या व्याख्याकार, तो कभी चुपचाप शाप या सलीब स्वीकार करते हुए आत्मबलिदानी उद्धारक या त्राता, लेकिन ऐसे भी क्षण होते हैं जब हमें लगता है कि यह सब जो बाहर का उद्वेग है-महत्त्व उसका नहीं है-महत्त्व उसका है जो हमारे अन्दर साक्षात्कृत होता है-चरम तन्मयता का क्षण। इसी तरह की भावभूमि की यात्रा कराती है 'कनुप्रिया'........

शब्द, शब्द, शब्द....

कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व...

मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द

अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया हो

मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,

सिर्फ राह में ठिठक कर

तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँ

जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे

तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्म

तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख-ग्रीवा

तुम्हारी उठी हुई चंदन-बाँहें

तुम्हारी अपने में डूबी हुई

अधखुली दृष्टि

धीरे-धीरे हिलते हुए होंठ–

मैं कल्पना करती हूँ कि

अर्जुन की जगह मैं हूँ

और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है

और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौन-सा है

और मैं किसके पक्ष में हूँ

और समस्या क्या है

और लड़ाई किस बात की है

लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है

क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना

मुझे बहुत अच्छा लगता है

और सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैं

और इतिहास स्थगित हो गया है

और तुम मुझे समझा रहे हो……

कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व,

शब्द, शब्द, शब्द……

मेरे लिए नितान्त अर्थहीन हैं

मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ

हर शब्द को अँजुरी बनाकर

बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ

और तुम्हारा तेज

मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को

धधका रहा है

और तुम्हारे जादू भरे होठों से

रजनीगन्धा के फूलों की तरह टप्-टप् शब्द झर रहे हैं

एक के बाद एक के बाद एक……

कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……

मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं

मुझे सुन पड़ता है केवल

राधन्, राधन्, राधन्,

शब्द, शब्द, शब्द,

तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु – संख्यातीत

पर उनका अर्थ मात्र एक है

मैं!

मैं!

केवल मैं!

फिर उन शब्दों से

मुझी को

इतिहास कैसे समझाओगे कनु ?

भारती जी का काव्य नाटक 'अंधा युग' भारतीय रंगमंच का लोकप्रिय नाटक है। महाभारत के अंतिम दिन पर आधारित यह नाटक चार दशक से भारत की प्रत्येक भाषा में मन्चित हो रहा है। इब्राहीम अलकाजी, रतन थियम, अरविन्द गौड़, राम गोपाल बजाज, मोहन महर्षि, एम के रैना और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मन्चन किया है। इसमें महाभारत (युद्ध) और उसके बाद की स्थितियों, मानवीय महात्वाकांक्षाओं को सुचित्रित किया गया है। वस्तुतः अंधा युग में जीवन-जगत के नए संदर्भों को पूरी सुपठनीयता के साथ रेखांकित गया है।

हिन्दी के सबसे महत्त्वपूर्ण नाटकों में से एक अंधा युग में धर्मवीर भारती ने ढेर सारी संभावनाएँ रंगमंच निर्देशकों के लिए छोड़ी हैं। कथानक की समकालीनता नाटक को नवीन व्याख्या और नए अर्थ देती है। नाट्य प्रस्तुति में कल्पनाशील निर्देशक नए आयाम तलाश लेता है। कभी इराक युद्ध के समय निर्देशक अरविन्द गौड़ ने आधुनिक अस्त्र-शस्त्र के साथ इसका मन्चन किया था। नाट्यकृति में कृष्ण के चरित्र के नए आयाम और अश्वत्थामा की अतुलित शक्ति निरूपित हुई है, जिसमें हमारी आज की युवा पीढ़ी की कुंठा और संघर्ष के चित्र एक साथ साक्षात होते हैं। 'अंधा युग' संपूर्ण भारतीय साहित्य में अपने ढंग की अलग रचना है-

उस भविष्य में

धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे,

क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का,

सत्ता होगी उनकी

जिनकी पूँजी होगी,

जिनके नकली चेहरे होंगे

केवल उन्हें महत्त्व मिलेगा,

राजशक्तियाँ लोलुप होंगी,

जनता उनसे पीड़ित होकर

गहन गुफाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी....

युद्धोपरान्त,

यह अन्धा युग अवतरित हुआ

जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं

है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की

पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में

सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का

वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त

पर शेष अधिकतर हैं अन्धे

पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित

अपने अन्तर की अन्धगुफाओं के वासी

यह कथा उन्हीं अन्धों की है;

या कथा ज्योति की है, अन्धों के माध्यम से।

भारती जी की शिक्षा-दीक्षा और काव्य-संस्कारों की प्रथम संरचना प्रयाग में हुई। उनके व्यक्तित्व और उनकी प्रारंभिक रचनाओं पर पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के उच्छल और मानसिक स्वच्छंद काव्य संस्कारों का गहरा प्रभाव माना जाता है। उनके कवि की बनावट का सबसे प्रमुख गुण उनकी वैष्णवता है। पावनता और हल्की रोमांटिकता का स्पर्श और उनकी भीनी झनकार उनकी कविताओं में सर्वत्र पाई जाती है। उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है- 'थके हुए कलाकार से' -

सृजन की थकन भूल जा देवता!

अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,

अभी तो पलक में नहीं खिल सकी

नवल कल्पना की मधुर चाँदनी

अभी अधखिली ज्योत्सना की कली

नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी

अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,

अधूरी धरा पर नहीं है कहीं

अभी स्वर्ग की नींव का भी पता!

सृजन की थकन भूल जा देवता!

रुका तू गया रुक जगत का सृजन

तिमिरमय नयन में डगर भूल कर

कहीं खो गई रोशनी की किरन

घने बादलों में कहीं सो गया

नयी सृष्टि का सप्तरंगी सपन

रुका तू गया रुक जगत का सृजन

अधूरे सृजन से निराशा भला

किसलिए जब अधूरी स्वयं पूर्णता

सृजन की थकन भूल जा देवता!

प्रलय से निराशा तुझे हो गई

सिसकती हुई साँस की जालियों में

सबल प्राण की अर्चना खो गई

थके बाहुओं में अधूरी प्रलय

और अधूरी सृजन योजना खो गई

प्रलय से निराशा तुझे हो गई

इसी ध्वंस में मूर्च्छिता हो कहीं

पड़ी हो, नयी ज़िन्दगी; क्या पता?

सृजन की थकन भूल जा देवता।

अपने लोकप्रिय उपन्यास 'गुनाहों का देवता' की पूर्वपीठिका में धर्मवीर भारती लिखते हैं- 'इस उपन्यास के नये संस्करण पर दो शब्द लिखते समय मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या लिखूँ? अधिक-से-अधिक मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता उन सभी पाठकों के प्रति व्यक्त कर सकता हूँ जिन्होंने इसकी कलात्मक अपरिपक्वता के बावजूद इसको पसन्द किया है। मेरे लिए इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना, और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं वह प्रार्थना मन-ही-मन दोहरा रहा हूँ, बस...।'

यह उपन्यास अपनी सुपठनीयता के अनोखे अंदाज में कुछ इस तरह शब्द-शब्द पाठक मन पर पदचापें बुनना शुरू करता है- एक ऐसी ही खुशनुमा सुबह थी, और जिसकी कहानी मैं कहने जा रहा हूँ, वह सुबह से भी ज्यादा मासूम युवक, प्रभाती गाकर फूलों को जगाने वाले देवदूत की तरह अल्फ्रेड पार्क के लॉन पर फूलों की सरजमीं के किनारे-किनारे घूम रहा था। कत्थई स्वीटपी के रंग का पश्मीने का लम्बा कोट, जिसका एक कालर उठा हुआ था और दूसरे कालर में सरो की एक पत्ती बटन होल में लगी हुई थी, सफेद मक्खन जीन की पतली पैंट और पैरों में सफेद जरी की पेशावरी सैण्डिलें, भरा हुआ गोरा चेहरा और ऊँचे चमकते हुए माथे पर झूलती हुई एक रूखी भूरी लट। चलते-चलते उसने एक रंग-बिरंगा गुच्छा इकट्ठा कर लिया था और रह-रह कर वह उसे सूँघ लेता था।

'पूरब के आसमान की गुलाबी पाँखुरियाँ बिखरने लगी थीं और सुनहले पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फूलों पर बिछ रही थी। ''अरे सुबह हो गयी?'' उसने चौंककर कहा और पास की एक बेंच पर बैठ गया। सामने से एक माली आ रहा था। ''क्यों जी, लाइब्रेरी खुल गयी?'' ''अभी नहीं बाबूजी!'' उसने जवाब दिया। वह फिर सन्तोष से बैठ गया और फूलों की पाँखुरियाँ नोचकर नीचे फेंकने लगा। जमीन पर बिछाने वाली सोने की चादर परतों पर परतें बिछाती जा रही थी और पेड़ों की छायाओं का रंग गहराने लगा था। उसकी बेंच के नीचे फूलों की चुनी हुई पत्तियाँ बिखरी थीं और अब उसके पास सिर्फ एक फूल बाकी रह गया था। हलके फालसई रंग के उस फूल पर गहरे बैंजनी डोरे थे।

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