कहानी उस बेमिसाल जापानी सैनिक की, जिसने 30 साल जंगल में अकेले ड्यूटी करते हुए काटे
16 जनवरी, 2014 को बयानवे साल की आयु में मरने से पहले इस बहादुर सामुराई को दूसरे विश्वयुद्ध के इकलौते जापानी महानायक के तौर पर जाना जाने लगा. उनकी जीवनी जापान में बेस्टसेलर बनी.
दुनिया भर की फ़ौजों का एक अलिखित नैतिक कोड है- ड्यूटी पर खड़े सिपाही को अगर मौत या समर्पण में से किसी एक को चुनना हो तो उसे मौत को तरजीह देनी चाहिए. जब तक देह में जान हो उसने दुश्मन से लड़ना नहीं छोड़ना है. जापान के लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा की कहानी इस फ़ौजी कोड पर डटे रहने की अविश्वसनीय मिसाल है.
दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था. तेईस साल के हीरू को फ़ौज में भरती हुए तीन बरस हो चुके थे. बचपन में तलवारबाजी के गुर सीख चुके पांच फुट चार इंच लम्बे इस सिपाही को गुप्तचर गतिविधियों की ट्रेनिंग मिली थी. दिसंबर, 1944 के शुरू में उसे आदेश मिला कि उसकी ड्यूटी फिलिपीन्स की राजधानी मनीला के नज़दीक लुबांग नाम के द्वीप में लगाई गयी है, जहाँ उसका काम था अमेरिकी जहाज़ों को न उतरने देने के लिए हर संभव प्रयास करना. कुछ ही दिनों में वह लुबांग में था.
28 फरवरी 1945 को अमेरिकी फौजों ने जब इस द्वीप पर हवाई आक्रमण किया, तमाम जापानी सैनिक या तो मारे गए या वहां से भागने की जुगत में लग गए. उधर जंगल में छिपे लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा को उसके अधिकारी मेजर योशिमी तानीगुची का लिखित आदेश मिला – “जहाँ हो वहां खड़े रहकर लड़ते रहो. हो सकता है इस युद्ध में तीन साल लग जाएँ. या हो सकता है पांच साल लग जाएँ. कुछ भी हो जाय हम तुम्हें वापस ले जाने ज़रूर आएँगे.”
मेजर का यह वादा हीरू ओनोदा के लिए जीवनदायी औषधि साबित हुआ और उसने अपने तीन साथियों के साथ जंगल में अपनी ड्यूटी निभाना जारी रखा.
उधर हिरोशिमा-नागासाकी घटने के बाद सितम्बर, 1945 में जापान ने अमेरिका के सामने हथियार डाल दिए. इसके बाद हज़ारों जापानी सैनिक चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिमी पैसिफिक जैसे इलाकों में बिखर गए. इनमें से कइयों को गिरफ्तार कर वापस देश भेजा गया. सैकड़ों ने आत्महत्या कर ली, कई सारे बीमारी और भूख से मारे गए. जापान के हार जाने की खबरें लगातार रेडियो पर प्रसारित की जाती रहीं और इस आशय के पर्चे हवाई जहाजों से गिराए जाते रहे.
लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा और उसके तीन साथियों को भी ऐसे पर्चे मिले, लेकिन उन्होंने उन पर लिखे शब्दों पर यकीन नहीं किया. उन्होंने सोचा कि यह दुश्मन के गलत प्रचार का हिस्सा था.
चारों सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त गुरिल्ले थे और कठिन से कठिन परिस्थितियों में जीना जानते थे.जंगल में करीब दस माह रहने के बाद उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि लड़ाई लम्बी चलने वाली है. उन्होंने अपने तम्बुओं के बगल में बांस की झोपड़ियां बनाईं और पेट भरने के लिए आसपास के गाँवों से चावल और मांस की चोरी करना शुरू किया. जंगल में बेतहाशा गर्मी पड़ती थी और मच्छरों और चूहों के कारण रहना बहुत मुश्किल होता था.
धीरे-धीरे उनकी वर्दियां फटने लगीं. उन्होंने तार के टुकड़ों को सीधा कर सुईयां बनाईं और पौधों के रेशों से धागों का काम लिया. तम्बुओं के टुकड़े फाड़कर वर्दियों की तब तक मरम्मत की, जब तक कि वे तार-तार नहीं हो गईं. कभी-कभी कोई अभागा ग्रामीण उनकी चौकी की तरफ आ निकलता तो उनकी गोलियों का शिकार बन जाता. फिलीपीनी सेना की टुकड़ियां भी गश्त करती रहती थीं. उन्हें चकमा देना भी बड़ी मुश्किल का काम होता था.
पांच साल बीतने पर बुरी तरह आजिज़ आ गए हीरू ओनोदा के एक साथी सैनिक ने फिलीपीनी सेना के आगे आत्मसमर्पण कर दिया. यह बेहद निराशा पैदा करने वाली घटना थी लेकिन बचे हुए सैनिकों ने हिम्मत नहीं खोई और किसी तरह जीवित रहे. चार साल और बीते जब विद्रोहियों की तलाश में निकली स्थानीय पुलिस के हाथों उनमें से एक की मौत हो गई.
1954 से लेकर 1972 तक लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा और उसका साथी किनशीची कोजूका ने अगले अठारह साल साथ बिताये. इस बीच 1959 में जापानी सेना ने दोनों को आधिकारिक रूप से मृत घोषित कर दिया था. 1972 में कोजूका भी पुलिस के हाथों मारा गया.
जंगलों में छिपा हीरू ओनोदा उस समय तक पचास साल का हो चुका था. इन पचास में से सत्ताईस साल उसने ड्यूटी पर रहते हुए काटे थे. उसे अभी दो साल और इसी तरह काटने थे.
1970 के दशक में टोक्यो यूनिवर्सिटी में शोध कर रहे नोरियो सुजुकी नाम के एक सनकी छात्र को यकीन था कि जापान के कुछ सिपाही फिलीपींस में छिपे मिल सकते हैं. इस सिलसिले में वह अनेक इत्तफाकों के चलते 1973 के आख़िरी महीनों में में हीरू ओनोदा से मिल सका.
कई गुप्त मुलाकातों के बाद ही वह उसका विश्वास जीत सका. उसने उससे कहा वापस जापान चले. हीरू ने उत्तर दिया कि वह अपने अधिकारियों के आदेशों का इंतज़ार करेगा.
कुछ समय बाद सुजुकी लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा के सगे भाई और एक सरकारी प्रतिनिधिमंडल के साथ वापस लौटा. इसके बावजूद हीरू ओनोदा नहीं माना और उसने सुजुकी से कहा कि जब तक उसका कमांडर आदेश नहीं देगा वह अपनी पोस्ट से नहीं हिलेगा.
आखिरकार उसी बूढ़े मेजर योशिमी तानीगुची को लुबांग द्वीप लाया गया जिसने दिसम्बर 1944 में हीरू को लड़ाई जारी रखने का आदेश दिया था. मेजर साहब तब तक रिटायर हो चुके थे और अपने गृहनगर में किताबों की दुकान चला रहे थे.
मेजर को देखते ही ओनोदा उन्हें पहचान गया. उसने उन्हें सैल्यूट किया. आँखों में आंसू भरे मेजर बोले, “लेफ्टिनेट हीरू ओनोदा, तुम अपनी ड्यूटी छोड़ सकते हो! जापान युद्ध हार गया है!”
साथ लगी तस्वीर में अपने मेजर का आदेश सुनते लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा को देखा जा सकता है. उनकी वर्दी में लगी एक-एक थेगली और एक-एक टांका अपनी दास्तान कह रहे हैं. उनकी आँखों की चमक में क्या इबारत लिखी हुई है, बताने की जरूरत नहीं.
बहुत बाद में पूरी तरह बदले हुए अपने देश जापान पहुँचने के बाद, जहाँ उसका स्वागत करने को हर नगर में हज़ारों-हज़ार लोग सड़कों पर खड़े थे, एक पत्रकार ने उससे पूछा, “जंगल में इस तरह तीस साल रहते हुए आपके मन में कौन सी बात रहती थी?”
हीरू ओनोदा का जवाब था, “इस बात के सिवा कुछ ख़ास नहीं कि मुझे अपनी ड्यूटी निभानी थी.”
16 जनवरी, 2014 को बयानवे साल की आयु में मरने से पहले इस बहादुर सामुराई को दूसरे विश्वयुद्ध के इकलौते जापानी महानायक के तौर पर जाना जाने लगा था. उनकी जीवनी जापान में बेस्टसेलर बनी और मेरे फेवरेट फिल्म निर्देशक वर्नर हर्ज़ोग ने पिछले ही साल उनकी बायोपिक रिलीज की है.
आज जब डिस्कवरी जैसे चैनलों में दो-चार रात जंगल में अकेले रह जाने वालों को सर्वाइवल एक्सपर्ट कहकर प्रचारित किया जाता है, हीरू ओनोदा के लगभग तीस साल यानी दस हज़ार दिनों के अकल्पनीय संघर्ष को परिभाषित करने के लिए शायद ही किसी शब्दकोश में कोई विशेषण मिले.
9 मार्च 1974 की उस दोपहर मेजर का आदेश सुनने के बाद चीथड़े पहने हुए हीरू ओनोदा ने अपनी बंदूक जमीन पर रखी और फूट-फूट कर रोने लगा.
वह तीस सालों में पहली बार रो रहा था.
Edited by Manisha Pandey