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माशूका से नहीं, मैं मां से मोहब्बत करता हूं- मुनव्वर राना

माशूका से नहीं, मैं मां से मोहब्बत करता हूं- मुनव्वर राना

Sunday November 26, 2017 , 7 min Read

देश के जाने-माने शायर मुनव्वर राना की रचनाएं जितनी पसंदीदा हैं, उनका जिंदगीनामा उतना ही बेतरतीब। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय उनके तमाम नजदीकी रिश्तेदार, परिजन तो देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद उनके पिता इस वतन से अलग नहीं हुए। इस देश में रहना ही अपना फर्ज समझा।

फोटो साभार: ट्विटर

फोटो साभार: ट्विटर


राना भारत के सबसे लोकप्रिय और प्रशंसित शायरों में एक हैं। वह हिंदी और उर्दू, दोनों में लिखते हैं। अपनी सबसे प्रसिद्ध रचना 'मां' में उन्होंने ग़ज़ल की भिन्न शैली का इस्तेमाल किया है।

मुनव्वर राना कहते हैं- 'मेरी शायरी पर मुद्दतों, बल्कि अब तक ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग इमोशनल ब्लैकमेलिंग का इल्ज़ाम लगाते रहे हैं। अगर इस इल्ज़ाम को सही मान लिया जाए तो फिर महबूब के हुस्न, उसके जिस्म, उसके शबाब, उसके रुख और रुख़सार, उसके होंठ, उसके जोबन और उसकी कमर की पैमाइश को अय्याशी क्यों नहीं कहा जाता है। 

मुनव्वर राना कहते हैं- 'मेरी शायरी पर मुद्दतों, बल्कि अब तक ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग इमोशनल ब्लैकमेलिंग का इल्ज़ाम लगाते रहे हैं। अगर इस इल्ज़ाम को सही मान लिया जाए तो फिर महबूब के हुस्न, उसके जिस्म, उसके शबाब, उसके रुख और रुख़सार, उसके होंठ, उसके जोबन और उसकी कमर की पैमाइश को अय्याशी क्यों नहीं कहा जाता है। अगर मेरे शेर इमोशनल ब्लैकमेलिंग हैं तो श्रवण कुमार की फरमां-बरदारी को ये नाम क्यों नहीं दिया गया। जन्नत मां के पैरों के नीचे है, इसे ग़लत क्यों नहीं कहा गया।'

देश के जाने-माने शायर मुनव्वर राना का आज (26 नवंबर) जन्मदिन है। राना की रचनाएं जितनी पसंदीदा हैं, उनका जिंदगीनामा उतना ही बेतरतीब। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय उनके तमाम नजदीकी रिश्तेदार, परिजन तो देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद उनके पिता इस वतन से अलग नहीं हुए। इस देश में रहना ही अपना फर्ज समझा। मुनव्वर राना की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता में हुई। उन्होंने ग़ज़लों के अलावा संस्मरण भी लिखे हैं। उनकी रचनाओं का उर्दू के अलावा और भी कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। राना भारत के सबसे लोकप्रिय और प्रशंसित शायरों में एक हैं। 

वह हिंदी और उर्दू, दोनों में लिखते हैं। अपनी सबसे प्रसिद्ध रचना 'मां' में उन्होंने ग़ज़ल की भिन्न शैली का इस्तेमाल किया है। इस रचना से उन्हें अपार लोकप्रियता मिली। 'मां' पुस्तक पर राना लिखते हैं- 'हर उस बेटे के नाम, जिसे माँ याद है। इस किताब की बिक्री से हासिल की गई तमाम आमदनी 'माँ फ़ाउण्डेशन' की ओर से ज़रूरतमन्दों की इमदाद के लिए ख़र्च की जाएगी।' प्रस्तुत हैं, उसकी कुछ पंक्तियां-

हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह

मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह

सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे ‘राना’

रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते

सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं

हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है

कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू

मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

भेजे गए फ़रिश्ते हमारे बचाव को

जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

मुनव्वर राना ने शायरी किसी माशूका के लिए नहीं, मां को सामने रखते हुए की है। वह कहते हैं कि उन्होंने अपनी मां से इश्क किया है। उनका लिटरेचर देखकर लगता है कि अपनी पूरी उन्होंने मां से शुरू कर मां पर खत्म करने की ठान रखी हो। वह अपनी मां से बेइंतहां मुहब्बत करते हैं। कहते हैं, अगर मैं अपनी शायरी से एक भी मां को ओल्ड एज होम से घर पर वापस ला सकूं तो अपनी शायरी को कामयाब मानूंगा। मां के प्यार में उनका इतना यकीन है कि कहते हैं, अगर भारत और पाकिस्तान को फिर से एक करना है तो दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों को अपनी अपनी मां के साथ मिलना चाहिए। मां पर उनकी ये पंक्तियां देखिए -

मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ

माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ

कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर

ऎसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें

तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊँ

चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन

क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ

बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं

शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊँ

शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती

मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊँ

उनकी अब तक प्रकाशित पुस्तकों में प्रमख हैं - माँ, ग़ज़ल गाँव, पीपल छाँव, बदन सराय, नीम के फूल, सब उसके लिए, घर अकेला हो गया, कहो ज़िल्ले इलाही से, बग़ैर नक़्शे का मकान, फिर कबीर, नए मौसम के फूल आदि। राना को अमीर ख़ुसरो अवार्ड, कबीर सम्मान, मीर तक़ी मीर अवार्ड, शहूद आलम आफकुई अवार्ड, ग़ालिब अवार्ड, डॉ॰ जाकिर हुसैन अवार्ड, सरस्वती समाज अवार्ड, मौलाना अब्दुर रज्जाक़ मलीहाबादी अवार्ड, सलीम जाफरी अवार्ड, दिलकुश अवार्ड, रईस अमरोहवी अवार्ड, भारती परिषद प्रयाग अवार्ड, हुमायूँ कबीर अवार्ड, बज्मे सुखन अवार्ड, इलाहाबाद प्रेस क्लब अवार्ड, हज़रत अलमास शाह अवार्ड, अदब अवार्ड, मीर अवार्ड, मौलाना अबुल हसन नदवी अवार्ड, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अवार्ड आदि से नवाजा जा चुका है। 'शाहदाबा' के लिये उन्हें 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया

मैंने दिये को आँधी की मर्ज़ी पे रख दिया

आओ तुम्हें दिखाते हैं अंजामे-ज़िंदगी

सिक्का ये कह के रेल की पटरी पे रख दिया

फिर भी न दूर हो सकी आँखों से बेवगी

मेंहदी ने सारा ख़ून हथेली पे रख दिया

दुनिया क्या ख़बर इसे कहते हैं शायरी

मैंने शकर के दाने को चींटी पे रख दिया

अंदर की टूट -फूट छिपाने के वास्ते

जलते हुए चराग़ को खिड़की पे रख दिया

घर की ज़रूरतों के लिए अपनी उम्र को

बच्चे ने कारख़ाने की चिमनी पे रख दिया

पिछला निशान जलने का मौजूद था तो फिर

क्यों हमने हाथ जलते अँगीठी पे रख दिया

मुनव्वर राना ऐसे पहले शायर हैं, जिन्होने ग़ज़ल और शायरी को माँ से मालामाल किया। दुनिया की औरतों की जिल्लत भरी जिंदगी को रेखांकित करते हुए वह लिखते हैं- 'मामूली एक कलम से कहां तक घसीट लाए, हम इस ग़ज़ल को कोठे से मां तक घसीट लाए।' वह अपनी किताब 'मां' में लिखते हैं- 'शब्दकोशों के मुताबिक ग़ज़ल का मतलब महबूब से बातें करना है। अगर इसे सच मान लिया जाए, तो फिर महबूब ‘मां’ क्यों नहीं हो सकती। मैं पूरी ईमानदारी से इस बात का तहरीरी इकरार करता हूं कि मैं दुनिया के सबसे मुक़द्दस और अज़ीम रिश्ते का प्रचार सिर्फ़ इसलिए करता हूं कि अगर मेरे शेर पढ़कर कोई भी बेटा मां की ख़िदमत और ख़याल करने लगे, रिश्तों का एहतेराम करने लगे तो शायद इसके बदले में मेरे कुछ गुनाहों का बोझ हल्का हो जाए।' मां पर वह सचमुच शब्दों की अनमोल दौलत लुटाते हैं, कहीं और, इस तरह मुमकिन नहीं हो सका है, आज तक-

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा

मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई

मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया

माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है

माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

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