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पत्रकारिता में संवेदनशीलता पैदा करता है साहित्य: रामशरण जोशी

पत्रकारिता में संवेदनशीलता पैदा करता है साहित्य: रामशरण जोशी

Wednesday September 06, 2017 , 4 min Read

जाने-माने पत्रकार रामशरण जोशी का कहना है कि सर्वप्रथम तो वह मूलतः एक मीडियाकर्मी हैं, न कि साहित्यकर्मी। यद्यपि साहित्य के साथ उनका जुड़ाव अवश्य है।

रामशरण जोशी (फाइल फोटो)

रामशरण जोशी (फाइल फोटो)


वह कहते हैं कि साहित्य का जन्म और कर्म शून्य में नहीं होता है, बल्कि इसी समाज में होता है। उन भौतिक स्थितियों से हमारा सरोकार रहता है, जिनसे मानव सभ्यता का निर्माण होता आया है। 

 ये तो सच है कि साहित्य की रचना-प्रक्रिया स्वतंत्र या निर्बाध होनी चाहिए। उस पर किसी प्रकार का पहरा अनुचित है, क्योंकि इस तरह के पहरे एक तरह से 'प्रायोजित साहित्य' को ही जन्म देंगे। 

रामशरण जोशी देश के जाने-माने पत्रकार हैं। वह मध्य प्रदेश से आते हैं। एक लंबे वक्त से वह दिल्ली में रह कर साहित्य और पत्रकारिता पर सबसे निर्भीक समझ रखते हैं। समय-समय पर वह इस दिशा में अपने विचारों का खुलासा भी करते रहते हैं। वह कहते हैं कि ये तो सच है कि साहित्य की रचना-प्रक्रिया स्वतंत्र या निर्बाध होनी चाहिए। उस पर किसी प्रकार का पहरा अनुचित है। पहरेदारी से 'प्रायोजित साहित्य' का जन्म होता है। हम साहित्य के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उसके साथ न्याय करें। साहित्य को 'जनतंत्र के नाम पर पोस्टर' की शक्ल देने से वह सहमत नहीं हैं।

रामशरण जोशी का कहना है कि सर्वप्रथम तो वह मूलतः एक मीडियाकर्मी हैं, न कि साहित्यकर्मी। यद्यपि साहित्य के साथ उनका जुड़ाव अवश्य है। वह समझते हैं कि अच्छी पत्रकारिता के लिए साहित्य और अन्य समाजशास्त्रीय अनुशासन आवश्यक है। यह भी सच है कि साहित्य, पत्रकारिता में संवेदनशीलता पैदा करता है और एक तहजीब से उसे संवारता है। चूंकि मेरा मूल कर्म पत्रकारिता रहा है, इसलिए मैं इससे अलग नहीं हो सकता और, ये मेरी प्रथम और अंतिम प्राथमिकता है। जहां तक प्रश्न साहित्य में जनतंत्र का है, इस संबंध में मैं ये कहना चाहूंगा कि केवल साहित्य ही नहीं, मानव जाति के स्वतंत्र विकास के लिए जनतंत्र एक अनिवार्य शर्त है। इसलिए साहित्य और जनतंत्र को हम व्यापक परिप्रेक्ष्य में लें, न कि एकांगी दृष्टिकोण से।

वह कहते हैं कि साहित्य का जन्म और कर्म शून्य में नहीं होता है, बल्कि इसी समाज में होता है। उन भौतिक स्थितियों से हमारा सरोकार रहता है, जिनसे मानव सभ्यता का निर्माण होता आया है। मैं उन लोगों में नहीं हूं, जो 'साहित्य, साहित्य के लिए' और 'कला, कला के लिए', को मानक बनाकर चलते हैं। जोशी कहते हैं कि साहित्य और समाज संग-संग चलते हैं। समाज में जो घटित होता है, साहित्य में उसी की अभिव्यक्ति प्रतिध्वनित होती रही है। इसलिए अभिव्यक्ति की प्रक्रिया निर्बाध होती है, न कि अवरोधों से घिरी हुई। यदि यह प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है तो यथार्थ का चित्र साहित्य में धुंधला हो जाता है। साहित्य में जनतंत्र केवल सृजनकर्मियों के लिए ही आवश्यक नहीं, बल्कि उन मूल्यों की हिफाजत के लिए भी आवश्यक है, जिनके लिए साहित्य-सृजन होता है।

अक्सर कहा जाता है या कुछ लोग दलील देते हैं कि समाज से साहित्य का स्वतंत्र अस्तित्व है। इसे स्वीकार करने में मेरे लिए दिक्कत है। ये तो सच है कि साहित्य की रचना-प्रक्रिया स्वतंत्र या निर्बाध होनी चाहिए। उस पर किसी प्रकार का पहरा अनुचित है, क्योंकि इस तरह के पहरे एक तरह से 'प्रायोजित साहित्य' को ही जन्म देंगे। आवश्यकता यह है कि हम साहित्य के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हुए, उसके साथ ही, हमेशा इतना जरूर करें कि उसके साथ न्याय हो, क्योंकि साहित्य तात्कालिक हो या दीर्घकालिक, वह एक निश्चित कालखंड का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए साहित्य को 'जनतंत्र के नाम पर पोस्टर' की शक्ल देने से मैं सहमत नहीं हूं। यदि साहित्य में एक यथार्थवादी जनतंत्र रहेगा तो वह निश्चित ही समाज को सकारात्मक गतिशीलता प्रदान कर सकता है।

वह बताते हैं कि एक वक्त था, जब साहित्य और साहित्यकार, विशेषकर हिंदी पत्रकारिता के सूत्रधार होते थे। मैं चूंकि हिंदी का पत्रकार हूं, इसलिए कह सकता हूं कि वर्तमान हिंदी पत्रकारिता को संस्कारित करने में 19वीं सदी लेकर 1980-85 तक हिंदी साहित्यकारों का खासा योगदान रहा है। यह भी सही है कि जिन पत्रकारों की भाषा में साहित्य का रस घुला हुआ होता था, उन्होंने भी पत्रकारिता में एक घटनात्मक आयाम जोड़ा है। इस संदर्भ में हम धर्मवीर भारती, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी आदि को याद कर सकते हैं। उस वक्त संपादकों के नाम से पत्र-पत्रिकाओं की गरिमा जानी जाती थी। इस संबंध में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, जनसत्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं को याद कर सकते हैं लेकिन दो-ढाई दशकों से मीडिया का मूलभूत चरित्र बदल गया है। आज, साहित्य हो या पत्रकारिता, दोनो का स्वतंत्र चरित्र हाशिये पर है।

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