Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

शहर को महिलाओं के लिए सुरक्षित बना 'जागोरी' अभियान शुरू करने वाली हमसफर

जागोरी कैंपेन: ये रिश्ते, ये चेहरे मेरे यार भी, इश्क भी, गीत भी, अंतरात्मा भी 

शहर को महिलाओं के लिए सुरक्षित बना 'जागोरी' अभियान शुरू करने वाली हमसफर

Friday June 08, 2018 , 8 min Read

वो चल पड़ी हैं, लगभग ढाई दशक से वो जगा रही हैं... जागो री... जागो री, जगा रही हैं देश की परेशानहाल, मुफलिस, उत्पीड़ित महिलाओं को, एकजुट कर रही हैं, उनकी मुश्किलों में काम आ रही हैं, उनके लिए लड़ रही हैं सड़कों पर, उनके छोटे-बड़े मसलों के साथ, वो हैं 'जागोरी' की हमसफर डॉ कल्पना विश्वनाथ, कुसुम रावत, आभा भैया आदि-आदि, उनके साथ और भी अनेक, जैसे एक अंतहीन योद्धा-जमात।

जागोरी कैंपेन से जुड़ी महिलांएं

जागोरी कैंपेन से जुड़ी महिलांएं


सवाल सिर्फ़ औरत व आदमी के रिश्तों का नहीं। समाज में निहित हर गै़र बराबरी, हिंसा और विनाश की राजनिति पर सवाल उठाना, उसका विरोध करना व सत्ता की चाल बाज़ियों को हाशिये पर खड़े लोगों के साथ समझना, यह सभी नारीवाद की परिभाषा का हिस्सा है। 

लगभग ढाई दशक से भी ज्यादा समय से 'जागोरी' की हमसफर डॉ कल्पना विश्वनाथ 'सुरक्षित दिल्ली' अभियान, कम्बोडिया, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, केरल, मुंबई और कोलकाता में महिलाओं के लिए सुरक्षित शहर अभियान, महिलाओं के लिए सुरक्षा ऑडिट, सर्वेक्षण, विभिन्न प्रकार के शोध कार्यक्रमों का नेतृत्व करने के साथ ही महिला-सुरक्षा के लिए तैयार किए गए सेफ्टी पिन मोबाइल ऐप की सहसंस्थापक भी हैं। वह बताती हैं कि मैं नब्बे के दशक के शुरुआती सालों से दिल्ली में हुए प्रतिरोध कार्यक्रमों में सक्रिय रही हूं। इस दौरान हमने रामलीला मैदान, दिल्ली गेट, आईटीओ, इंडिया गेट तथा असंख्य अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर आम लोगों तक अपने संदेश पहुंचाने के लिए नारे लगाए हैं, जुलूस निकाले हैं और धरने दिए हैं। मगर, बीते सालों में मैंने देखा है कि प्रतिरोध का यह दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। जहां एक जमाने में हम पूरे शहर में कहीं भी अपनी आवाज उठा सकते थे वहीं आज सारे प्रतिरोध शहर के सिर्फ एक छोटे से हिस्से में ही सीमित होकर रह गए हैं।

'जागोरी' की सहयात्री कुसुम रावत टिहरी (उत्तराखंड) के गांव तमियार की रहने वाली हैं। वह बताती हैं, 'जब मैं बच्ची थी, मेरे पिता पूरे परिवार को पुराने टिहरी में लेकर आ गए थे। अपनी पढ़ाई-लिखाई मैंने यहीं पूरी की। पशु चिकित्सा विज्ञान में एमएससी की डिग्री पूरी करने के बाद मैंने कुछ समय के लिए टिहरी परियोजना के पर्यावरण विभाग में काम किया और बाद में मैंने एक लेक्चरर के तौर पर भी काम किया मगर इन सारे कामों से मुझे मानसिक संतोष नहीं मिला और लिहाजा मेरी जिंदगी एक अलग दिशा में मुड़ती चली गई। मेरे नए सफर की शुरुआत इन्टेक की अमरज्ञान सीरीज परियोजना के साथ हुई जिसमें अनाम लोगों की मौखिक आपबीतियों को दर्ज किया जाता था। केस स्टडीज को दर्ज करने की इस परियोजना में एक आत्मवृतांत हेवलघाटी की बचनी देवी का भी था। उनके अनुभवों ने मुझे इस बात का अहसास कराया कि अकादमिक ज्ञान के साथ-साथ जीवन के यथार्थ और कठिनाइयां भी हमें सच्चे अर्थों में एक सार्थक जीवन जीना सिखाती हैं। लिहाजा, मैंने वल्र्ड फूड प्रोग्राम में एडवाइजर के तौर पर काम कर रहे एस एम दीवान के साथ रानीचैरी के गांवों में भी काम किया। तीन साल बाद 1994 मैं टिहरी में महिला सामाख्या कार्यक्रम से जुड़ गई। यह कार्यक्रम मेरे जमीनी अनुभवों पर गहरी छाप छोड़ने वाला था।'

वह बताती हैं, 'महिला सामाख्या से जुड़ने के बाद भी मेरे पास महिलाओं के अधिकारों की राजनीति, लैंगिक भेदभाव और नारीवाद के बारे में कोई पुख्ता समझ नहीं थी। जब मैंने जागोरी डॉक्युमेंटेशन ऐण्ड रिसर्च सेंटर की संस्थापक और महिला सामाख्या की सलाहकार आभा भैया तथा जेंडर विशेषज्ञ कमला भसीन द्वारा संचालित एक कार्यशाला में हिस्सा लिया तो मुझे स्थिति कुछ-कुछ समझ में आने लगी। इसी कार्यशाला में मैंने यह भी समझा कि नारीवाद और महिलाओं के हकों की राजनीतिक पुरुषों के विरुद्ध नहीं है बल्कि यह हर किस्म की संकुचित और प्रतिगामी सोच, अन्याय और उस शोषण के खिलाफ है जो भेदभाव, असमान वितरण और असमानता की संरचनाओं को सींचता है।'

जागोरी के सफ़रनामे में शामिल आभा भैया बताती हैं कि 30 साल पहले 1983 में जागोरी की कल्पना हम सात साथियों की साँझी पहल कदमी थी जिसमें शामिल थे जोगी, शीबा, रूनू मंजरी, गौरी, कमला और मैं। नारीवादी आन्दोलन बड़े शहरों की सड़कों पर उतर आया था। मथुरा व रमीज़ा बी के सामूहिक बलात्कार के मुद्दों से फेमिनिज़्म के नये समुद्र से उभरी लहर ने नारीवादी राजनीति को जन्म दिया। छोटे-छोटे समूहों में बड़ी-बड़ी चर्चाएं, बहसें, एक्शन की तलाश का दौर था वह। ज़मीनी जुड़ाव की जुस्तजू ज़ोर पकड़ने लगी। मैंने जागोरी के कोऑडिनेटर की भूमिका करीब 12 साल निभाई। एक कमरे का छोटा सा आँगन नुमा दफ़्तर। सब चारों ओरज़मीन पर अपना कोना ढूंढ लेते थे। सभी सारा काम मिलजुल कर करते। किसी का भी एक मेज़ नहीं था। बस एक पुराना टाइपराइटर हिन्दी का। धीरे-धीरे मेरा सामान हटने लगा, घर सिमटता गया और किताबें और फ़ाइलें पसरने लगीं। पर सच कहूँ घर और दफ़्तर के बीच में कोई सीमा नहीं थी। उन दिनों काम और घर दो अलग जीवन नहीं थे। दफ़्तर नहीं, वो औरतों का एक अड्डा नुमा गेस्ट हाऊस भी था। महिला आन्दोलन से जुड़ी औरतें और कुछ पुरूष मित्र इस ऑफिस नुमा घर में रहते। जब भी वो बाहर से आते, साथ खाना, बातचीत, लिखना-पढ़ना और कहीं भी जगह मिलती, दरियाँ बिछाकर सो जाना। एक बिल्कुल मोबाइल स्पेस/जगह।

बहसबाज़ी, मुद्दों की चीड़ फाड़ हम दोस्तों के बीच लगातार चलती रहती। शाम के अड्डे दिन के काम से भी ज़्यादा कृतिपूर्ण रहते। कभी शीबा, कभी गौरी, कभी कमला तो कभी मेरे दफ़्तर नुमा घर में ही नये प्लान बनते-कमला गाने लिखती और हम सब मिलकर गाते, शीबा-जोगी के साथ नोटबुक की चित्रकारी बनती रहती, हम सब मिलकर कवितायें लिखते, रूनू नाटकों की तैयारी के साथ दमलगा कर गाती और मारती और मंजरी नारे लगातीं, ऐसे पुरज़ोर कि हम सब जोश से भर जाते। रात के समय धरनों और विरोध प्रदर्शन के पोस्टर, पर्चियाँ और प्लाकार्डस बनाने का काम इसी छोटी सी बरसाती में लगातार चलता रहता। शारदा बहन एक बस्ती की सशक्त कार्यकर्ता-एक कोने में ज़मीन पर बैठकर अखबारों के लिये पत्र लिखती रहतीं-अनूठा सा दफ़्तर था- न टेबल, न कुर्सी, न कमप्यूटर, न प्रिंटर-हम जहाँ बैठते वही दफ़्तर बन जाता। सड़कों पर ज़्यादा और दफ़्तरों में कम काम होता। बहुत छोटी टोलियाँ होने के बावजूद हम बड़े-बड़े काम कर गुज़रते।

वह बताती हैं कि नारीवाद को गाँव की पगडंडियों तक ले जाने के ख्वाब ने जागोरी को 1983 में जन्म दिया। 80 के दशक में शहर की ग़रीब बस्तियों में सतत जुड़ाव व गाँव की दूरियों तक जाना, दोनों ही काम जागोरी ने गम्भीर व पुरज़ोर कोशिश से आगे बढ़ाये। स्वयं सेवी संस्थायें जो पुरूष प्रधान सोच व पुरूष नेतृत्व के अंतर्गत चल रही थीं, वहाँ महिला कार्यकर्ताओं को नारीवादी सोच व समझ के क़रीब लाना एक खासी चुनौती थी क्योंकि कई संस्थायें पुरुष प्रधान ही नहीं, सामन्तवादी भी थीं। जागोरी की मुख्य पहचान एक नारीवादी ट्रेनिंग संस्था के रूप में तेजी से उभरने लगी और आज तक बनी हुई है। मथुरा बलात्कार से भँवरी और फिर निर्भया तक का सफ़र हमारी साँझी दौड़ रही है। चाहे 1984 में सिक्खों के क़त्ल का मामला हो, भोपाल गैस कांड हो, साम्प्रादायिक दंगों व आंतक का सवाल हो, बाबरी मस्जिद को ढहाने से लेकर गुजरात याने के नर संहार के बाद की राजनिति हो, या बढ़ता वैश्वीकरण, विकास के नाम पर आर्थिक आंतकवाद हो- हर मुद्दे से जूझना नारीवादी आन्दोलन का अन्तरंग संघर्ष रहा है।

सवाल सिर्फ़ औरत व आदमी के रिश्तों का नहीं। समाज में निहित हर गै़र बराबरी, हिंसा और विनाश की राजनिति पर सवाल उठाना, उसका विरोध करना व सत्ता की चाल बाज़ियों को हाशिये पर खड़े लोगों के साथ समझना, यह सभी नारीवाद की परिभाषा का हिस्सा है। कोई भी मुद्दा नहीं जो हम औरतों का नहीं। सालों तक जागोरी दिल्ली के काम को एक कोऑर्डिनेटर के रूप में आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी मैंने सँभाली। इन ज़िम्मेदारियों के दौर में संघर्षों के नये-नये आयामों से गुज़रते रहे हम सब। इसी दौरान एक और ख्वाब पसरने लगा मन पटल पर-एक नारीवादी स्पेस/जगह के निर्माण का। एक ऐसी जगह जो संघर्षों की थकान धो सके। खूबसूरती से अकेले साँस लेने की जगह, जहाँ हम नारीवादी ट्रेनिंग के साथ-साथ प्रकृति की छाँव में बैठ कुछ कृतिपूर्ण करने की फुर्सत को जी सकें। जागोरी ग्रामीण की स्थापना 2003 में हुई। खास उद्देश्य था। ग्रामीण स्तर पर महिला सशक्तीकरण की प्रक्रियाओं को मज़बूत करना, युवा लड़कियों को नारीवादी एक्टिविस्ट (कर्मी) के रूप में तैयार करते हुए उन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ना, किसान महिला व पुरूषों के समूहों के साथ जैविक खेती व प्रकृति की संरचना व समृद्धि के विचार और अभ्यास को व्यापक स्तर पर स्थापित करना।आज इस पूरे काम के असली कलाकार जागोरी-ग्रामीण की करीब 40 लोगों की बहुत मज़बूत, निष्ठावान टीम है।

यह भी पढ़ें: स्वच्छ भारत के सपने को साकार कर रही हैं झारखंड की 'रानी मिस्त्री'