यूरोप और अमरीका में पांच साल रहने के बाद आंबेडकर को याद नहीं रहा कि वो अब भी अछूत हैं
कई बार मैं बहुत गुस्से में भर जाता था. फिर मैं अपने दुख और गुस्से को इस भाव से समझाता था कि भले ही ये जेल थी, लेकिन यह एक ठिकाना तो है.
पश्चिम से मैं 1916 में भारत लौट आया. महाराजा बड़ौदा की बदौलत मैं अमरीका उच्च शिक्षा प्राप्त करने गया. मैंने कोलंबिया विश्वविद्यालय न्यूयार्क में 1913 से 1917 तक पढ़ाई की. 1917 में मैं लंदन गया. मैंने लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में परास्नातक में दाखिला लिया. 1918 में मुझे अपनी अधूरी पढ़ाई छोड़कर भारत आना पड़ा. चूँकि मेरी पढ़ाई का खर्चा बड़ौदा स्टेट ने उठाया था इसलिए उसकी सेवा करने के लिए मैं मजबूर था. (इसमें जो तारीखें लिखी हैं वो थोड़ी स्पष्ट नहीं है) इसीलिए वापस आने के बाद मैं सीधा बड़ौदा स्टेट गया. किन वजहों से मैंने वड़ौदा स्टेट छोड़ा उनका मेरे आज के उद्देश्य से कोई संबंध नहीं है, और इसीलिए यहाँ मैं उस बात में नहीं जाना चाहता हूँ. मैं सिर्फ बड़ौदा में मुझे किस तरह के सामाजिक अनुभव हुए उसी पर बात करूँगा और उसी को विस्तार से बताने तक खुद को सीमित रखूँगा.
यूरोप और अमरीका में पाँच साल के प्रवास ने मेरे भीतर से ये भाव मिटा दिया कि मैं अछूत हूँ और यह कि भारत में अछूत कहीं भी जाता है तो वो खुद अपने और दूसरों के लिए समस्या होता है. जब मैं स्टेशन से बाहर आया तो मेरे दिमाग में अब एक ही सवाल हावी था कि मैं कहाँ जाऊँ, मुझे कौन रखेगा. मैं बहुत गहराई तक परेशान था. हिंदू होटल जिन्हें विशिष्ट कहा जाता था, को मैं पहले से ही जानता था. वे मुझे नहीं रखेंगे. वहाँ रहने का एकमात्र तरीका था कि मैं झूठ बोलूँ. लेकिन मैं इसके लिए तैयार नहीं था. क्योंकि मैं अच्छे से जानता था कि अगर मेरा झूठ पकड़ा गया तो उसके क्या परिणाम होंगे. वो पहले से नियत थे. मेरे कुछ मित्र बड़ौदा के थे जो अमरीका पढ़ाई करने गए थे. अगर मैं उनके यहाँ गया तो क्या वो मेरा स्वागत करेंगे
मैं खुद को आश्वस्त नहीं कर सका. हो सकता है कि एक अछूत को अपने घर में बुलाने पर वे शर्मिंदा महसूस करें. मैं थोड़ी देर तक कि इसी पशोपेश में स्टेशन पर खड़ा रहा. फिर मुझे सूझा कि पता करूँ कि कैंप में कोई जगह है. तब तक सारे यात्री जा चुके थे. मैं अकेले बच गया था. कुछ एक गाड़ी वाले जिन्हे अब तलक कोई सवारी नहीं मिली थी वो मुझे देख रहे थे और मेरा इंतजार कर रहे थे. मैंने उनमें से एक को बुलाया और पता किया कि क्या कैंप के पास कोई होटल है. उसने बताया कि एक पारसी सराय है और वो पैसा लेकर ठहरने देते हैं. पारसी लोगों द्वारा ठहरने की व्यवस्था होने की बात सुनकर मेरा मन खुश हो गया. पारसी जोरास्ट्रियन धर्म को मानने वाले लोग होते हैं. उनके धर्म में छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए उनके द्वारा अछूत होने का भेदभाव होने का कोई डर नहीं था. मैंने गाड़ी में अपना बैग रख दिया और ड्राइवर से पारसी सराय में ले चलने के लिए कह दिया.
यह एक दोमंजिला सराय थी. नीचे एक बुजुर्ग पारसी और उनका परिवार रहता था. वो ही इसकी देखरेख करते थे और जो लोग रुकने आते थे उनके खान-पान की व्यवस्था करते थे. गाड़ी पहुँची. पारसी केयरटेकर ने मुझे ऊपर ले जाकर कमरा दिखाया. मैं ऊपर गया. इस बीच गाड़ीवान ने मेरा सामान लाकर रख दिया. मैंने उसको पैसे देकर विदा कर दिया. मैं प्रसन्न था कि मेरे ठहरने की समस्या का समाधान हो गया. मैं कपड़े खोल रहा था. थोड़ा सा आराम करना चाहता था. इसी बीच केयरटेकर एक किताब लेकर ऊपर आया. उसने जब मुझे देखा कि मैंने सदरी और धोती जो कि खास पारसी लोगों के कपड़े पहनने का तरीका है, नहीं पहना है तो उसने तीखी आवाज में मुझसे मेरी पहचान पूछी.
मुझे मालूम नहीं था कि यह पारसी सराय सिर्फ पारसी समुदाय के लोगों के लिए थी. मैंने बता दिया कि मैं हिंदू हूँ. वो अचंभित था और उसने सीधे कह दिया कि मैं वहाँ नहीं ठहर सकता. मैं सकते में आ गया और पूरी तरह शांत रहा. फिर वही सवाल मेरी ओर लौट आया कि कहाँ जाऊँ. मैंने खुद को सँभालते हुए कहा कि मैं भले ही हिंदू हूँ लेकिन अगर उन्हें कोई परेशानी नहीं है तो मुझे यहाँ ठहरने में कोई दिक्कत नहीं है. उसने जवाब दिया कि "तुम यहाँ कैसे ठहर सकते हो मुझे सराय में ठहरने वालों का ब्यौरा रजिस्टर में दर्ज करना पड़ता है" मुझे उनकी परेशानी समझ में आ रही थी. मैंने कहा कि मैं रजिस्टर में दर्ज करने के लिए कोई पारसी नाम रख सकता हूँ. 'तुम्हे इसमें क्या दिक्कत है अगर मुझे नहीं है तो. तुम्हे कुछ नहीं खोना पड़ेगा बल्कि तुम तो कुछ पैसे ही कमाओगे.'
मैं समझ रहा था कि वो पिघल रहा है. वैसे भी उसके पास बहुत समय से कोई यात्री नहीं आया था और वो थोड़ा कमाई का मौका नहीं छोड़ना चाहता था. वो इस शर्त पर तैयार हो गया कि मैं उसको डेढ़ रुपये ठहरने और खाने का दूँगा और रजिस्टर में पारसी नाम लिखवाऊँगा. वो नीचे गया और मैंने राहत की साँस ली. समस्या का हल हो गया था. मैं बहुत खुश था. लेकिन आह, तब तक मैं यह नहीं जानता था कि मेरी यह खुशी कितनी क्षणिक है. लेकिन इससे पहले कि मैं इस सराय वाले किस्से का दुखद अंत बताऊँ, उससे पहले मैं बताऊँगा कि इस छोटे से अंतराल के दौरान मैं वहाँ कैसे रहा.
इस सराय की पहली मंजिल पर एक छोटा कमरा और उसी से जुड़ा हुआ स्नान घर था, जिसमें नल लगा था. उसके अलावा एक बड़ा हाल था. जब तक मैं वहाँ रहा बड़ा हाल हमेशा टूटी कुर्सियों और बेंच जैसे कबाड़ से भरा रहा. इसी सब के बीच मैं अकेले यहाँ रहा . केयरटेकर सुबह एक कप चाय लेकर आता था. फिर वो दोबारा 9.30 बजे मेरा नाश्ता या सुबह का कुछ खाने के लिए लेकर आता था. और तीसरी बार वो 8.30 बजे रात का खाना लेकर आता था. केयरटेकर तभी आता था जब बहुत जरूरी हो जाता था और इनमें से किसी भी मौके पर वो मुझसे बात करने से बचता था. खैर किसी तरह से ये दिन बीते.
महाराजा बड़ौदा की ओर से महालेखागार आफिस में मेरी प्रशिक्षु की नियुक्ति हो गई. मैं ऑफिस जाने के लिए सराय को दस बजे छोड़ देता था और रात को तकरीबन आठ बजे लौटता था और जितना हो सके कंपनी के दोस्तों के साथ समय व्यतीत करता था. सराय में वापस लौट के रात बिताने का विचार ही मुझे डराने लगता था. मैं वहाँ सिर्फ इसलिए लौटता था क्योंकि इस आकाश तले मुझे कोई और ठौर नहीं था. ऊपर वाली मंजिल के बड़े कमरे में कोई भी दूसरा इनसान नहीं था जिससे मैं कुछ बात कर पाता. मैं बिल्कुल अकेला था. पूरा हाल घुप्प अँधेरे में रहता था. वहाँ कोई बिजली का बल्ब, यहाँ तक कि तेल की बत्ती तक नहीं थी जिससे अँधेरा थोड़ा कम लगता . केयरटेकर मेरे इस्तेमाल के लिए एक छोटा सा दिया लेकर आता था जिसकी रोशनी बमुश्किल कुछ इंच तक ही जाती थी.
मुझे लगता था कि मुझे सजा मिली है. मैं किसी इनसान से बात करने की लिए तड़पता था. लेकिन वहाँ कोई नहीं था. आदमी न होने की वजह से मैंने किताबों का साथ लिया और उन्हें पढ़ता गया, पढ़ता गया. मैं पढ़ने में इतना डूब गया कि अपनी तनहाई भूल गया. लेकिन उड़ते चमगादड़, जिनके लिए वह हॉल उनका घर था, कि चेंचें आवाजें अक्सर ही मेरे दिमाग को उधर खींच देते थे. मेरे भीतर तक सिहरन दौड़ जाती थी और जो बात मैं भूलने की कोशिश कर रहा था वो मुझे फिर से याद आ जाती थी कि मैं एक अजनबी परिस्थिति में एक अजनबी जगह पर हूँ.
कई बार मैं बहुत गुस्से में भर जाता था. फिर मैं अपने दुख और गुस्से को इस भाव से समझाता था कि भले ही ये जेल थी, लेकिन यह एक ठिकाना तो है. कोई जगह न होने से अच्छा है, कोई जगह होना . मेरी हालत इस कदर खराब थी कि जब मेरी बहन का बेटा बंबई से मेरा बचा हुआ सामान लेकर आया और उसने मेरी हालत देखी तो वह इतनी जोर-जोर से रोने लगा कि मुझे तुरंत उसे वापस भेजना पड़ा. इस हालत में मैं पारसी सराय में एक पारसी बन कर रहा .
मैं जानता था कि मैं यह नाटक ज्यादा दिन नहीं कर सकता और मुझे किसी दिन पहचान लिया जाएगा. इसलिए मैं सरकारी बंगला पाने की कोशिश कर रहा था. लेकिन प्रधानमंत्री ने मेरी याचिका पर उस गहराई से ध्यान नहीं दिया जैसी मुझे जरूरत थी. मेरी याचिका एक अफसर से दूसरे अफसर तक जाती रही इससे पहले कि मुझे निश्चित उत्तर मिलता मेरे लिए वह भयावह दिन आ गया.
वो उस सराय में ग्यारहवाँ दिन था. मैंने सुबह का नाश्ता कर लिया था और तैयार हो गया था और कमरे से आफि के लिए निकलने ही वाला था. दरअसल रात भर के लिए जो किताबें मैंने पुस्तकालय से उधार ली थी उनको उठा रहा था कि तभी मैंने सीढ़ी पर कई लोगों के आने की आवाजें सुनी. मुझे लगा कि यात्री ठहरने के लिए आए हैं और मैं उन मित्रों को देखने के लिए उठा. तभी मैंने दर्जनों गस्से में भरे लंबे, मजबत पारसी लोगों को देखा. सबके हाथ में डंडे थे वो मेरे कमरे का आर आ रह थ. मन समझ लिया कि ये यात्रा नहीं है और इसका सबूत उन्हान तुरत द भी दिया.
वे सभी लोग मेरे कमरे में इकट्ठा हो गए और उन्होंने मेरे ऊपर सवालों की बौछार कर दी. "कौन हो तुम. तुम यहाँ क्यों आए हो, बदमाश आदमी तुमने पारसी सराय को गंदा कर दिया." मैं खामोश खड़ा रहा. मैं कोई उत्तर नहीं दे सका. मैं इस झूठ को ठीक नहीं कह सका. यह वास्तव में एक धोखा था और यह धोखा पकड़ा गया. मैं यह जानता था कि अगर मैं इस खेल को इस कट्टर पारसी भीड़ के आगे जारी रखता तो ये मेरी जान ले कर छोड़ते. मेरी चुप्पी और खामोशी ने मुझे इस अंजाम तक पहुँचने से बचा लिया. एक ने मुझसे कमरा कब खाली करूँगा पूछा.
उस समय सराय के बदले मेरी जिंदगी दाँव पर लगी थी. इस सवाल के साथ गंभीर धमकी छिपी थी. खैर मैंने अपनी चुप्पी ये सोचते हुए तोड़ी कि एक हफ्ते में मंत्री मेरी बंगले की दरख्वास्त मंजूर कर लेगा और उनसे विनती की कि मुझे एक हफ्ता और रहने दो. लेकिन पारसी कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने अंतिम चेतावनी दी कि मैं उन्हें शाम तक सराय में नजर न आऊँ. मुझे निकलना ही होगा. उन्होंने गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा और चले गए. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था. मेरा दिल बैठ गया था. मैं बड़बड़ाता रहा और फूट-फूट के रोया . अंततः मैं अपनी कीमत जगह, जी हाँ मेरे रहने के ठिकाने से वंचित हो गया. वो जेलखाने ज्यादा अच्छा नहीं था. लेकिन फिर भी वो मेरे लिए कीमती था.
पारसियों के जाने के बाद मैं बैठकर किसी और रास्ते के बारे में सोचने लगा. मुझे उम्मीद थी कि जल्दी ही मुझे सरकारी बंगला मिल जाएगा और मेरी मुश्किलें दूर हो जाएगी. मेरी समस्याएँ तात्कालिक थीं और दोस्तों के पास इसका कोई उपाय मिल सकता था. बड़ौदा में मेरा कोई अछूत मित्र नहीं था. लेकिन दूसरी जाति के मित्र थे. एक हिंदू था दूसरा क्रिश्चियन था. पहले मैं अपने हिंदू मित्र के यहाँ गया और बताया कि मेरे ऊपर क्या मुसीबत आ पड़ी है. वह बहुत अच्छे दिल का था और मेरा बहुत करीबी दोस्त था . वह उदास और गुस्सा हुआ. फिर उसने एक बात की ओर इशारा किया कि अगर तुम मेरे घर आए तो मेरे नौकर चले जायेंगे. मैंने उसके आशय को समझा और उससे अपने घर ठहराने के लिए नहीं कहा.
मैंने क्रिश्चियन मित्र के यहाँ जाना उचित नहीं समझा. एक बार उसने मुझे अपने घर रुकने का न्योता दिया था. तब मैंने पारसी सराय में रुकना सही समझा था. दरअसल न जाने का कारण हमारी आदतें अलग होना था. अब जाना बेइज्जती करवाने जैसा था. इसलिए मैं अपने आफिस चला गया. लेकिन मैंने वहाँ जाने का विचार छोड़ा नहीं था. अपने एक मित्र से बात करने के बाद मैंने अपने (भारतीय क्रिश्चियन) मित्र से फिर पूछा कि क्या वो अपने यहाँ मुझे रख सकता है. जब मैंने यह सवाल किया तो बदले में उसने कहा कि उसकी पत्नी कल बड़ौदा आ रही है उससे पूछ कर बताएगा.
मैं समझ गया कि यह एक चालाकी भरा जवाब है. वो और उसकी पत्नी मूलतः एक ब्राह्मण परिवार के थे. क्रिश्चियन
होने के बाद भी पति तो उदार हुआ लेकिन पत्नी अभी भी कट्टर थी और किसी अछूत को घर में नहीं ठहरने दे सकती थी.
उम्मीद की यह किरण भी बुझ गई. उस समय शाम के चार बज रहे थे जब मैं भारतीय क्रिश्चियन मित्र के घर से निकला था.
कहाँ जाऊँ, मेरे लिए विराट सवाल था. मुझे सराय छोड़नी ही थी लेकिन कोई मित्र नहीं था जहाँ मैं जा सकता था. केवल
एक विकल्प था, बंबई वापस लौटने का .
बड़ौदा से बंबई की रेलगाड़ी नौ बजे रात को थी . पाँच घंटे बिताने थे, उनको कहाँ बिताऊँ, क्या सराय में जाना चाहिए, क्या दोस्तों के यहाँ जाना चाहिए. मैं सराय में वापस जाने का साहस नहीं जुटा पाया. मुझे डर था कि पारसी फिर से इकट्ठा होकर मेरे ऊपर आक्रमण कर देंगे. मैं अपने मित्रों के यहाँ नहीं गया. भले ही मेरी हालत बहुत दयनीय थी लेकिन मैं दया का पात्र नहीं बनना चाहता था. मैंने शहर के किनारे स्थित कमाथी बाग सरकारी बाग में समय बिताना तय किया. मैं वहाँ कुछ अनमनस्क भाव से बैठा और कुछ इस उदासी से कि मेरे साथ यह क्या घटा. मैंने अपने माता-पिता के बारे में और जब हम बच्चे थे और जब खराब दिन थे, उनके बारे में सोचा.
आठ बजे रात को मैं बाग से बाहर आया और सराय के लिए गाड़ी ली और अपना सामान लिया. न तो केयरटेकर और न ही मैं, दोनों ने एक-दूसरे से कुछ भी नहीं कहा. वो कहीं न कहीं खुद को मेरी हालत के लिए जिम्मेदार मान रहा था. मैंने उसका बिल चुकाया. उसने खामोशी से उसको लिया और चुपचाप चला गया.
मैं बड़ौदा बड़ी उम्मीदों से गया था. उसके लिए कई दूसरे मौके ठुकराए थे. यह युद्ध का समय था. भारतीय सरकारी शिक्षण संस्थानों में कई पद रिक्त थे. मैं कई प्रभावशाली लोगों को लंदन में जानता था. लेकिन मैंने उनमें से किसी की मदद नहीं ली. मैंने सोचा की मेरा पहला फर्ज महाराजा बड़ौदा के लिए अपनी सेवाएँ देना है. जिन्होंने मेरी शिक्षा का प्रबंध किया था. यहाँ मुझे कुल ग्यारह दिनों के भीतर बड़ौदा से बंबई जाने के लिए मजबूर होना पड़ा.
वह दृश्य जिसमें मुझे दर्जनों पारसी लोग डंडे लेकर मेरे सामने डराने वाले अंदाज में खड़े हैं और मैं उनके सामने भयभीत नजरों से दया की भीख माँगते खड़ा हूँ, वो 18 वर्षों बाद भी धूमिल नहीं हो सका. मैं आज भी उसे जस का तस याद कर सकता हूँ और ऐसा कभी नहीं हुआ होगा कि उस दिन को याद किया और आँखों में आँसू न आ गए हों. उस समय मैंने ये जाना था कि जो आदमी हिंदओं के लिए अछूत है वो पारसियों के लिए भी अछूत है.
(बीआर आंबेडकर का यह संस्मरण उनकी पुस्तक ‘वेटिंग फॉर वीजा’ से. अनुवाद- सविता पाठक.)
Edited by Manisha Pandey