साहित्य से सियासत तक छत्तीसगढ़ के कवि श्रीकांत वर्मा
नई कविता धारा के बड़े नाम श्रीकांत वर्मा परिवार में सबसे बड़े होने के कारण शिक्षा-दीक्षा के बीच घरेलू जिम्मेदारियों से इस कदर लदे-फदे, संघर्ष ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। साहित्य से सियासत तक शीर्ष पर रहने के बावजूद अपनी बीमारी के आखिरी दिनों में अमेरिका में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा- 'नहीं जानता यह डायरी जारी रहेगी या यह इसका अंतिम पन्ना होगा मगर इतना अवश्य कहूंगा, मैं जीना चाहता हूं।'
जब उन्होंने कांग्रेस की राजनीति की ओर कदम बढ़ाए तो टाइम्स समूह के लिए वह स्वीकार्य नहीं रहा और उन्हें 'दिनमान' से अलग होना पड़ा। सन् 1969 में वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के काफ़ी क़रीब हो जाने से कांग्रेस के महासचिव बन गए।
बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में 18 सितम्बर 1931 को जन्मे हिंदी के प्रतिष्ठित गीतकार, कथाकार, समीक्षक श्रीकान्त वर्मा उन गिने-चुने लोगों में रहे हैं, जिनकी पहुंच साहित्य के रास्ते सियासत तक बनी। वह एक वक्त में राज्यसभा सदस्य भी रहे। अपनी कृतियों 'मायादर्पण', 'जलसाघर' और 'मगध' से प्रतिष्ठित एवं 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित वर्मा के 'झाड़ी' तथा 'संवाद' कहानी-संग्रह, 'अपोलो का रथ' यात्रा वृत्तान्त, 'बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में' साक्षात्कार ग्रंथ भी उल्लेखनीय हैं।
उनके पिता पेशे से वकील थे। परिवार भी समृद्ध था, फिर भी श्रीकांत वर्मा को काफ़ी कठिन दिन देखने पड़े। 1952 तक वह बेकारी की मार झेलते रहे। घर की आर्थिक स्थिति ख़राब होती जा रही थी। इसके बाद उन्होंने स्कूल शिक्षक की नौकरी शुरू कर दी। चूंकि वह परिवार में सबसे बड़े थे, इसलिए भी घर की जिम्मेदारी सबसे पहले उन्हीं के मत्थे आ पड़ी। 1954 में उनकी भेंट युग प्रवर्तक कवि-साहित्यकार गजानन माधव 'मुक्तिबोध' से हुई। उनकी प्रेरणा से बिलासपुर में वह 'नयी दिशा' पत्रिका का संपादन करने लगे। दो साल बाद वह ख्यात कवि नरेश मेहता से जुड़ गए और उनके साथ दिल्ली में 'कृति' पत्रिका का संपादन करने लगे।
श्रीकांत वर्मा के लिए वर्ष 1956 से लेकर 1963 तक का समय बड़े कठिन संघर्षों का रहा। जीवन के आरंभिक दौर में लोहिया से प्रभावित थे। वर्ष 1964 में रायपुर की सांसद मिनी माता ने उन्हें दिल्ली के अपने सरकारी आवास में रहने के लिए बुला लिया, जहाँ उनका एक दशक से अधिक का वक्त बीता। उसी दौरान वह दिल्ली की पत्रकारिता में हस्तक्षेप करने लगे। बाद में 1965 से 1977 तक 'टाइम्स ऑफ इंडिया' प्रकाशन समूह से निकलने वाली पत्रिका 'दिनमान' के विशेष संवाददाता नियुक्त हो गए। उनके तब तक के जीवन में वह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही। वहीं से उनकी यश-प्रतिष्ठा इस तरह सोपान दर सोपान छलांग लगाती गई कि देश का कोई भी बड़ा पत्रकार-साहित्यकार उनसे अपरिचित नहीं रह गया।
जब उन्होंने कांग्रेस की राजनीति की ओर कदम बढ़ाए तो टाइम्स समूह के लिए वह स्वीकार्य नहीं रहा और उन्हें 'दिनमान' से अलग होना पड़ा। सन् 1969 में वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के काफ़ी क़रीब हो जाने से कांग्रेस के महासचिव बन गए। पांच साल बाद उन्हे मध्य प्रदेश के कोटे से राज्य सभा के लिए निर्वाचित कर लिया गया। सियासत में उनकी लगातार पैठ बढ़ती गई और 1980 में वह कांग्रेस प्रचार समीति के अध्यक्ष बन गए। जब कांग्रेस की बागडोर राजीव गाँधी के हाथों में पहुंची, श्रीकांत वर्मा को महासचिव के पद से हटा दिया गया। वह उन्नीस सौ सत्तर के दशक के उत्तरार्ध से अस्सी के दशक के पूर्वार्ध तक पार्टी के प्रवक्ता बने रहे। उसी दौरान वह इंदिरा गांधी के राष्ट्रीय चुनाव अभियान के प्रमुख प्रबंधक, परामर्शदाता तथा राजनीतिक विश्लेषक भी रहे।
ऐसा भी नहीं कि श्रीकांत वर्मा सिर्फ राजनीति के होकर रह गए। वह नई कविता आंदोलन के अग्रणी कवियों में शुमार रहे। उनको दो बार आयोवा विश्वविद्यालय की ओर से विदेश में 'अन्तरराष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम' में 'विजिटिंग पोएट' के रूप में आमंत्रित किया गया। सृजन के लिए उनको मध्य प्रदेश सरकार ने 'तुलसी पुरस्कार' से, केरल सरकार ने 'कुमार आशान राष्ट्रीय पुरस्कार' से समादृत किया। उन्हें 'आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी पुरस्कार' और 'शिखर सम्मान' से भी नवाजा गया। समीक्षक धर्मेंद्र सिंह के शब्दों में - वह हिंदी के ही नहीं, तीसरी दुनिया के देशों में रचे जा रहे साहित्य के गहरे जानकार और अनुवादक, मिजाज से तीक्ष्ण-दर्शी यायावर, सिद्धांत से उत्कट मानवतावादी और शख्सियत से एक ठेठ कस्बाई थे, जो ‘मॉडर्निज़्म’ से आक्रांत वातावरण में अपने चारों सिम्त एक सच्चे आदमी को तलाशता रहा। 11 मार्च 1986 को न्यूयॉर्क में एक अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर में जाने से पहले श्रीकांत वर्मा ने अपनी डायरी लिखी। यह उनकी डायरी का अंतिम पन्ना था। जीवन की डायरी के पन्ने कुल दो महीने और फड़फड़ाये। 25 मई 1986 को स्लोन केटरिंग मेमोरियल अस्पताल, न्यूयॉर्क में जीवन-दैनन्दिनी का अंतिम सर्ग पूरा हुआ। वह दुनिया से चले गए।
11 मार्च 1986, न्यूयॉर्क में उन्होंने अपनी डायरी के उस आखिरी पन्ने में लिखा था - 'जब से बीमारी का पता चला है, भूख ही बुझ गई है। डॉक्टर कहते हैं, कैंसर में ऐसा अक्सर होता है। क्या कहूं! कितना अभागा हूं मैं! बचपन से रोगग्रस्त रहा। अभी जवान भी नहीं हुआ था कि पिता निकम्मे हो गए। कोई काम नहीं, कोई आए नहीं। जिस उम्र में लोग सपने देखते हैं, मैंने स्कूल मास्टरी की; मां-बाप, भाई बहनों को पाला और अपनी शिक्षा पूरी की। दिल्ली पहुंचा तो पराजय, विफलता, पीड़ा, रोग, धोखा सब मुझसे चिपकते गए। कभी निराला की पंक्ति याद आती है ‘क्या कहूं आज जो नहीं कही, दुख ही जीवन की कथा रही’ तो कभी मुक्तिबोध की- ’पिस गया वह भीतरी और बाहरी, दो कठिन पाटों के बीच।’ नहीं जानता यह डायरी जारी रहेगी या यह इसका अंतिम पन्ना होगा मगर इतना अवश्य कहूंगा, मैं जीना चाहता हूं।' आखिरकार, वही उस डायरी का अंतिम पन्ना रहा। वक्त ने उनसे जिंदगी छीन ली। इस तरह 'मगध' में सन्नाटा छा गया -
‘महाराज बधाई हो-
कोई नहीं रहा
श्रावस्ती की कोख उजड़ चुकी,
कौशाम्बी विधवा की तरह
सिर मुंडाये खड़ी है.
कपिलवस्तु फटी फटी आंखों से
सिर्फ़ देख रहा है
अवंती निर्वसन है
…
और मगध में ?
मगध में सन्नाटा है !
क्षमा करें महाराज
आप नहीं समझेंगे
यह कैसा सन्नाटा है। ('मगध' कविता संकलन से)
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