Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

एक "गूँज" से ज़रूरतमंदों को मिली नई ज़िंदगी

शहरों में अनुपयोगी समझे गए सामानों को गांवों में सदुपयोग के लिए पहुंचा रही हैं संस्था गूंज...आज गूंज के 21 राज्यों में संग्रहण केंद्र

एक "गूँज" से ज़रूरतमंदों को मिली नई ज़िंदगी

Saturday December 17, 2016 , 5 min Read

बड़े शहरों में अब चलन है कि लोग जल्द ही अपने कपड़ों से उबने लगते हैं। ज़ाहिर है बाज़ार की संस्कृति ने उनके मन मष्तिस्क पर गहरा असर किया है। ऐसे में लोग अकसर अपने पुराने कपड़ों को बेकार समझकर फेंक देते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि आपके बेकार पड़े हुए कपड़े किसी जरूरतमंद के काम आ सकते हैं। या आपके बेकार पड़े कपड़े गांव देहातों की तरक्की का कारण भी बन सकते हैं? हैरान हो गए ना? लेकिन ये सच है। 'गूंज' नाम की संस्था ने ऐसा कर दिखाया है। उन्होंने पुराने कपड़ों को न सिर्फ गरीब ज़रूरतमंदो तक पहुंचाया बल्कि इनके जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में तरक्की का एक नया मॉडल भी पेश किया है। गूंज के प्रयासों से भारत के कई गांवों में सकारात्मक बदलाव देखने को मिले हैं और इस सबका श्रेय जाता है गूंज के संस्थापक अंशु गुप्ता को।

अंशु गुप्ता का जन्म एक मध्य वर्गीय परिवार में हुआ। दसवीं कक्षा पास करने के बाद उन्होंने इंजीनियरिंग करने की तमन्ना से आगे की पढ़ाई विज्ञान विषय से की। लेकिन 12वीं कक्षा की पढ़ाई के दौरान उनका एक्सीडेंट हो गया। जिस वजह से काफी समय उन्हें बिस्तर पर बिताना पड़ा। इस दौरान उन्होंने अपने कैरियर को लेकर काफी सोचा और पाया कि वे पत्रकारिता में ज्यादा रुचि रखते हैं। फिर उन्होंने स्थानीय पत्रिकाओं और अखबारों के लिए लिखना शुरु किया। देहरादून से स्नातक करने के बाद दिल्ली का रुख किया और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन से पत्रकारिता का कोर्स किया। उसके बाद उन्होंने बतौर कॉपी राइटर एक विज्ञापन एजेंसी में काम करना शुरू कर दिया। फिर कुछ समय बाद पावर गेट नाम की एक कंपनी में दो साल काम किया। अब तक अंशु नौकरी करके काफी ऊब चुके थे इसलिए कुछ नया करना चाहते थे। कुछ ऐसा जिससे समाज का कुछ फायदा हो। इसी इच्छा से उन्होंने गूंज नाम की एक संस्था की नीव रखी।

image


गूंज का मकसद था पुराने कपड़ों को जरूरतमंदों तक पहुंचाना। यह काम अंशु और उनकी पत्नी ने आलमारी में रखे अपने पुराने 67 कपड़ों से शुरू किया। गूंज ने अस्पतालों के बाहर शिविरों में रहने वाले गरीब लोगों और झुग्गी झोंपडिय़ों में रहने वालों को कपड़े बांटना शुरू किया। उसके बाद कई और लोग भी गूंज के साथ जुड़ऩे लगे। सन 1999 में चमोली में आए भूकंप में उन्होंने रेड कॉस की सहायता से ज़रूरतमंदों के लिए काफी कपड़े और जूते भेजे।

अंशु हर स्तर पर काम करना चाहते थे ताकि 'गूंज' का विस्तार हो। उन्होंने अपने पीएफ के पैसे भी गूंज के कार्यकलापों में लगा दिए। बावजूद इसके पैसों की दिक्कत अब भी बनी हुई थी। जब उड़ीसा में चक्रवात आया उस समय अंशु के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे खुद वहां जाकर लोगों की सहायता कर सकें। सामान उनके पास बहुत था और वह चाहते थे कि सही समय पर यह सामान ज़रूरतमंदों तक पहुंचे। इसलिए उन्होंने रेड कॉस की मदद ली। सन् 1999 में गूंज एक रजिस्टर्ड एनजीओ बन तो गया लेकिन अंशु के सामने चुनौतियां अब भी बहुत थीं। कोई भी फंडिंग एजेंसी उन्हें फंड देने के लिए तैयार नहीं थी। बिना फंड के काम करना बहुत मुश्किल हो रहा था। संस्था के संचालन में बहुत खर्च आ रहा था जैसे यातायात खर्च, मजदूरों का वेतन आदि।

image


अंशु ने तमिलनाडु सरकार के साथ एक समझौता किया ताकि वहां आई प्राकृतिक आपदा के दौरान जो कपड़े वितरित नहीं हो पाए उन्हें ज़रूरतमंदों तक पहुंचा जा सके।

निरंतर गूंज का विस्तार जारी रहा और केवल पुराने कपड़े ही नहीं बाकी का सामान जैसे जूते, खिलौने, स्टेशनरी, छोटा फर्नीचर, किताबें आदि भी एकत्र कर लोगों को बांटा जाने लगा। इसके अलावा सैकड़ों स्वयं सेवक गूंज से जुडऩे लगे। गांव की पंचायतों में भी 'गूंज की गूंज उठने लगी। गूंज मुख्यत: भारत के ग्रामीण इलाकों में काम कर रहा था। गूंज ने क्लॉथ फॉर वर्क कार्यक्रम शुरू किया जो कि एक मिसाल है। इसके तहत कुछ गांवों में छोटे पुल बने तो कुछ गांवों में कुएं खोदे गए। कहीं जल संरक्षण का काम किया गया तो कहीं सफाई का कार्यक्रम चला। गूंज के इस कार्यक्रम के अंतर्गत गांव वाले जो भी कार्य करते उसके बदले उन्हें कपड़े या फिर बाकी सामान, उनकी जरूरत के मुताबिक दिया जाता।

'गूंज' में बहुत ही अनुशासित तरीके से काम होता है। यहां वस्त्रों के सेट बनाए जाते हैं और जरूरत के अनुसार उन्हें विभिन्न राज्यों में भेजा जाता है। जैसे ठंडे इलाकों में गरम कपड़े और गरम इलाकों में सामान्य कपड़े। गूंज के कामकाज को देखने की जिम्मेदारी आधिकांशत: महिलाओं के हाथ में रखी गई है। यहां कई तरह का सामान भी बनाया जाता है।

आज गूंज का वार्षिक बजट तीन करोड़ से अधिक पहुंच चुका है। लेकिन धन अर्जित करने से ज्यादा गूंज का मकसद सामाजिक है। यह पूरी तरह से जरूरतमंदों से जुड़ा है। बजट का बड़ा हिस्सा निजी दानदाताओं से आता है तो कुछ उत्पादों की ब्रिकी से। अंशु अपने काम के प्रति इतना ज्यादा समर्पित हैं कि समय-समय पर मिलने वाली पुरस्कार राशि को भी वे गूंज को समर्पित कर देते हैं।

image


67 कपड़ों से शुरु हुआ यह संगठन आज प्रतिमाह अस्सी से सौ टन कपड़े गरीबों को बांटता है। आज गूंज के 21 राज्यों में संग्रहण केंद्र हैं। दस ऑफिस हैं और टीम में डेढ़ सौ से ज्यादा साथी हैं।

सच में जिस नए काम को करने के मकसद से अंशु ने नौकरी छोड़ी थी वह उन्होंने पूरा कर दिखाया है। एक ऐसा काम जो मुश्किल था, चुनौतियों से भरा था लेकिन नामुमकिन नहीं।