जब पाकिस्तान की अदालत में मंटो की कहानी पर चला अश्लीलता का मुकदमा
उर्दू के मशहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि पर.
आज उर्दू के मशहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि है. मंटो इस भारतीय उपमहाद्वीप में गुलाम भारत में जन्म संभवत: इकलौते ऐसे कहानीकार हैं, जिनकी कहानियों पर सबसे ज्यादा फिल्में बनीं, उनका नाटकीय मंचन हुआ. जिन्होंने अपनी रचनाओं में हमारी दुनिया के झूठ, फरेब, मक्कारियों और दुखों को ऐसे अंदाज में बयां किया कि उनके दुश्मन भी उससे सहमत हुए बगैर नहीं रह सकते.
मंटो संभवत: इकलौते ऐसे लेखक भी हैं, जिन पर भारत और पाकिस्तान दोनों की अवाम अपना दावा करती है. भारत में जन्मे और पले-बढ़े मंटो ने आजादी के बाद पाकिस्तान जाने का फैसला किया था. इस बात को लेकर बहुत सारे मत और अंतर्विरोध हैं. लेकिन जो भी हो, मंटो की सबसे नजदीकी दोस्तियां, रिश्ते, संबंध और स्मृतियां इसी मुल्क के साथ जुड़ी हैं.
11 मई 1912 को पंजाब के लुधियाना जिले के एक गांव पापरौदी में जन्मे मंटो के पिता ख्वाजा गुलाम हसन कश्मीर के एक व्यापारिक परिवार से ताल्लुक रखते थे, जो उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में कश्मीर से अमृतसर आकर बस गए थे और कानून का पेशा अपना लिया था. जिस वक्त मंटो का जन्म हुआ, वे बतौर बैरिस्टर ख्यात हो चुके थे.
बाद में वे एक स्थानीय अदालत में सत्र बने. मां सरदार बेगम पठान वंश की थीं और उनके पिता की दूसरी पत्नी थीं. कश्मीरी होने के कारण उन्हें अपनी जड़ों पर बड़ा फख्र था. एक बार पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा था दिया कि 'खूबसूरत' होना 'कश्मीरी' होने का दूसरा अर्थ है.
मंटो की प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर के एक मुस्लिम हाई स्कूल से हुई, जहां मैट्रिक की परीक्षा में वो दो बार फेल हो गए. 1931 में हिंदू सभा कॉलेज पढ़़ने गए, लेकिन फिर फेल हो गए. सो नतीजा ये कि पढ़ाई उन्होंने पहले साल के बाद ही छोड़ दी.
1933 में 21 साल की उम्र में अब्दुल बारी अलीग से हुई मुलाकात मंटो की जिंदगी में निर्णायक साबित हुई. अलीग विद्वान तो थे ही, विवादों से घिरे लेखक भी थे. अलीग ने ही मंटो को रूसी और फ्रेंच लेखकों को पढ़ने की सलाह दी. उन्होंने मंटो को विक्टर ह्यूगो के उपन्यास ‘द लास्ट डे ऑफ़ ए कंडेम्ड मैन’ का उर्दू में अनुवाद करने को कहा. मंटो ने किया भी, जो उर्दू बुक स्टॉल, लाहौर ने ‘सरगुज़ाश्त-ए-असीर (एक कैदी की कहानी)’ के नाम से छपा.
उसके बाद 1934 में उन्होंने ऑस्कर वाइल्ड की ‘वेरा’ का उर्दू में अनुवाद किया. मंटो की पहली कहानी तमाशा अब्दुल बारी अलीग के उर्दू अखबार खल्क (सृजन) में छद्म नाम से छपी थी, जो जलियांवाला बाग हत्याकांड पर आधारित थी.
उसके बाद मंटो के लिखने और छपने का सिलसिला चल पड़ा. उन्होंने उस समय की मशहूर पत्रिकाओं के लिए अफसाने लिखे. दुनिया भर के बड़े लेखकों की रचनाओं का उर्दू में अनुवाद किया. धीरे-धीरे मंटो का नाम होने लगा. लेकिन जितना नाम हुआ, उतनी ही बदनामी भी. मंटो की कहानियां हमेशा किसी न किसी वजह से विवादों में रहतीं. उन पर तमाम मुकदमे भी हुए.
एक बार तो इस्मत चुगताई और मंटो, दोनों की कहानियों पर पाकिस्तान की एक अदालत में मुकदमा हो गया. आरोप था कि उनकी कहानियां फुहश यानी अश्लील हैं. दोनों अपना सामान बांधकर मुकदमे की सुनवाई के लिए पेशावर जा पहुंचे.
वहां पूरे वक्त गोलगप्पे खाते रहे और जूतियों की खरीदारी करते रहे. इस्मत लिखती हैं कि हम वहां ऐसे घूम रहे थे, मानो मुकदमे के लिए नहीं, बल्कि जूतियां खरीदने के लिए ही आए हों.
मुकदमे की सुनवाई का किस्सा भी कम मजेदार नहीं. जब जज ने वादी से पूछा कि आखिर मंटो की कहानी में क्या अश्लील है. उसने कहा कि इन्होंने अपनी कहानी में ‘औरत की छाती’ शब्द का इस्तेमाल किया है. इस पर मंटो भरी अदालत में बिफर पड़े और बोले, तो “औरत की छाती को छाती न कहूं तो क्या मूंगफली कहूं.” यह सुनकर अदालत में बैठे लोग हंसने लगे. जज को भी हंसी आ गई.
मंटो की जिंदगी से जुड़े ऐसे तमाम किस्से हैं. इस्मत चुगताई ने अपनी आत्मकथा कागजी है पैरहन में उनका बार-बार जिक्र किया है और उनके बारे में तमाम रोचक किस्से बयां किए हैं.
Edited by Manisha Pandey