बच्चों को 500-600 रुपये में हाईटेक एजुकेशन दे रहा ये स्टार्टअप, रोबोट पढ़ाती है इंग्लिश
कुछ ऐसे स्टार्टअप्स भी हैं जो जमीनी स्तर पर एजुकेशन ईकोसिस्टम में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके पढ़ाई लिखाई को एडवांस बना रहे हैं. इसी विजन पर काम कर रहा है एक स्टार्टअप CoGrad. इसके को-फाउंडर & सीईओ हिमांशु चौरसिया और को-फाउंडर सीओओ सौरव यादव हैं.
एडटेक फील्ड के ज्यादातर स्टार्टअप्स फिजिकल सिस्टम की ऑनलाइन प्रजेंस बढ़ाने और उसे ग्रो कराने पर केंद्रित हैं. लेकिन कुछ ऐसे स्टार्टअप्स भी हैं जो जमीनी स्तर पर एजुकेशन ईकोसिस्टम में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके पढ़ाई लिखाई को एडवांस बना रहे हैं. इसी विजन पर काम कर रहा है एक स्टार्टअप
. इसके को-फाउंडर & सीईओ हिमांशु चौरसिया और को-फाउंडर सीओओ सौरव यादव हैं.क्या है विजन
हिंमांशु बताते हैं कि हम लोगों ने गांवों में देखा कि बच्चे ठीक से इंग्लिश-हिंदी भी नहीं पढ़ पा रहे हैं. ज्यादातर बच्चे पास के प्राइमरी-प्राइवेट स्कूल में जाते थे. सिर्फ कुछ बच्चे 15-20 किमी दूर शहर में पढ़ने जाते थे. हम चाहते थे कि बच्चों को क्वॉलिटी एजुुकेशन मिले. इसी इरादे के साथ 2019 सितंबर में कोग्रैड की शुरुआत हुई.
कैसे हुई शुरुआत
लॉकडाउन के समय जो स्कूल घाटे की वजह से बंद हो गए थे हमने उनके मालिकों से बात की. ओनर्स बिल्डिंग में बिजली, पानी और बैठने की व्यवस्था करके देते हैं. उसके बाद का सारा काम जैसे- बच्चे लाना, स्कूल चलाना, टीचर्स ट्रेनिंग, कोर्स मॉड्यूल जैसी चीजें हम देखते हैं.
सितंबर में 27 बच्चों के साथ ईटावा में गांव एक स्कूल के साथ पायलट शुरू किया. ज्यादातर पैरेंट्स किसान हैं या मजदूरी दिहाड़ी करने वाले लोग हैं. इसलिए हमने फीस भी 300 से 600 रुपये के आसपास रखी. 1 महीने के अंदर हमारे पास 200 बच्चे हो गए. वहां हमने बच्चों के फंडामेंटल्स पर काम किया.
साथ में टेक्नोलॉजिकल एजुकेशन से भी रूबरू कराया. धीरे-धीरे बच्चों के अंदर सुधार दिखा. पैरेंट्स से भी सपोर्ट मिलने लगा. अगले साल उसी स्कूल में बच्चों की संख्या 350 के आसपास पहुंच गई.
ये हमारा पहला स्टार्टअप नहीं है. कॉलेज के फर्स्ट ईयर में ही अलग-अलग कॉलेजों के दोस्तों ने साथ मिलकर ड्रीम एडवांस नाम से एक छोटी सी कंपनी शुरू की थी. जिसके अंदर हम गांवों में ही बच्चों को करियर काउंसिंल, नई टेक्नोलॉजी के बारे में जानकारी देते थे.
कोविड आया तो हमें काम बंद करना पड़ा. महामारी के दौरान हम स्कूलों को ऐप बेस्ड सलूशन ऑफर करने लगे. महामारी खत्म हुई तो वो काम भी ठप पड़ने लगा. इस तरह हमने स्कूल एडवान्स के लिए नया वेंचर शुरू करने का फैसला किया.
एक ट्रिप पर मेरी मुलाकात सौरभ से हुई. सौरभ दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करके यूपीएससी की तैयारी कर रहे थे, लेकिन उन्हें बिजनेस का बड़ा शौक था. इसलिए उसने तैयारी छोड़कर ड्रीमएडवांस उसने हमें जॉइन कर लिया.
हम सभी कॉलेज में थे इसलिए सौरभ ही सारा ग्राउंड वर्क करते थे, उन्होंने स्कूलों के साथ अच्छा खासा नेटवर्क बनाया. कॉलेज खत्म होने के साथ प्लेसमेंट हुए तो बाकी टीम मेंबर हटते गए, लेकिन मैंने और सौरभ ने स्टार्टअप चलाने का ही फैसला किया.
हमें नैसकॉम फाउंडेशन से काफी मदद मिली. जो सिस्को के साथ मिलकर इनक्यूबेटर प्रोग्राम चलाता है. उसमें हमारा सेलेक्शन हुआ. वहां टेक्नोलॉजी और मेंटर्स दोनों थे. प्रशांत चौधरी हमारे टेक्निकल मेंटर थे. टेक का सारा काम वही देखते हैं.
कोर टीम में 2 को-फाउंडर हैं, 8 एग्जिक्यूटिव हैं जो अलग-अलग डिपार्टमेंट देखते हैं. ओवरऑल टीचर स्टाफ मिलाकर 140 लोगों की टीम है.
बिजनेस मॉडल
हम दो तरह से स्कूल ऑनबोर्ड करते हैं. किसी बंद पड़े स्कूल के मालिक के साथ एग्रीमेंट करके वहां नए सिरे से स्कूल शुरू करते हैं. स्कूल की ब्रैंडिंग के लिए आसपास के सभी गांवों की लिस्ट बनाते हैं और घर घर जाकर लोगों को स्कूल के बारे में बताते हैं. डिजिटल मीडिया का भी इस्तेमाल करते हैं.
दूसरे मॉडल में मौजूदा स्कूलों को अगर कोई खास सुविधा या सलूशन ऑफर करते हैं. जैसे बुक्स, करिकुमल डिजाइन करना, स्मार्ट क्लासेज देना, लैब डिजाइन करना, टेक बेस्ड सलूशन, टीचर ट्रेनिंग वगैरह. इस मॉडल में एडमिनिस्ट्रेशन पूरी तरह स्कूलों के पास ही होता है. जैसे उन्हें लैब चाहिए.
चुनौती
सबसे बड़ी चुनौती भरोसा हासिल करने की होती है. शुरू के एक साल में गावों को लोगों का भरोसा जीतना मुश्किल होता है. पहले साले में अमूमन 100 से 150 बच्चे आ जाते हैं. बच्चों को इनोवेटिव तरीके से किताबी ज्ञान और टेक्निकल ज्ञान देने के साथ-साथ पैरेंट्स को भी इनवॉल्व रखते हैं. ताकि, बच्चे को घर से भी पढ़ाई के लिए सपोर्ट मिले.
एक साल बीतने के बाद बच्चों और पैरेंट्स दोनों में ही काफी बदलाव नजर दिखने लगता है. शुरू के दिनों में मीटिंग में सिर्फ पुरुष आया करते थे लेकिन अब 70 फीसदी महिलाएं आती हैं.
टीचर कहां से लाते हैं
मैं जवाहर नवोदय विद्यालय (JNV) का स्टूडेंट रहा हूं और ये इकलौता स्कूल है जहां टीचर्स गांवों के बच्चों को ध्यान से पढ़ाया जात है. ये स्कूल 1986 से चल रहा है और साढ़े तीन लाख बच्चों की कम्यूनिटी है. सभी बच्चों को नौकरी नहीं मिल पाती है लेकिन सभी को शिक्षा अच्छी मिली है. इसलिए हम 70-80 फीसदी टीचर्स JNV से पढ़े लोगों को लेते हैं.
कोई भी टीचर कितना भी अनुभवी हो हम उन्हें तीन महीने की ट्रेनिंग देते हैं. अलग-अलग एजुकेशन बोर्ड के IES, IPS उन्हें ट्रेनिंग देने आते हैं. पिछले साल ही हमने सभी टीचर्स को NTT का कोर्स करवाया है.
बच्चों को क्या ऑफर करते हैं
हम बच्चों को वही कंटेंट इनोवेटिव और दिलचस्प तरीके से पढ़ाते हैं. बच्चों को आगे जाकर कॉमप्टिटीव एग्जाम देने हैं इसलिए उनका बेस क्लियर होना जरूरी है. कॉन्सेप्ट समझाने के लिए AR/VR का इस्तेमाल करते हैं. लर्निंग बाई डूइंग मेथड जिसमें बच्चे कोई कॉन्सेप्ट खुद करके समझते हैं. प्रोजेक्टर बेस्ड क्लासेज, थ्रीडी मॉडल प्रजेंटेशन भी शामिल हैं.
हाल ही में बच्चों के लिए ड्रोन शो और आरसी प्लेन शो भी आयोजित कराया था. इनवेस्टर अमेरिका के हैं तो वहां के भी काफी कनेक्ट मिल जाते हैं. जैसे- MIT, हार्वर्ड के बच्चों के साथ भी इंटरैक्टिव सेशन रखवाते हैं. जूनियर ओलिम्पिक्स चैंपियन शिरिन वाधवा बच्चों को एथलिटिक्स में बच्चों को ट्रेनिंग देती हैं.
हाल ही में हमें इंग्लिश टीचर की दिक्कत आ रही थी. उसे दूर करने के लिए हमने एक रोबोट डिवेलप किया है. उसका नाम प्रांजलि रखा है. 21 जनवरी को उसका पहला डेमॉन्सट्रेशन था. एआई बेस्ड रोबोट है, अभी उसके मॉड्यूल अपडेट कर रहे हैं. ताकि, वो बच्चों को उनकी ही लैंग्वेज में पढ़ा सके.
फंडिंग
चार महीने बाद प्री सीड राउंड में अमेरिका के एक एंजल इनवेस्टर आनंद वसागिरी ने 10 लाख रुपये की फंडिंग दी. 2022 की शुरुआत में. इस फंड के साथ हमने चार नए स्कूल ऑनबोर्ड किए. आज की तारीख में हमारे पास टोटल 15 स्कूल हैं. जिसमें 7 डायरेक्टली हम ऑपरेट करते हैं और 8 स्कूल ऐसे हैं जिन्हें डिमांड के आधार पर सलूशन प्रोवाइड कराते हैं. कई लोगों ने निवेश करने के लिए ऑफर दिया लेकिन जरूरत नहीं होती.
रेवेन्यू
हमारी कमाई स्टूडेंट्स की संख्या से तय होती है, क्योंकि फीस बेहद किफायती है. स्कूल हम 5 से 10 साल के कॉन्ट्रैक्ट पर लेते हैं. इसलिए पहले साल हमें 7-10 लाख रुपये लगाने पड़ते हैं. दूसरे साल बच्चे बढ़ते हैं तो बिजनेस ब्रेक इवेन लेवल पर आ जाता है. उसके अगले से प्रॉफिटेबल. रेवेन्यू का 25 फीसदी मार्जिन बचता है, जो भी प्रॉफिट बनता उसे अलगे स्कूल में इनवेस्ट कर देते हैं. एक साल में एक स्कूल से करीबन 250 बच्चों की संख्या पर 15 लाख का रेवेन्यू आता है.
आगे का प्लान
शुरू से ही हमने अपना टारगेट टियर 3 को रखा है. यहां लागत कम है और ना ही कोई बड़ा कॉम्पिटीशन. शुरुआती कैपिटल के हिसाब से ये मॉडल काफी कारगर निकला. शहर में स्कूल खोलना काफी खर्चीला होता है.
हां, ग्रो करने में समय लगेगा लेकिन ये मॉडल मल्टीपल इफेक्ट पर काम करता है. 3-4 स्कूल भी सफल हो गए तो वो आगे 10-15 स्कूलों के लिए फंड मिल जाता है. डेढ़ साल में हमारे पास अपने 7 स्कूल हैं, जिनमें 2300 स्टूडेंट हैं. इन स्कूलों में 1 से 9 तक के बच्चे पढ़ते हैं. 8 स्कूल पार्टनरशिप में भी हैं. अगले 10 सालों में 5000 स्कूलों का टारगेट है.