सावित्रीबाई फुले, स्त्रियों की शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाली भारत की पहली महिला शिक्षक
सावित्रीबाई फूले- इतिहास में ऐसी नारी जिसका जीवन स्वयं एक युग बोध है.
सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से पुणे में बालिकाओं के लिए पहला बालिका विद्याल खोला. 1 जनवरी 1848 में.
लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी.
यह वह दौर भी था जब महज 12-13 वर्ष की उम्र में लड़कियों की शादी उम्रदराज पुरुषों से कर दी जाती थी, इसलिए कई किशोरावस्था में ही विधवा हो जाती थीं. विधवाओं का यौन शोषण होना और गर्भवती विधवाओं का और भी अधिक अपमानित होना आम बात थी. इस समस्या को दूर करने के लिए, फूले दंपति ने विधवाओं के लिए एक आश्रय-गृह खोला.
शादी से पहले मां बनना, शादी के पहले गर्भधारण करना आज भी मृत्यूदंड की सजा फरमाने लायक गंभीर माना जाता है. शादी से पहले गर्भवती हुई, या गर्भवती विधवाओं और बलात्कार पीड़ितों को बचाने के लिए फूले दम्पति ने प्रसूतिगृह शुरू किया. इन सभी बेसहारा गर्भवती स्त्रियों को बगैर किसी सवाल के शामिल कर उनकी देखभाल की जाती और उनकी प्रसूति कर बच्चों की परवरिश भी की जाती.
गर्भवती विधवाओं के लिए ऐसे कार्य की मिसाल दुनिया में शायद ही मिले.
उसी दौर में सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने अपने कुंएं को दलितों और नीच जाती के माने जाने वाले लोगों के खोल दिया था.
‘महिला सेवा मंडल’ के रूप में पुणे की विधवा स्त्रियों के आर्थिक विकास के लिए देश का पहला महिला संगठन भी गठित किया.
मतलब, तत्कालीन समाज में व्याप्त तमाम दलित-शूद्र-स्त्री विरोधी रूढ़ियों-आडंबरों-अंधविश्वास के खिलाफ सावित्रीबाई और ज्योतिबा फूले मजबूती से डट कर खड़े रहे, और एक बेहतर भारत के निर्माण में अपनी पूरी ताकत लगा दी.
10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले का निधन भी सेवा में कार्यरत रहने के दौरान हुआ. प्लेग महामारी के फ़ैलने पर सावित्रीबाई प्लेग के मरीजों की सेवा करती रहीं. एक प्लेग के रोग से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इन्हें भी प्लेग हुआ और इनकी मृत्यु हुई.
कैसे हुई शुरुआत?
सावित्रीबाई फुले शिक्षित नहीं थीं क्योंकि वे पिछड़े समाज माली में पैदा हुई थी और वो भी महिला के रूप में. इन दोनों लोगों को ब्राह्मणों ने शिक्षित होने के योग्य नहीं माना था इसलिए समाज में भी इनके शिक्षा ग्रहण की मनाही थी.
महज 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई की शादी ज्योतिबा फूले के साथ हुई, जो खुद मात्र 13 वर्ष के थे. ज्योतिबा फुले उनके जीवन में शिक्षक बनकर आए. पढ़ने-लिखने का प्रशिक्षण उन्हें ज्योतिबा फुले से ही मिला.
अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, सावित्रीबाई ने शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में दाखिला ले उसे भी पूरा किया.
शिक्षक की अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद, सावित्रीबाई फुले ने पुणे के महारवाड़ा में लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया. उन्होंने ऐसा सगुनाबाई के साथ किया जो स्वयं एक क्रांतिकारी नारीवादी होने के साथ-साथ ज्योतिराव की गुरु भी थीं. इसके कुछ समय बाद सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने सगुनाबाई के साथ भिडे वाला में अपना स्कूल शुरू किया. भिडे वाला के स्कूल में लडकियां पढ़ती थीं, और सायंस और मैथ्स भी पढ़ती थीं, जो उस ज़माने के लिए लगभग असंभव-सी बात थी.
कलम थामने के मायने
उनके शिक्षिका बनने पर समाज में प्रखर विरोध हुआ. उन्हें धर्म को डुबाने वाली कहा जाता. जब पढ़ाने निकलती तो लोग उन पर पर गंदगी, कीचड़, गोबर फेकंते. ‘अपवित्र’ माने जाने वाले काम को करने वालों पर कीचड उछालने की तर्ज़ पर. सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं.
इस पर भी उन्होंने अपना काम बंद नहीं किया तो ससुर द्वारा दबाव डलवाया गया कि यदि सावित्री बाई फुले ने अछूतों को पढ़ाना बंद नहीं किया तो फूले दम्पति को उनके घर से निकलना पडेगा. और उन्हें घर से निकलना भी पड़ा. जिसके बाद उनकी मुलाक़ात उस्मान शेख और उनकी बहन फातिमा शेख से हुई.
बुलंद भारत की नींव
ज्योतिबा फुले अपनी पत्नी के साथ रहने और स्कूल खोलने के लिए जब ठिकाने की तलाश कर रहे थे तो फातमा शेख के भाई उस्मान शेख ने ही उनकी मदद की थी. उन्होंने अपने घर का एक हिस्सा उन्हें रहने और एक हिस्सा स्कूल खोलने के लिए दे दिया. यहीं से उनकी दोस्ती और साझेदारी की शुरुआत हुई. सावित्री बाई फुले और फातमा शेख ने मिलकर यहां दलित-पिछड़े जाती के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर आधुनिक भारत में स्त्री शिक्षा की बुनियाद रखने का काम किया.
फूले दंपति ने 1848 से 1852 तक पूरे महाराष्ट्र में लड़कियों के लिए कुल 18 स्कूल खोले. इस उपलब्धि को स्वीकार करते हुए, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित किया. बाद में, दंपति ने कामकाजी समुदाय की महिलाओं और बच्चों के लिए एक नाइट स्कूल खोला. उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में गरीब छात्रों के लिए 52 मुफ्त छात्रावास स्थापित किए.
हमारे देश में समाज सुधारकों की लंबी विरासत होने बावजूद महिलाओं को ध्यान में नहीं रखा गया, जबकि सावित्रीबाई फुले की जनचेतना और दूरदृष्टि हर मायने में प्रगतीशील थी. और शायद इनकी जीवनी देख कर हम समझ सकते हैं कैसे महिलाओं की इतिहास में भागीदारी को नज़रंदाज़ किया जाता रहा है. जिसका नतीजा यह हुआ कि भारत में पूर्ण महिला सशक्तिकरण अभी भी एक दूर का सपना बना हुआ है. और आज के नारीवादी आंदोलन उन सामाजिक मुद्दों पर ठहरा हुआ सा दीखता है जो तत्कालीन समाज में सावित्री बाई फुले के नेतृत्व में बखूबी लड़े गए.
सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, सगुनाबाई जैसी महान नायिकाओं के बड़े रोल और उनकी विरासत का जश्न मनाते हुए, हमें उनके पति ज्योतिबा या उस्मान शेख के योगदान को भी याद रखना चाहिए, जिन्होंने महिलाओं और निचली जातियों के लोगों के लिए समानता का सपना देखा था.