“खाद्यान्न के अधिकार” को अक्षुण्ण रखने की युगांतकारी कोशिश है “नेशनल राशन पोर्टेबिलिटी”
कोरोना वायरस संक्रमण की महामारी में बेहिसाब चुनौतियों के दरम्यान "भूख" की तपिश भी प्रवासी श्रमिकों/कामगारों को झुलसाने लगी है। वैसे राज्य सरकारें खास तौर पर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार, खाद्यान्न वितरण को युद्ध स्तर पर अंजाम दे रही हैं लेकिन राशन कार्डधारक होने के बावजूद लाखों प्रवासी श्रमिक/कामगार इसके लाभ से वंचित हैं। वजह, राशन कार्ड का दूसरे राज्य से पंजीकृत होना। लेकिन 01 मई 2020 को उ.प्र. के खाद्य एवं रसद विभाग समेत 16 राज्यों के द्वारा लागू की गई “राष्ट्रीय राशन पोर्टेबिलिटी योजना” अवश्य ही भूख की तपन पर एक सुखद बारिश का कार्य करेगी। लेकिन कैसे ?
इसका जवाब देते हुए उ.प्र. के खाद्य एवं रसद विभाग की प्रमुख सचिव निवेदिता शुक्ला वर्मा बताती हैं कि कुछ ऐसे कार्डधारक, जिन्हें रोजगार आदि के कारण अन्य प्रदेश जाना पड़ जाता है, वे अभी तक सरकार द्वारा संचालित खाद्यान्न वितरण की विभिन्न योजनाओं के लाभार्थी बनने से वंचित रह जाते थे, राष्ट्रीय राशन पोर्टेबिलिटी योजना, ऐसे वंचित निर्धन तबके को उसके राशन के अधिकार को उपलब्ध कराने का एक लोक कल्याणकारी माध्यम है।
दरअसल राष्ट्रीय राशन पोर्टेबिलिटी योजना के अंतर्गत कोई भी राशन कार्ड धारक, किसी भी सूबे की सरकारी राशन की दुकान में योजनानुसार राशन प्राप्त कर सकता है। मतलब उ.प्र. के उन्नाव का कार्डधारक तमिलनाडु में राशन ले सकता है और तमिलनाडु वाला यूपी में। दीगर है कि उ.प्र. सरकार ने 20 लाख से अधिक कामगारों और श्रमिकों को वापस लाने की बात कही है तो यह माना जा सकता है कि इससे कहीं बड़ी संख्या में उ.प्र. के श्रमिक अन्य प्रांतों में अपनी जीविका हेतु निवासरत होंगे। उन सबको यह योजना “ऑक्सीजन” प्रदान करेगी। देखा जाए तो यह योजना “एक भारत-श्रेष्ठ भारत” की संकल्पना-यात्रा में मील का पत्थर साबित हो सकती है।
लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस योजना की जानकारी आम कार्डधारकों और राशन दुकानदारों को है? इस 'गेम चेंजर' योजना के राह के अवरोध कौन से हैं?
इन सवालों का जवाब देते हुए उ.प्र. के खाद्य एवं रसद विभाग के अपर आयुक्त सुनील वर्मा बताते हैं कि सभी दुकानदारों को नेशनल राशन पोर्टेबिलिटी योजना से अवगत करा दिया गया है। उपभोक्ता भी इससे अनभिज्ञ नहीं हैं।
वह आगे बताते हैं कि लाभार्थी बिना किसी अतिरिक्त लागत या कागजी कार्रवाई के पोर्टेबिलिटी का लाभ प्राप्त कर सकेंगे और उनको अपने गृह राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में जारी मौजूदा राशन कार्ड वापस करने और प्रवास के राज्य में नए राशन कार्ड के लिए आवेदन करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश में अभी तक नेशनल राशन पोर्टिबिलिटी से महाराष्ट्र के 32 नागरिकों, केरल के 01, हरियाणा के 29 और राजस्थान के 04 लाभार्थियों ने उत्तर प्रदेश से राशन प्राप्ति का लाभ अर्जित किया है।
यही नहीं उत्तर प्रदेश के भी 03 लाभार्थियों ने कर्नाटक से, 01 लाभार्थी ने गोवा से और 12 लाभार्थियों ने महाराष्ट्र से राष्ट्रीय राशन पोर्टेबिलिटी का लाभ उठाते हुए राशन प्राप्त किया है।
देखा जाए तो यह संख्या प्रवासी श्रमिकों/कामगारों की तादात को देखते हुए फिलहाल बहुत कम दिखाई पड़ रही है किंतु आने वाले समय में यह नए "आंचलिक संबंधों" के सूत्रपात का कारक बनेगी।
विदित हो कि दशकों से असंगठित क्षेत्र के प्रवासी श्रमिकों और कामगारों की पीड़ा रही है कि “फलां” शहर में हमने पूरी ज़िंदगी गुजार दी लेकिन हम आज भी यहां के लिए “बेगाने” हैं। लेकिन जब यूपी का श्रमिक कोलकाता के किसी मोहल्ले की राशन की दुकान से खाद्यान्न प्राप्त करेगा तो उस घड़ी उत्पन्न आत्मीयता मिश्रित भाव, एक विशेष प्रकार के 'नागरिक बोध' को जन्म देगा, जो अनेक प्रकार के 'बेगानेपन' को दूर करने में सहायक होगा, जो राष्ट्रीयता की मजबूती प्रदान करेगा।
कुछ ऐसे ही भावों के वशीभूत हो, महाराष्ट्र में राशन प्राप्त करने वाले उ.प्र. के सिद्धार्थनगर निवासी मनोहर लाल भावुक हो, अपने घर पर फोन कर कहते हैं कि “आज पहली बार अहसास हुआ कि यह हमारा भी वतन हैं। हम भी कुछ हैं यहां।”
इसी तरह मुंबई से उत्तर प्रदेश घूमने आए मो.अमन रमजान खान बताते हैं कि “लॉकडाउन के कारण मैं यहां फंस गया। लेकिन नेशनल राशन पोर्टेबिलिटी के तहत जिला सुल्तानपुर के धनपतगंज ब्लाक की राशन की दुकान से मुझे 35 किलो राशन की प्राप्त हुई है। यह मेरे लिए जीवन-रक्षक है।”
इसी क्रम में मुंबई के ही राहुल वर्मा ने जिला सुल्तानपुर के भदैया ब्लॉक की राशन की दुकान से 09 यूनिट के सापेक्ष 45 किलो खाद्यान्न प्राप्त कर हर्षित भाव से कहा “यह योजना हमारे जैसे जरूरतमंद लोगों को सुविधा दिलाने की एक बड़ी कोशिश है। अगर यह योजना न होती तो हम बेगानों को कौन पूछता। अब तो अपना ही क्षेत्र लग रहा है।”
ऐसे बिखरे हुए सामाजिक ताने-बाने को माला की तरह सुव्यवस्थित करने में राशन पोर्टेबिलिटी की भूमिका धागे की तरह हो सकती है लेकिन क्या व्यवस्था के स्तर पर भी इसका कोई प्रभाव परिलक्षित होगा? इस बारे में प्रकाश डालते हुए सामाजिक एवं आर्थिक विश्लेषक डॉ.रहीस सिंह बताते हैं कि “नेशनल राशन पोर्टेबिलिटी योजना, खाद्यान्न वितरण व्यवस्था के जनतांत्रिकरण की दिशा में बढ़ाया गया युगांतकारी कदम है। इसके द्वारा लाभार्थियों के पास राशन प्राप्ति हेतु दुकान के चयन का विकल्प होगा। कोटेदारों पर कार्डधारकों की निर्भरता कम होगी और यह वितरण व्यवस्था में पारदर्शिता को बढ़ायेगा।”
आंकड़ों की रोशनी में देखें तो उत्तर प्रदेश में करीब 03 करोड़ राशन कार्ड धारक हैं। इन राशन कार्डों के माध्यम से लगभग 13.36 करोड़ लोग लाभान्वित हो रहे हैं। सूबे में राशन वितरण का जिम्मा करीब 80 हजार 500 राशन की दुकानों पर है। ऐसे में पूरे प्रदेश में पोर्टेबिलिटी व्यवस्था लागू होने के बाद इन राशन दुकानों के मध्य प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी। यह प्रतिस्पर्धा, कोटेदारों के 'अधिनायकवाद' को समाप्त करने की दिशा में बड़ा कदम होगी।
“भोजन के अधिकार” पर लंबे समय से कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता अजय शर्मा बताते हैं कि अभी तक श्रमिकों और कामगारों को लाभ पहुंचाने वाली जितनी भी योजनाएं राज्य सरकारों द्वारा संचालित की जा रही हैं, उनकी परिधि जनपद तक ही सीमित है। यह पहली योजना है, जिसके माध्यम से सभी प्रकार की (जिला और राज्य) सरहदों को लांघते हुए वंचित वर्ग के “खाद्यान्न के अधिकार” को अक्षुण्ण रखने की कोशिश की गई है।
दरअसल नेशनल पोर्टिबिलिटी योजना के महत्व को समझने के लिए "भूख" के उस अर्थशास्त्र को जानना अपरिहार्य है, जिसने किसी श्रमिक/कामगार को अपने गांव से शहर में पलायन को विवश किया था। दरअसल पलायन के पांव की फटी बिवाइयों से रिसते लहू से लिखी गयी 'पेट के संघर्ष' की दांस्ता को पढ़ने की ज़रूरत है, जिसके पहले पन्ने पर ही लिखा है कि गांव छोड़ते ही, व्यक्ति का सब कुछ बेगाना हो जाएगा। वह प्रत्येक सहयोग, जो हुकूमत उसे रहमत के तहत बख्श रही थी...महज ज़िला बदलते ही उसके लिए बेगाने हो जायेंगे।
सोचिए, 'परदेस' में किसी का आसरा नहीं, कोई सहायता नहीं। रोज कुआं खोदो, रोज पानी पियो। किसी दिन तबीयत खराब हो जाये तो पूरा परिवार निवालों को तरस जाए। ऐसे हालात के लिए यह राशन पोर्टेबिलिटी योजना 'प्राण-वायु' सरीखी है।
अभी तक किसी प्रवासी श्रमिक के पास कोई ऐसा शिनाख्ती (पहचान) कागज नहीं था, जो गैर जनपद, गैर सूबे में उस श्रमिक के 'हक' को वैधानिकता प्रदान करता हो, लेकिन इस योजना के मार्फ़त अब उसका राशनकार्ड इस राष्ट्र के प्रत्येक सूबे, प्रत्येक जिले में उसके हक की मुनादी करेगा।
गौर से सुनिए योगी आदित्यनाथ के उ.प्र. में वंचित के हक की मुनादी आंकड़ों की ज़ुबान में सुनाई पड़ने लगी है। देखिये न, अभी चंद दिनों में ही उ.प्र. में 7.18 लाख अंतः जनपदीय, 55,093 अंतरजनपदीय लाभार्थियों ने राज्य स्तरीय पोर्टिबिलिटी का लाभ लिया है। यह संख्या दिनानुदिन बढ़ रही है।
सारा खेल समावेशन का है। योगी की समावेशी नीतियों पर तरंगित उ.प्र. में कोविड-19 के मध्य में ही स्टेट पोर्टेबिलिटी योजना का लागू होना वंचित वर्ग के खाद्यान्न अधिकार के प्रति सरकार की वरीयता को प्रकट करता है। वरीयता रूपी यह पथ वंचित एवं उपेक्षित जनों के द्वार पर पहुंच कर, वह दिन भी लाएगा, जब नेशनल राशन पोर्टेबिलिटी के लाभार्थियों के अति विशाल आंकड़ों की जुबान “एक भारत-श्रेष्ठ भारत-समावेशी भारत” का बुलंद स्वर मुखरित करेगी।