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मंचों की फरमाइश में कविता बिखर गई

मंचों की फरमाइश में कविता बिखर गई

Thursday September 21, 2017 , 7 min Read

अब कविता से जन-गण का पक्ष ग़ायब है। आदमी की पीड़ा की कविता अब घरों में दुबककर, छिपकर, चादर ओढ़कर सोई पड़ी है, कवि डर गए हैं। सच हांफ-कांप रहा है। नवगीतकार राम सेंगर के शब्दों में, 'कविता को लेकर, जितना जो भी कहा गया, सत-असत नितर कर व्याख्याओं का आया। कविकर्म और आलोचक की रुचि-अभिरुचि का व्यवहार-गणित पर कोई समझ न पाया।'

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कविता का संसार हमेशा से ऐसा संसार रहा है जो एकदम महीन भी है और इतना व्यापक कि आसमानों और ज़मीन तक को अपने भीतर समेटे लेता है। कविता में यह सब इसलिए संभव है कि कविता उस उपजाऊ भूमि की तरह होती है, जिस भूमि पर कवि जितनी कविता चाहे, उतनी उपजा सकता है। यही वजह है कि कविता सामूहिक गान की तरह होकर सबको एकजुट करती आई है। 

चिन्ता का विषय महाजनों की घुसपैठ पर तो कम महाजनों के माध्यमों से भी अच्छी कविता न मिल पाने की ज्यादा है। जो व्यवस्था पूंजीवाद की शिकार हो शोषक की भूमिका में आ जाये उसके विरुध्द पुरस्कार लौटाने जैसे स्वार्थप्रेरित आंदोलनों के बजाय साहित्य को 'रथ का घर घर नाद सुनो, सिहासन खाली करो कि जनता आती है' का उद्घोष करना चाहिए।

अब कविता से जन-गण का पक्ष ग़ायब है। आदमी की पीड़ा की कविता अब घरों में दुबककर, छिपकर, चादर ओढ़कर सोई पड़ी है, कवि डर गए हैं। सच हांफ-कांप रहा है। नवगीतकार राम सेंगर के शब्दों में, 'कविता को लेकर, जितना जो भी कहा गया, सत-असत नितर कर व्याख्याओं का आया। कविकर्म और आलोचक की रुचि-अभिरुचि का व्यवहार-गणित पर कोई समझ न पाया।'

'कविता क्या है' पर कहा शुक्ल जी ने जो-जो,

उन कसौटियों पर खरा उतरने वाले।

सब देख लिए पहचान लिए जनमानस ने

खोजी परम्परा के अवतार निराले।

जनगण के बीच समस्याएं जैसी जानलेवा होती जा रही हैं, उनका तज़करा आजकल के कविसम्मेलनों और मुशायरों के मंचों पर नहीं के बराबर हो रहा है। कवि उन समस्याओं के आगे जैसे नतमस्तक हैं। उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक शमीम हनफ़ी लिखते हैं, यह ज़माना डुप्लीकेट, नक़ली और फ़ैशनेबल चीज़ों का ही नहीं, ऊपर से ओढ़े हुए, नुमाइशी और यथार्थ से ख़ाली भावनाओं और निरर्थक विभूतियों का भी है। कवि शहंशाह आलम का कहना है कि मेरे ख़्याल से ऐसा इसलिए है कि कवि-समाज बिखर रहा है। यह हमारे समय का नया अनुभव है। इस बिखराव का नतीजा इस बात से स्पष्ट है कि अब कविता किसी जनांदोलन का हिस्सा बनती दिखाई नहीं देती। हर कवि हालात से डरा दिखाई देता है। कवि किसी महाजन के कहने पर मंच तक पहुँच जाता है दौड़ा-दौड़ा, मगर किसी आंदोलन का हिस्सा बनने का अवसर गंवा देता है। यही वजह है कि अब कविता से जन-गण का पक्ष ग़ायब है। साहित्य की दुनिया हमारे घर में दुबककर, छिपकर, चादर ओढ़कर रहने से ज़्यादा दिनों तक चलने वाली नहीं।

कविता का संसार हमेशा से ऐसा संसार रहा है जो एकदम महीन भी है और इतना व्यापक कि आसमानों और ज़मीन तक को अपने भीतर समेटे लेता है। कविता में यह सब इसलिए संभव है कि कविता उस उपजाऊ भूमि की तरह होती है, जिस भूमि पर कवि जितनी कविता चाहे, उतनी उपजा सकता है। यही वजह है कि कविता सामूहिक गान की तरह होकर सबको एकजुट करती आई है। 

एक अच्छी कविता की पहचान यही है कि वह हमेशा सामूहिक रहकर सबको एकजुट रखे। मंचों पर तो कवि और कविता की ख़रीद-फ़रोख़्त बाआसानी हो रही है। यहां इस साझा-पत्ती चलन अब आम होता जा रहा है। मंच सरकारी है तो सत्ता कैसी और कितनी भी निरंकुश हो, कवि सत्ता का प्रेमी होकर अपनी कविता के साथ-साथ अपनी आत्मा तक राज़ी-ख़ुशी बेच आता है। साहित्य समाज के लिए यह स्थिति किसी बड़े ख़तरे से कम नहीं। यह वही ख़तरा है, जो कविता के महाजन रोज़-ब-रोज़ कविता में बढ़ रहे हैं। इसका बुरा परिणाम यह निकलकर आ रहा है कि अब बहुत कम कवि जनता की आज़ादी की कविताएँ लिख रहे हैं।

विस्फोट लयात्मक संवेदन का सुना नहीं,

खंडन-मंडन में साठ साल हैं बीते।

विकसित धारा को ख़ारिज़ कर इतिहास रचा

सब काग ले उड़े सुविधा श्रेय सुभीते।

कवि-साहित्यकार शंकर क्षेम का मानना है कि लिखते-लिखते लिख जाये अर्थात् सायास न हो, उसे हम कविता कह सकते हैं। कविता लिखने की पीड़ा प्रसव पीड़ा जैसी होती है। भावों की घनीभूत उथल-पुथल जब व्यक्त होकर चैन सा दे तो समझो जो लिखा गया है, वह कविता है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 'जूही की कली' कविता के माध्यम से कविता को छंदों की कारा से मुक्त कराने का आंदोलन प्रारंभ किया तो तत्कालीन प्रतिष्ठित आचार्य रामचंद्र शुक्ल बुरा मान गये थे। हिंदी कविता ने चोला बदला, रूप बदला, कलेवर बदला परंतु पुन: वादों के साँचे में क़ैद होकर वह छायावादी, प्रयोगवादी, प्रगतिवादी और नई कविता के नये सप्तक में रह गयी। अच्छी कविता वह है, जो दिल की ग़हराइयों तक पहुँच जाये और वहाँ एक स्थायी लकीर खींच जाये। श्रोताओं-पाठकों को याद रहना भी अच्छी कविता की पहचान हो सकती है। 

कविता का धंधा रीतिकाल से ही है। एक दोहे पर एक अशर्फी कविता का बाज़ारीकरण ही तो था। अब उसका रूप बदल गया है। लोक कवियों से होली, दिवाली, तीज त्यौहार मंच की शुरूआत मान भी लें तों कविता को आज खेमेबंदी, राजनीतिक घुसपैठ और पूर्वाग्रहों से मुक्त कराने का अवसर है। निरालाजी द्वारा उस समय छेड़ी गयी जंग को आचार्य शुक्ल जैसे आलोचकों ने कविता से खिलवाड़ कह कर हल्के में लिया था परंतु आगे चलकर हिंदी कविता ने उस राह को अपनाया। किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रहों से दूर रहकर सुधीजनों को एक पृथक् मंच से अच्छी कविता नाम से एक स्वच्छ लेखन की मुहिम चलानी चाहिए। इसका केंद्र कोई ऐसा नगर होना चाहिये, जहाँ अच्छी कविता की कुछ सिद्धहस्त लेखनियाँ उपलब्ध हों। मैं तो सांस्थानिक साहित्य-उद्धारकों समितियों, मठाधीशों और अन्य प्रकार के दबावों को देख चुका हूँ।

मत कलावृत्ति के मौलिक मूल्यों को खुरचो

इस उत्कटता में बात न कुछ बोलेगी।

संधान नये मूल्यों का यदि सच्चा न हुआ

काव्यालोचन की दुनिया ही डोलेगी।

कवि-पत्रकार सुरेश अवस्थी का कहना है कि किसी भी विधा की अच्छी कविता वही मानी जा सकती है जो संबंधित विधा के काव्य शास्त्र की मान्य परंपराओं की कसौटी पर खरी हो और पाठक अथवा श्रोता को आत्मिक आनंद की अनुभूति कराये। कविता विश्व संरचना की सबसे महत्वपूर्ण इकाई मनुष्य के भीतर मनुष्यता का संचार, स्थापना और उसका निरन्तर विकास करने वाली कालजयी होती है। क्षणिक आवेग या मज़ा देने वाली कोई भी काव्य रचना अच्छी कविता का विशेषण पाने की हकदार नहीं होती। राजाओं के दरबारों में जब किसी कवि को राजा के पसन्द की काव्य रचना सुनाने पर सोने के सिक्के मिलते थे तो इसे पुरस्कार की आड़ में कविता बेचना ही खा जायेगा क्योंकि तब कवि कविता नहीं राजा की पसंद का एक उत्पाद रचता था। 

जहां तक कविता बेचने का प्रश्न है तो देखना होगा की कला, संगीत, नृत्य सहित कोई ऐसी ललित कला है जो कभी पुरस्कार तो कभी न्योछावर जैसे शब्दों की आड़ में बिकी न हो, और बेची न जा रही हो। कविता भी इससे बाहर नहीं है। वर्तमान के बाजारीकरण के दौर में कविता सहित सभी ललित कलाएं बाजार में हैं। इसीलिए साहित्य में महाजनी घुसपैठ ने जगह बना ली है। चिन्ता का विषय महाजनों की घुसपैठ पर तो कम महाजनों के माध्यमों से भी अच्छी कविता न मिल पाने की ज्यादा है। साहित्य में जनतंत्र के सवाल पर उनका कहना है कि साहित्य न तो सत्ता है न शोषण करने वाला कोई पूंजीपति जो साहित्य में एक स्वतंत्रता संग्राम की जरूरत महसूस हो, पर इतना जरूर है कि जो व्यवस्था पूंजीवाद की शिकार हो शोषक की भूमिका में आ जाये उसके विरुध्द पुरस्कार लौटाने जैसे स्वार्थप्रेरित आंदोलनों के बजाय साहित्य को 'रथ का घर घर नाद सुनो, सिहासन खाली करो कि जनता आती है' का उद्घोष करना चाहिए।

कविता की प्रयोगशालाओं के परखयंत्र,

बेकार हुए तो फेंको नये मंगाओ।

यह गद्य-पद्य की रार बहस का मुद्दा है,

सारे विवाद को खुले मंच पर लाओ।

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