Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
ADVERTISEMENT
Advertise with us

मुकाम पाने के लिए स्त्री को पुरुष बनना ज़रूरी नहीं, आवश्यक है भीतर की संभावना को उजागर करना

मुकाम पाने के लिए स्त्री को पुरुष बनना ज़रूरी नहीं, आवश्यक है भीतर की संभावना को उजागर करना

Wednesday March 09, 2016 , 5 min Read

समाज की संरचना देखें तो हमें हर चीज़ दो भागों में बंटी हुई दिखाई देती है, जैसे दिन-रात, अच्छा-बुरा, काला-सफ़ेद इत्यादि। सबसे महत्वपूर्ण दो भाग स्त्री और पुरुष हैं जो समाज के हर हिस्से से प्रभावित हैं और हर एक पहलू को प्रभावित करते हैं। घर-बाहर जहां तक भी नज़र जाती है, हम स्त्री-पुरुष के विवाद / विमर्श से भिन्न होकर सोच पाना बहुत हद तक नामुनकिन है। स्त्री से भेद-भाव को तो नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, परन्तु इससे थोड़ा हटकर सोचें तो समाज की कई पर्ते ऐसी दिखाई देती हैं जहां स्त्री ने अपने साथ हुए भेद-भाव को अपनी मंज़िल के आढ़े नहीं आने दिया। इतिहास के पन्नों के हाशिये पर ही सही, पर कुछ शब्द ऐसे मिलते हैं जहाँ स्त्री एक मिसाल बनकर उभरी है। ऐसे ही एक मिसाल हैं अमृता प्रीतम। 


image


अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त, 1919 को गुजरांवाला, पंजाब में एक साधारण से परिवार में हुआ। उनके पिता अध्यापक थे और जब वे ग्यारह वर्ष की थीं तो उनकी माँ का देहान्त हो गया। जीवन के आरम्भ की मुश्किलों का अंदाजा इन दो पंक्तिओं से नहीं तो जाता है पर आगे चलकर भी, फूलों से लदा जीवन उनकी प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। 

बहुत बार देखा गया है कि समाज की कहानी स्त्री की कहानी नहीं बनती, परन्तु, स्त्री जब खुद अपनी कहानी के लिए औज़ार ढूंढती है और उन्हें अपनी राह बनाने में इस्तेमाल करती है, तो समाज की कहानी को चिन्हित करती हुई नज़र आती है। अमृता प्रीतम की कहानी को समाज की कहानी के पन्नों पर पढ़ें तो उनका विवाह जो काम उम्र में हुआ, उसी तरह की आम बात नहीं जो हर लड़की के जीवन का हिस्सा होती है, बल्कि जीवन की चाल में उन्होंने विवाह की आड़े आने नहीं आने दिया और विरोध के बावजूद उनका पहला कविता-संग्रह "अमृत लहरें" तब प्रकाशित हुआ जब वह मात्र सोलह वर्ष की थीं। बचपन में एक बार, एक प्यार-कविता लिखने पर उनके पिता ने उनको बहुत डांटा और सतर्क किया की यह उनका रास्ता नहीं। तब उनको क्या पता था की प्रेम के किस्से कहना और प्रेम में रहना ही उनका रास्ता होगा। उनके पिता की अटूट धर्म-आस्था भी अमृता प्रीतम को उस राह पर नहीं ले गयी। 1936 से 1960 तक, वो अपने पति प्रीतम सिंह के साथ रहते हुए भी कभी घरेलू ढाँचे नहीं ढल पायीं। 

साहिर लुधियानवी के साथ उनके प्रेम की चर्चा हर जगह थी और इस समाज में विवाहित स्त्री किसी और से प्रेम करे, ये कभी भी स्वीकारा नहीं गया। अमृता प्रीतम के बेहद सशक्त व्यक्तित्व ने कभी भी किसी बात, आलोचना को आड़े नहीं आने दिया। उनके शब्दों का सफर निरंतर अग्रसर रहा। इसी ने उन्हें वह सोच, वह साधना और वह शब्द दिए जिन्होंने उनके स्त्री होने की हस्ती को सार्थक कर दिया। 

इमरोज़ के साथ उनका प्रेम, एक अनोखी दास्ताँ हैं, जो चालीस वर्ष तक साथ चली और इस साथ को उनके उपन्यास, कविता-संग्रह और नागमणि जैसी पत्रिका ने अटूट बना दिया। सिर्फ प्रेम ही नहीं, समाज के दर्द ने भी उन्हें झकझोरा। भारत के विभाजन ने उनके व्यक्तिगत दर्द को पीछे छोड़ दिया और वो समूची-मानवता के दर्द को महसूस करने वाली एक संवेदनशील महिला के रूप में अमर हो गयीं। उनकी कविता 'आज वारिस शाह नून', दर्द में डूबे लोगों की आवाज़ बानी। अमृता प्रीतम ने जिस हौसले से, समाज की परम्पराओं ने विपरीत जाकर, अपनी पहचान बनाई वह एक अनूठी बात है। यहां एक बात साफ़ करना ज़रूरी है कि परम्पराओं के विपरीत जाना ही बड़ी बात नहीं पर विपरीत जाकर अपने आपको स्थापित करना और उसे निरंतर बनाए रखना, बड़ी बात है। 

उनको प्राप्त पुरस्कार इस बात का सबूत हैं कि विपरीत लहर का भी अपना एक अस्तित्व होता है और निष्ठा से जिया हुआ जीवन सिर्फ एक का नहीं होता बल्कि समाज का हो जाता है। भले ही समाज के बनाये नियम को ठुकराए ही हो। साहित्य अकादमी पुरस्कार (1956), पद्म-श्री (1969), पदमा-विभूषण और कई विश्व-विद्यालयों द्वारा दी गयी दी-लिट की उपाधि इस बात का सबूत है कि जिस समाज ने एक समय उनका विरोध किया, उसी समाज ने उनकी साहित्य रचना को अपना लिया। 

अपने साठ वर्ष के साहित्यक रचनाकाल में, उन्होंने 28 उपन्यास, अनेकों कविता-संग्रह, लघु-कहानी संग्रह और कई अनूठी विधाओं का प्रयोग करते हुए अनेक पुस्तकें उनकी हस्ती का हिस्सा बनीं। संस्कृति और परंपरा का विरोध करते हुए भी अपनी रचनाओं से समाज को समृद्ध बनाते हुए, अमृता प्रीतम ने साबित किया की स्त्री की हिम्मत और हौसले को कोई भी माप-दंड तोड़ नहीं सकता। हर बार इंगित किये गए रास्ते ही मंज़िल तक नहीं ले जाते, मंज़िल उन रास्तों से होकर भी मिलती है जिन पर कभी कोई चला ही नहीं। जो रास्ते बाहरी रूप से देखने पर विपरीत नज़र आते हैं, वास्तव में वह नज़रों का धोखा होते हैं। साहित्य को रचने का रास्ता कितना भी क्यों ना हो, उसका संवेदनशील गुण अंत में एक इकाई ही नज़र आता है। 

अंत में यही कहूँगी की अमृता प्रीतम ने स्त्री होने को नकार कर पुरुष के अस्तित्व की ओर चलने का यत्न नहीं किया। स्त्री होना कोई दूसरा दर्जा नहीं माना, उसकी संभावनाओं को पूरे यत्न के साथ समझा और जिया। एक मुकाम हासिल करने के लिए, स्त्री को पुरुष बनने की ज़रुरत नहीं, भीतर की संभावना को उजागर करने की आवश्यकता है जो अमृता प्रीतम ने बखूबी किया। स्त्री होने के सौंदर्य को उन्होंने समझा और उजागर किया।