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'पद्मावती' को पहली बार 'जौहर' से मिली लोक-ख्याति

मलिक मोहम्मद जायसी के बाद, श्याम नारायण पांडेय ही ऐसे महाकवि रहे, जिन्होंने रानी पद्मावती के काल्पनिक पात्र को कविसम्मेलनों के बहाने जन-जन तक पहुंचाया...

'पद्मावती' को पहली बार 'जौहर' से मिली लोक-ख्याति

Friday November 24, 2017 , 7 min Read

जिस रानी पद्मावती पर बनी फिल्म को लेकर आज पूरे देश में विरोध और समर्थन का डंका बज रहा है, उस काल्पनिक पात्र को मलिक मोहम्मद जायसी के बाद, श्याम नारायण पांडेय ही ऐसे महाकवि रहे, जिन्होंने हिंदी कविसम्मेलनों के बहाने जन-जन तक पहुंचाया। मंचों पर वह रानी के जौहर की ये पंक्तियां सुनाते हुए अश्रु विगलित हो जाया करते थे- जल गई रानी रुई सी, स्मृति सुई सी गड़ रही है। 

सांकेतिक तस्वीर

सांकेतिक तस्वीर


'जौहर' में कवि ने एक मौलिक वीर-रस शैली का उद्घाटन किया। छन्दों में 'हल्दी घाटी' से अधिक वेग एवं भावानुकूल गति है। डोले का वर्णन एवं चिता-वर्णन की चिनगारियाँ अत्यंत प्रभावभूर्ण एवं मर्मस्पर्शी हैं। 

हल्दीघाटी के नाम से विख्यात राजस्थान की इस ऐतिहासिक वीर भूमि के लोकप्रिय नाम पर लिखे गये हल्दीघाटी महाकाव्य पर उनको उस समय का सर्वश्रेष्ठ सम्मान देव पुरस्कार प्राप्त हुआ था। 

जिस रानी पद्मावती पर बनी फिल्म को लेकर आज पूरे देश में विरोध और समर्थन का डंका बज रहा है, उस काल्पनिक पात्र को मलिक मोहम्मद जायसी के बाद, श्याम नारायण पांडेय ही ऐसे महाकवि रहे, जिन्होंने हिंदी कविसम्मेलनों के बहाने जन-जन तक पहुंचाया। मंचों पर वह रानी के जौहर की ये पंक्तियां सुनाते हुए अश्रु विगलित हो जाया करते थे- जल गई रानी रुई सी, स्मृति सुई सी गड़ रही है। श्याम नारायण पांडेय ने रानी पद्मावती के जौहन पर ही केंद्रित 21 सर्गों का महाकाव्य लिखा था। उन्नीस सत्तर-अस्सी के दशक में वह देश के किसी भी कोने में जब भी मंच पर होते थे, उनसे 'जौहर' की पंक्तियां सुनाने की बार-बार फरमाइश होती थी। 'जौहर' की पंक्तियां सुनाते समय मानो वक्त ठहर सा जाता था, सारे के सारे श्रोता रोमांच से भर उठते थी, अनवरत तालियां गड़गड़ाती रहती थीं। इस महाकाव्य को आम रचनाओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इसकी शुरुआत ही गंभीर दार्शनिक मिजाज के साथ कुछ इस तरह होती है-

गगन के उस पार क्या, पाताल के इस पार क्या है?

क्या क्षितिज के पार? जग जिस पर थमा आधार क्या है?

दीप तारों के जलाकर कौन नित करता दिवाली?

चाँद - सूरज घूम किसकी आरती करते निराली?

चाहता है सिन्धु किस पर जल चढ़ाकर मुक्त होना?

चाहता है मेघ किसके चरण को अविराम धोना?

तिमिर - पलकें खोलकर प्राची दिशा से झाँकती है;

माँग में सिन्दूर दे ऊषा किसे नित ताकती है?

पवन पंखा झल रहा है, गीत कोयल गा रही है।

कौन है? किसमें निरन्तर जग - विभूति समा रही है?

तूलिका से कौन रँग देता तितलियों के परों को?

कौन फूलों के वसन को, कौन रवि - शशि के करों को?

कौन निर्माता? कहाँ है? नाम क्या है? धाम क्या है?

आदि क्या निर्माण का है? अन्त का परिणाम क्या है?

खोजता वन - वन तिमिर का ब्रह्म पर पर्दा लगाकर।

ढूँढ़ता है अन्ध मानव ज्योति अपने में छिपाकर॥

बावला उन्मत्त जग से पूछता अपना ठिकाना।

घूम अगणित बार आया, आज तक जग को न जाना॥

श्याम नारायण पांडेय की इस कृति जौहर की तर्ज पर उस समय के उदभट आशु कवि एवं हास्यावतार चोंच जी ने उतने ही अध्यायों, उतनी ही पंक्तियों का पैरोडी महाकाव्य 'शौहर' लिखा। उसे भी मंचों पर उन दिनो खूब सुना जाता था। दुखद रहा कि चोंच जी की एक छात्र के हमले में कुछ माह बाद जान चली गई थी। कवि सम्मेलन के मंचों पर जब जौहर का युद्ध वर्णन पांडेय जी के स्वर में गूंजता था, लगता मानो चारो दिशाएं थरथरा उठी हैं-

भीषण तोपों के आरव से परदे फटते थे कानों के।

सुन – सुन मारू बाजों के रव तनते थे वक्ष जवानों के॥

जग काँप रहा था बार – बार अरि के निर्दय हथियारों से।

थल हाँफ रहा था बार – बार हय – गज – गर्जन हुंकारों से।

भू भगी जा रही थी नभ पर, भय से वैरी - तलवारों के।

नभ छिपा जा रहा था रज में, डर से अरि - क्रूर - कटारों के॥

कोलाहल - हुंकृति बार – बार आई वीरों के कानों में।

बापा रावल की तलवारें बंदी रह सकीं न म्यानों में॥

घुड़सारों से घोड़े निकले, हथसारों से हाथी निकले।

प्राणों पर खेल कृपाण लिए गढ़ से सैनिक साथी निकले॥

बल अरि का ले काले कुंतल विकराल ढाल ढाले निकले।

वैरी – वर छीने बरछी ने, वैरी – भा ले भाले निकले॥

हय पाँख लगाकर उड़ा दिए नभ पर सामंत सवारों ने।

जंगी गज बढ़ा दिए आगे अंकुश के कठिन प्रहारों ने॥

फिर कोलाहल के बीच तुरत खुल गया किले का सिंहद्वार।

हुं हुं कर निकल पड़े योधा, धाए ले – ले कुंतल कटार॥

बोले जय हर हर ब्याली की, बोले जय काल कपाली की।

बोले जय गढ़ की काली की, बोले जय खप्परवाली की॥

खर करवालों की जय बोले, दुर्जय ढालों की जय बोले,

खंजर - फालों की जय बोले, बरछे - भालों की जय बोले॥

बज उठी भयंकर रण - भेरी, सावन - घन - से धौंसे गाजे।

बाजे तड़ - तड़ रण के डंके, घन घनन घनन मारू बाजे॥

पलकों में बलती चिनगारी, कर में नंगी करवाल लिए।

वैरी - सेना पर टूट पड़े, हर - ताण्डव के स्वर - ताल लिए॥

श्याम नारायण पाण्डेय वीर रस के सुविख्यात हिन्दी कवि ही नहीं अपितु अपनी ओजस्वी वाणी में वीर रस काव्य के अनन्यतम प्रस्तोता भी थे। महाकाव्य 'जौहर' उन्होंने यह महाकाव्य चित्तौड की महारानी पद्मिनी के वीरांगना चरित्र को चित्रित करने के उद्देश्य को लेकर लिखा था। हल्दीघाटी के नाम से विख्यात राजस्थान की इस ऐतिहासिक वीर भूमि के लोकप्रिय नाम पर लिखे गये हल्दीघाटी महाकाव्य पर उनको उस समय का सर्वश्रेष्ठ सम्मान देव पुरस्कार प्राप्त हुआ था। 

अपनी ओजस्वी वाणी के कारण वह कवि सम्मेलन के मंचों पर अत्यधिक लोकप्रिय हुए। उनकी आवाज मरते दम तक चौरासी वर्ष की आयु में भी वैसी ही कड़कदार और प्रभावशाली बनी रही। 'जौहर' उनका द्वितीय महाकाव्य है। यह प्रबन्ध काव्य चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी को कथाधार बनाकर रचा गया। इसमें वीर रस के साथ करुण रस का भी गम्भीर पुट है। 'जौहर' की कहानी राजस्थान के इतिहास के लोमहर्षक आत्म-बलिदान की ज्वलंत कथा है। उत्साह और करुणा, शौर्य और विवशता, रूप और नश्वरता, भोग और आत्म-सम्मान के भावों के प्रवाह काव्य को हर्ष और विषाद की अनोखी गहनता प्रदान करते हैं। 

'जौहर' में कवि ने एक मौलिक वीर-रस शैली का उद्घाटन किया। छन्दों में 'हल्दी घाटी' से अधिक वेग एवं भावानुकूल गति है। डोले का वर्णन एवं चिता-वर्णन की चिनगारियाँ अत्यंत प्रभावभूर्ण एवं मर्मस्पर्शी हैं। इस महाकाव्य को ही पांडेय जी अपना श्रेष्ठ महाकाव्य मानते थे, यद्यपि उन्हें ज्यादा प्रसिद्धि 'हल्दीघाटी' से मिली। 'जौहर' को पढ़ने से इतिहास और शौर्य का ही सुख नहीं मिलता, साहित्य में गोते लगाने के लिए भी यह ऐस अदभुत महाकाव्य है, जिसमें अनायास डूबते चले जाइए। महाकाव्य में वर्णित जरा दरबार का एक चित्रण देखिए-

आन पर जो मौत से मैदान लें, गोलियों के लक्ष्य पर उर तान लें।

वीरसू चित्तौड़ गढ़ के वक्ष पर जुट गए वे शत्रु के जो प्राण लें॥

म्यान में तलवार, मूँछें थी खड़ी, दाढ़ियों के भाग दो ऐंठे हुए।

ज्योति आँखों में कटारी कमर में, इस तरह सब वीर थे बैठे हुए॥

फूल जिनके महकते महमह मधुर सुघर गुलदस्ते रखे थे लाल के।

मणीरतन की ज्योति भी क्या ज्योति थी विहस मिल मिल रंग में करवाल के॥

चित्र वीरों के लटकते थे कहीं, वीर प्रतिबिंबित कहीं तलवार में।

युद्ध की चित्रावली दीवाल पर, वीरता थी खेलती दरबार में॥

बरछियों की तीव्र नोकों पर कहीं शत्रुओं के शीश लटकाए गए।

बैरियों के हृदय में भाले घुसा सामने महिपाल के लाए गए॥

कलित कोनों में रखी थीं मूर्त्तियाँ, जो बनी थीं लाल मूँगों की अमर।

रौद्र उनके वदन पर था राजता, हाथ में तलवार चाँदी की प्रखर॥

खिल रहे थे नील परदे द्वार पर, मोतियों की झालरों से बन सुघर।

डाल पर गुलचाँदनी के फूल हों, या अमित तारों भरे निशि के प्रहर॥ 

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