मैं, मेरा बचपन और रिस्ट वॉच...
जहां तक हमारी बात है तो वैसे तो कई चीजें हैं, जिन्हें शौक की गिनती में रखा जा सकता है. लेकिन कुछ दिल के बेहद करीब शौकों में से एक है रिस्ट वॉच का शौक.
हर शख्स को किसी न किसी चीज का शौक होता ही है. शौक मतलब वो बिजली से लगने वाला झटका या सदमा नहीं जनाब. शौक मतलब दिलचस्पी..ऐसा कोई इंसान नहीं, जिसे किसी एक चीज का भी शौक न हो. हर किसी की जिंदगी में कम से कम एक चीज तो ऐसी होती है, जिसे देखकर या जिसके बारे में सोचने भर से उसकी आंखों में चमक आ जाती है. जिसके लिए वह कभी-कभी फिजूलखर्ची भी कर लेता है क्योंकि शौक पूरा होने पर दिल को एक अलग सुकून मिलता है. अब ऐसा भी नहीं है कि शौक किसी एक ही चीज का हो. एक से ज्यादा चीजों के भी हो सकते हैं. फिर चाहे शौक खेल का हो, किताबों का हो, खाने-पीने का हो, घूमने-फिरने का हो, फिल्में देखने का हो वगैरह-वगैरह...
जहां तक हमारी बात है तो वैसे तो कई चीजें हैं, जिन्हें शौक की गिनती में रखा जा सकता है. लेकिन कुछ दिल के बेहद करीब शौकों में से एक है रिस्ट वॉच (Wrist Watch) यानी कलाई घड़ी का शौक. रिस्ट वॉच इस कदर अजीज है कि उसके बिना बाहर जाना ऐसा लगता है कि मानो अभी पूरा तैयार नहीं हुए हैं. भले ही उससे टाइम उतना न देखें लेकिन उसे पहनना जरूरी है. लगता है कि हां, हम भी कुछ हैं. कॉन्फिडेंस बढ़ जाता है. उसके बिना पर्सनैलिटी अधूरी सी लगती है. इसीलिए कोई और एक्सेसरी भले ही पास हो न हो, फर्क नहीं पड़ता. बस एक रिस्ट वॉच जरूर हो.
यूं पड़ी इस शौक की नींव
रिस्ट वॉच का यह शौक ताजा-ताजा नहीं जन्मा है, बल्कि सालों पुराना है. बचपन से है. घड़ी एक इंपोर्टेंट चीज है, यह हमें वक्त बताती है...यह तो हमें बताया गया था. लेकिन क्या इसे पहनना बेहद जरूरी है? याद नहीं कि यह बात हमें किसी ने सिखाई हो, लेकिन फिर भी न जाने कैसे जेहन में यह बात घर कर गई कि घड़ी, पर्सनैलिटी में चार चांद लगाती है. इस शौक की शुरुआत हमारे घर से ही हुई. जब से होश संभाला, अपनी मां और नानाजी (मां के पिता) के पास रिस्ट वॉच देखी. दोनों के ही पास HMT की घड़ी हुआ करती थी, चाबी वाली.
पहले बात करते हैं नानाजी की क्योंकि वह मां से बड़े हैं. नानाजी रिस्ट वॉच रोज नहीं पहनते थे. शादी, बर्थडे पार्टी, किसी खास इंसान से मिलने जाना, किसी महत्वपूर्ण जगह पर जाना, लंबे सफर पर जाना, अक्सर ऐसे ही मौकों पर वह अपनी घड़ी पहनते थे. इसलिए उनकी घड़ी ज्यादातर अलमारी में अपने बॉक्स में ही रहती थी. घड़ी न भी पहननी हो तो भी नानाजी वक्त-वक्त पर उसे अलमारी में से निकालकर देखते थे कि कहीं वह बंद तो नहीं. अगर घड़ी बंद होती थी तो उसमें चाबी भरकर, उसके चालू होने के बाद वापस उसके बॉक्स में रख देते.
नानाजी की घड़ी बड़ी और हैवी थी, जैसी कि ज्यादातर मेन्स वॉच होती हैं. कभी-कभी हम बच्चों की मनुहार या बालहठ पर नानाजी अपनी घड़ी कुछ पलों के लिए हमारे हाथ पर बांध देते. हमारी कलाई पतली सी और घड़ी बड़ी सी, ढीलीढाली...लेकिन फिर भी अच्छा लगता, मानो हम कोई बड़े अफसर, प्रोफेसर टाइप बन गए हों. नानाजी नहीं रहे, लेकिन उनकी वह घड़ी आज भी घर की अलमारी में उसके बॉक्स में मौजूद है...
मां की घड़ी, जैसे कि हमारी अपनी...
अब बात करते हैं मां की घड़ी की. हमारी मां रिटायर्ड टीचर हैं और टीचर के लिए घड़ी तो इंपोर्टेंट होती ही है. इसलिए अपनी 35 सालों की सर्विस में वह स्कूल, घड़ी पहनकर ही जातीं. जिस किसी दिन वह घड़ी घर पर भूल जातीं, तो थोड़ा सा अधूरापन उन्हें भी लगता. इसलिए बचपन से लेकर उनके रिटायर होने तक, जब कभी देखते कि मां स्कूल जाते वक्त अपनी घड़ी घर पर भूले जा रही हैं तो झट से याद दिला देते. और इसलिए भी कि घड़ी पर्सनैलिटी में चार चांद लगाती है, जैसा कि बता चुके हैं कि हमारे दिल में छप चुका था. घड़ी मम्मी पहनती थीं और हम ऐसे इतराते थे, मानो हमने ही वह पहन रखी है. घड़ी के बिना मम्मी का स्कूल, बाजार या फंक्शन में जाना, हमें इनकंप्लीट फील करा जाता. कभी गाहे-बगाहे या कभी जानबूझकर मां की रखी हुई घड़ी पर नजर डाल लेते थे कि कहीं चाबी खत्म तो नहीं हो गई. अगर खत्म हो जाती तो चाबी भर दी जाती.
जैसे-जैसे बड़े हुए, रिस्ट वॉच की तरफ झुकाव बढ़ता ही गया. पहले मां, नानाजी के पास थी, मौसी घर आतीं तो उनकी भी घड़ी मम्मी की घड़ी के पास जगह बना लेती. फिर दीदी के टीनएजर होने के बाद उनके पास भी आ गई, मौसी के बच्चों के पास भी. घर के अलावा कभी दोस्तों के पास दिख जाती, स्कूल के टीचर्स के पास, कभी आसपड़ोस के बच्चों के पास, कभी कुछ और रिश्तेदारों और उनके बच्चों के पास, दुकानदारों के पास...
हमारे पास कब आई
अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर हमारी कलाई पर घड़ी कब आई. तो वैसे तो बच्चों वाली डिजिटल वॉच बचपन में दिलवाई गई थी. लेकिन प्रॉपर तरीके से रिस्ट वॉच पहनना शायद 12 वर्ष की उम्र से शुरू किया. उस वक्त 8वीं क्लास में थे और चाचाजी, स्पेशली हमारे लिए एक घड़ी लेकर आए थे. तब से अब तक रिस्ट वॉच पहन रहे हैं. जब 10वीं क्लास (Board Exam) में थे तो नानाजी ने कहा था कि अगर 60 प्रतिशत से ज्यादा मार्क्स (First Division) लाईं तो तुम्हें 500 रुपये दूंगा, घड़ी के लिए. मार्क्स तो 60 प्रतिशत से ज्यादा आए लेकिन दुर्भाग्य से यह देखने के लिए नानाजी नहीं रहे. रिजल्ट आने से दो दिन पहले ही वह दुनिया को अलविदा कह गए. उनके जाने के बाद नानी ने उनका प्रॉमिस पूरा किया और 500 रुपये दिए, जिससे हमने दो घड़ियां (लोकल) खरीदीं.
'सारा आकाश' का जिक्र करना भी जरूरी
अब जब कलाई घड़ी गाथा लिख ही दी है तो यहां एक दिलचस्प किस्से का जिक्र करना जरूरी हो जाता है. बात हमारे ग्रेजुएशन के टाइम की है. हमारे साथ की एक लड़की के पास हिंदी लिटरेचर सब्जेक्ट था, जो हमारे पास नहीं था. एक दिन वह लड़की 'सारा आकाश' उपन्यास क्लास में लेकर आई. हिंदी के कहानी-किस्से पढ़ने और लिखने में रुचि थी ही, तो हमने उस लड़की से वह उपन्यास पढ़ने के लिए ले लिया. अब दिलचस्प बात यह रही कि उपन्यास की नायिका प्रभा हमेशा रिस्ट वॉच पहने रहती थी. यहां तक कि खाना बनाते वक्त भी. उपन्यास की इस बात ने हमें यकीन दिलाया कि हमारा रिस्ट वॉच प्रेम कहीं से भी गलत नहीं है.
साल गुजरते रहे, घड़ियां बदलती रहीं. लोकल हो या फिर ब्रांडेड...एक रिस्ट वॉच तो हमेशा रही है. अब जब खुद कमा रहे हैं तो इस शौक को, अपने पास मौजूद रिस्ट वॉच की गिनती में इजाफा करके (बजट के अंदर रहते हुए) पूरा किया जा रहा है. दिल में एक तमन्ना है कि अमीरों की तरह हमारी भी एक ऐसी ड्रॉअर हो, जिसमें कई रिस्ट वॉच हों और हम अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग घड़ी हाथ में बांधे हुए दिखें. अब जब इतना कुछ बता दिया है तो यह भी बता दें कि केवल एनालॉग घड़ी ही पसंद हैं. जिन्हें नहीं पता है, वह जान लें कि एनालॉग यानी सुइयों वाली घड़ी. एनालॉग वॉच इसलिए क्योंकि वही घड़ी वाला फील देती है. डिजिटल या स्मार्ट वॉच में वह फील कहां...