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क्या हम यौन शोषण पर सार्वजनिक बहस के लिए तैयार हैं?

दिल्‍ली महिला आयोग की अध्‍यक्ष स्‍वाति मालीवाल द्वारा अपने पिता पर लगाए गए यौन उत्‍पीड़न के आरोपों के बाद खड़ी हुई सारी बहस इस गंभीर समस्‍या के प्रति सार्थक हस्‍तक्षेप से बहुत दूर है.

क्या हम यौन शोषण पर सार्वजनिक बहस के लिए तैयार हैं?

Tuesday March 14, 2023 , 9 min Read

“मैं जब छोटी थी तो मेरे पिता ने मेरा यौन उत्‍पीड़न किया था. पिता मुझे और मेरी मां को मारते थे. मैं बचने के लिए पलंग के नीचे छिप जाती थी. वो चोटी पकड़कर मेरा सिर दीवार पर मारते और खून बहने लगता. यह सब चौथी कक्षा तक होता रहा. फिर हमने (स्‍वाति और उनकी मां ने) वो घर छोड़ दिया.”

यह कहना है दिल्‍ली महिला आयोग की अध्‍यक्ष 39 वर्षीय स्‍वाति मालीवाल का. शनिवार को एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान उन्‍होंने भरे मंच से यह बात कही. उसके बाद से ही इस बयान को लेकर सोशल मीडिया पर घमासान मचा हुआ है. बड़े पैमाने पर ट्विटर पर उनके पुराने ट्वीट्स के स्‍क्रीन शॉट शेयर किए जा रहे हैं, जिसमें उन्‍होंने खुद को एक आर्मी वेटरन की बेटी बताते हुए ऐसी बातें लिखी हैं, जिससे उनके पिता और उनके बचपन की एक भली छवि बनती है. जैसेकि यह कि “मैं एक फौजी की बेटी हूं... मुझे अपने पिता पर गर्व है.”

इस वक्‍त स्‍वाति मालीवाल पर उठ रही सवालिया उंगलियां उन्‍हें झूठा, दोगला साबित करने पर तुली हैं. पहले पिता पर गर्व था और अब वह यौन शोषण करने वाले हो गए.

इसमें से कौन सी बात सच है और कौन सी झूठ. या दोनों ही सच.

इस मसले पर भीड़ वैसे ही रिएक्‍ट कर रही है, जैसा भीड़ का मनोविज्ञान होता है. जैसा पुलिस और न्‍याय व्‍यवस्‍था का होता है. जैसा टीवी चैनलों की बहसों का होता है. काला या सफेद. इस पार या उस पार. बीच के किसी ग्रे के लिए वहां कोई जगह नहीं.

ये तो सियासी दांव-पेंच हैं. विरोधियों को पटखनी देने, अपनी कुर्सियां बचाने के लिए फेंके गए पासे, बदले गए पहलू, दिए गए भाषण और लिए गए पक्ष. इन सबका मनुष्‍य होने की शाश्‍वत जटिलता से कोई रिश्‍ता नहीं. इसलिए मैं उस बहस में जाऊंगी ही नहीं.

मैं एक दूसरे पहलू की पड़ताल करना चाहती हूं.

एक किताब है, “इन द रेल्‍म ऑफ हंगरी घोस्‍ट: क्‍लोज इंकाउंटर विद एडिक्‍शन.” इस किताब में डॉ. गाबोर माते ईस्ट साइड वैंकूवर में रहने वाली एक 32 साल की औरत के बारे में लिखते हैं, जो एडिक्‍शन का शिकार थी. बचपन में उसके साथ यौन शोषण हुआ, लेकिन उसकी सचेत स्‍मृति (कॉन्‍शस मैमोरी) में इस घटना की कोई याद नहीं. घर के माहौल में बहुत सारा अवसाद, अभाव और हिंसा थी. उसे याद था कि पिता मां को मारते थे, लेकिन उसे ये याद नहीं था कि उसे भी मार पड़ती थी.

बचपन की दुर्घटनाओं को पूरी तरह भुला चुकी बच्‍ची अपने वयस्‍क जीवन में डिप्रेशन, एंग्‍जायटी और एडिक्‍शन का शिकार ऐसी औरत बन गई, जिसका जीवन हिंसा, अब्‍यूसिव रिश्‍तों और नशे की लत का कभी न खत्‍म होने वाला सिलसिला था.

मरने की कगार पर पहुंचकर वो रीहैब सेंटर में लाई गई, जहां कई साल तक चली लंबी थैरपी, काउंसिलिंग और ट्रीटमेंट के दौरान उसे वो सारी बातें याद आनी शुरू हुईं, जो उसका सचेत मस्तिष्‍क अपने डेटाबेस से मिटा चुका था.

एक अमेरिकन डॉक्‍टर और स्‍कॉलर हैं डॉ. डैनियल एमिन. जैसे फोटोग्राफ मनुष्‍य के चेहरे को डॉक्‍यूमेंट करते हैं, एक्‍सरे हमारे शरीर के भीतरी हिस्‍सों का फोटोग्राफिक डॉक्‍यूमेंटेशन है, वैसे ही डॉ. एमिन पिछले 40 सालों से मनुष्‍यों के मस्तिष्‍क का फोटोग्राफिक (स्‍कैनिंग) डॉक्‍यूमेंटेशन कर रहे हैं. तकरीबन डेढ़ लाख मनुष्‍यों के दिमाग के फोटोग्राफिक रिकॉर्ड जमा करने और उन्‍हें पढ़ने के बाद उन्‍होंने पाया कि बचपन में अब्‍यूज और तकलीफदेह अनुभवों से गुजरे वयस्‍कों के मस्तिष्‍क का वो हिस्‍सा डैमेज हो चुका था, जो मैमोरी को रिकॉर्ड करता है.

ये साइंटिफिक स्‍टडी है.   

वैंकूवर के रीहैब सेंटर में आई उस लड़की को अपने वयस्‍क जीवन की दुर्घटनाएं याद थीं. उसने बताया कि जब वो 19 साल की थी तो कैसे उसके बॉयफ्रेंड ने उसके साथ रेप किया था. 24 साल की उम्र में भी किसी और ने उसका रेप किया. फिर 30 में भी, 32 में भी. लेकिन उसे ये याद नहीं था कि 4 साल की उम्र में उसके ड्रग एडिक्‍ट पिता ने उसके साथ क्‍या किया था. मां खुद गहरे अवसाद और हिंसा की शिकार थी, जो अपनी बच्‍ची को उसके पिता के उत्‍पीड़न और हिंसा से बचाने में मानसिक और शारीरिक रूप से अक्षम थी. बच्‍ची के आसपास उसे प्रोटेक्‍ट करने वाला कोई नहीं था. ऐसा भी कोई नहीं, जिसे वो अपनी परेशानी कह पाती.

डॉ. गाबोर माते लिखते हैं कि असुरक्षित महसूस करने पर हम तीन ही तरीकों से अपना बचाव करते हैं. या तो हम खुद को बचाने के लिए लड़ते हैं, या उस असुरक्षित जगह से भाग खड़े होते हैं (मनोविज्ञान की भाषा में इसे फाइट और फ्लाइट मोड कहते हैं) या किसी से मदद मांगते हैं.

अब आप कल्‍पना करिए उस छोटे बच्‍चे की, जो ये तीनों ही चीजें नहीं कर सकता. न अपने बचाव में लड़ सकता है, न भाग सकता है, न किसी की मदद मांग सकता है. ऐसे में उसे बचाने के लिए उसका अपना मस्तिष्‍क और पूरा इंटरनल बॉडी मैकेनिज्‍म सक्रिय हो जाता है. वो उस फीलिंग को, उस मैमोरी को दबा देता है, जिससे तकलीफ हो रही हो क्‍योंकि वो तकलीफ इतनी गहरी है कि कोई इंसान उसे लगातार महसूस करते, उसके साथ रहते हुए जीवित नहीं रह सकता.

बॉडी अपना काम करती है, जिसका काम है हमें बचाए रखना, जिंदा रखना, हर हाल में.

वो लड़की झूठ नहीं बोल रही थी. उसे याद ही नहीं था. दिमाग का वो हिस्‍सा डैमेज हो चुका था, कॉन्‍शस मैमोरी से उसे हमेशा के लिए मिटा दिया गया था.

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लेकिन जैसे कंप्‍यूटर में डिलिट होने के बाद भी कुछ डिलिट नहीं होता, वैसे ही सप्रेस कर दी गई मैमोरी भी दरअसल डिलिट नहीं होती. वह हमारे दिमाग में कहीं है. डिलिट तो कुछ भी नहीं होता. बचपन के अनुभव, अवचेतन में दबी स्‍मृतियां वयस्‍क जीवन में हमारी जिंदगी को, फैसलों को, अनुभवों को नियंत्रित कर रही होती हैं और हमें समझ भी नहीं आता कि ये जो हो रहा है हमारे साथ, वो क्‍यों हो रहा है.

बचपन में अब्‍यूज का शिकार हुए बच्‍चे वयस्‍क जीवन में भी अब्‍यूज के चक्र से निकल नहीं पाते. पुरानी घटनाएं नए रूपों में खुद को दोहराती रहती हैं और हम उसके सामने एक कठपुतली की तरह होते हैं, जिसका अपने दिमाग पर, फैसलों पर और जिंदगी पर कोई बस ही नहीं होता.    

................

डॉ. गाबोर माते और डॉ. डैनियन एमिन की साइंटिफिक फाइंडिंग्‍स को हम सब भी अपनी जीवन यात्रा की रौशनी में परख सकते हैं.

हम सबके पास अपने बचपन का एक सुंदर नरेटिव है. यह नरेटिव हर बार दुनिया को सिर्फ दिखाने के लिए नहीं होता. हम सचमुच यकीन कर रहे होते हैं कि बचपन की दुनिया सुंदर थी. सब हमें बहुत प्‍यार करते थे. हम बहुत खुश थे.  

हम जितनी आसानी से अपने वयस्‍क जीवन के बुरे अनुभवों के बारे में बात कर पाते हैं, उतनी आसानी से अपने बचपन को स्‍कैन कर पाना, देख पाना और दिखा पाना मुमकिन नहीं होता. हम झूठ नहीं बोल रहे होते. सच की हमें स्‍मृति ही नहीं है.

यहां यह कहने का आशय ये नहीं है कि सारी कहानियां, सारी जिंदगियां, सारे बचपन एक जैसे ही थे. बस इतना आशय है कि उस दुनिया के अंधेरे हमारी सचेत स्‍मृति से मिट चुके हैं. हमें याद नहीं कि अवचेतन में हम उन अंधेरों का कितना सारा बोझ लेकर अब भी घूम रहे हैं और हमें पता भी नहीं कि भीतर जो ये इतना अंधेरा, अकेलापन और अवसाद है, वो आया कहां से.

सबकुछ वहीं से आया है, वहीं से मिला है, जहां से हम आए.

हमारी सुंदर जिंदगी, सुंदर अतीत और सुंदर बचपन के इस नरेटिव की और वजहें भी है. हर बार सच स्‍मृति से मिट गया हो, जरूरी नहीं. बहुत बार बातें याद होने पर भी हम उन्‍हें याद नहीं करते. हम सुनाने के लिए अपने जीवन की एक सुंदर कहानी गढ़ते हैं. इसलिए नहीं कि हम झूठे और मक्‍कार हैं. इसलिए क्‍योंकि तकलीफदेह, बीमार, अवसादग्रस्‍त जड़ों की कहानी के साथ कोई जिंदा नहीं रह सकता. अपनी जड़ों को लेकर सुख, अभिमान महसूस करना मनुष्‍य की बेहद बुनियादी आंतरिक जरूरत है. सांस लेने की तरह बुनियादी जरूरत.

मनुष्‍य अपने वयस्‍क जीवन की सफलताओं, दुनियावी पद, पैसे, रुतबे से सुख नहीं पाता. न मानसिक और भावनात्‍मक रूप से स्‍वस्‍थ इंसान बनता है. अगर सुख की स्‍मृति उसकी जड़ों में नहीं है, उसके बचपन में, उसके परिवार में, उसके माता-पिता की स्‍मृतियों में, उनके जीवन में. अगर वह ऑर्गेनिक रूप से फैमिली हैरिटेज का हिस्‍सा नहीं है तो हम सांसारिक रूप से कितने भी सफल और समृद्ध हो जाएं, अपने भीतर अंधेरी गांठें लेकर चलते रहेंगे और हमें पता भी नहीं होगा कि ये बोझ हमारे अवचेतन मन-मस्तिष्‍क पर धरा हुआ है.

जो इंसान अपनी छह साल की बेटी को सेक्‍सुअली अब्‍यूज कर रहा है, उसे बेरहमी से पीट रहा है, वो दुनियावी तौर पर कितना भी सफल और समृद्ध क्‍यों न दिखता हो, उसका मस्तिष्‍क डैमेज हो चुका है. उसके अपने बचपन में बहुत सारा वॉयलेंस रहा है. वो अपने अवचेतन में उन अंधेरों के साथ जी रहा है, जिसका उसे कोई बोध नहीं.

बात किसी को महान या दैत्‍य साबित करने की नहीं है. न सच और झूठ का बहीखाता जमा करने की. बात समझने की है. बात सत्‍य के संधान की है; बात मनुष्‍य होने की तकलीफदेह, परतदार जटिलताओं की पड़ताल की है; बात उस लंबी यात्रा के सब पड़ावों को संवेदनशीलता, गहराई और वैज्ञानिक टूल्‍स के साथ देखने की है.

बात सिर्फ स्‍वाति मालीवाल के नहीं, खुद अपने सच और झूठ को देखने की भी है. बात अपनी यात्रा को परखने की है. अपने साथ ईमानदार होने की है.

और जब आप ये सब कर रहे होते हैं तो भीड़ का हिस्‍सा नहीं होते. जजमेंट की जल्‍दबाजी में नहीं होते. आप ठहरकर देखते हैं कि सच क्‍या है.

पितृसत्‍ता का तो यहां मैंने जिक्र ही नहीं किया, जिसमें यूं भी तकरीबन नामुमकिन सा है अपना सच कहना. ये मनोविज्ञान भी उसी मल्‍टी जनरेशनल ट्रॉमा का हिस्‍सा है, जहां सैकड़ों सालों से औरतों को सेक्‍सुअली अब्‍यूज किया जाता रहा और किसी औरत ने उस अब्‍यूज की कहानी नहीं सुनाई. हमारी माएं, नानियां, दादियां और उसके पहले की दसियों पी‍ढि़यों के सेक्‍सुअल अब्‍यूज की कभी न सुनाई गई कहानी भी उस जेनरेशनल मैमोरी का हिस्‍सा है.

यह कुचक्र अगर अब थोड़ा टूट रहा है, कोई अपने ही ट्रैप से बाहर निकलकर अपना सच कह रहा है तो उसका स्‍वागत करना चाहिए, न कि पुलिसिया पड़ताल.

लेकिन सवाल ये उठता है कि क्‍या एक कलेक्टिव समाज, संस्‍कृति और इंडीविजुअल के बतौर पर हम यौन शोषण पर गंभीर, ईमानदार और वैज्ञानिक बहस कहने के लिए तैयार हैं?