Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

क्रांतिकारी नज्मों के जोशीले शायर जोश मलीहाबादी की पुण्यतिथि पर विशेष... 

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

Thursday February 22, 2018 , 9 min Read

क्रांतिकारी नज्मों के जोशीले शायर जोश मलीहाबादी की आज (22 फरवरी) पुण्यतिथि है। भारत में जब तक बर्तानिया हुकूमत रही, जोश साहब तब तक उन्हें लानत-मलामत के साथ दुत्कारते, फटकारते रहे लेकिन देश का बंटवारा क्या हुआ, एक दिन उनके पाकिस्तान चले जाने की नौबत आ गई। फिर भी वह ताउम्र हिंदोस्तां को प्यार करते रहे, यही वजह रही कि पाकिस्तान में उनकी 'यादों की बारात' जब्त कर ली गई।

जोश मलिहाबादी

जोश मलिहाबादी


उन्नीस सौ पच्चीस के दशक में हैदराबाद की रियासत में उन्हें अनुवाद करते हुए कुछ दिन गुजारने पड़े। उनकी एक नज़्म, जो कि रियासदां के ख़िलाफ़ गई और उनको स्टेट से निष्कासित कर दिया गया। इसके तुरंत बाद जोश ने पत्रिका निकाली, जिसमें उन्होंने खुले तौर पर बर्तानिया हुकूमत की मुखालफत शुरू कर दी।

अपने शब्दों की आग से हर खासोआम के दिल को दहका देने वाले चोटी के शायर जोश मलीहाबादी का घर का नाम शब्बीर हसन खान है। बीसवीं शताब्दी के महान शायरों में से एक इस अजीम हस्ती को उनकी क्रांतिकारी नज्मों के कारण अंग्रेजों के जमाने का 'शायर-ए-इंकलाब' कहा जाता है। उस जमाने में लोग उनके शब्दों पर जुबान फेरते-फेरते जेल चले जाया करते थे। देश का बंटवारा क्या हुआ, एक दिन उनके पाकिस्तान चले जाने की नौबत आ गई। उनका सोचना था कि भारत एक हिन्दू बहुल देश है, जहाँ हिंदी भाषा को ज्यादा तवज्जो मिलेगी, न कि उर्दू को। उन्होंने करांची में अपना ठिकाना बनाया। मौलवी अब्दुल हक के साथ 'अंजुमन-ए-तरक़्क़ी-ए-उर्दू' के लिए काम करने लगे। फैज़ अहमद फैज़ और सय्यद फ़खरुद्दीन बल्ले से उनका बड़ा याराना रहा। पाकिस्तान में ही 22 फ़रवरी, 1982 को उनक इंतकाल हो गया-

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

अलविदा ऐ सरज़मीन-ए-सुबह-ए-खन्दां अलविदा

अलविदा ऐ किशवर-ए-शेर-ओ-शबिस्तां अलविदा

अलविदा ऐ जलवागाहे हुस्न-ए-जानां अलविदा

तेरे घर से एक ज़िन्दा लाश उठ जाने को है

आ गले मिल लें कि आवाज़-ए-जरस आने को है

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

हाय क्या-क्या नेमतें मिली थीं मुझ को बेबहा

यह खामोशी यह खुले मैदान यह ठन्डी हवा

वाए, यह जां बख्श गुस्ताहाए रंगीं फ़िज़ां

मर के भी इनको न भूलेगा दिल-ए-दर्द आशना

मस्त कोयल जब दकन की वादियों में गायेगी

यह सुबह की छांव बगुलों की बहुत याद आएगी

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

कल से कौन इस बाग़ को रंगीं बनाने आएगा

कौन फूलों की हंसी पर मुस्कुराने आएगा

कौन इस सब्ज़े को सोते से जगाने आएगा

कौन जागेगा क़मर के नाज़ उठाने के लिये

चांदनी रात को ज़ानू पर सुलाने के लिये

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

आम के बाग़ों में जब बरसात होगी पुरखरोश

मेरी फ़ुरक़त में लहू रोएगी चश्मे मय फ़रामोश

रस की बूंदें जब उड़ा देंगी गुलिस्तानों के होश

कुंज-ए-रंगीं में पुकारेंगी हवाएँ 'जोश जोश'

सुन के मेरा नाम मौसम ग़मज़दा हो जाएगा

एक महशर सा गुलिस्तां में बपा हो जाएगा

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

आ गले मिल लें खुदा हाफ़िज़ गुलिस्तान-ए-वतन

ऐ अमानीगंज के मैदान ऐ जान-ए-वतन

अलविदा ऐ लालाज़ार-ओ-सुम्बुलिस्तान-ए-वतन

अस्सलाम ऐ सोह्बत-ए-रंगीं-ए-यारान-ए-वतन

हश्र तक रहने न देना तुम दकन की खाक में

दफ़न करना अपने शाएर को वतन की खाक में

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

ऊँचे घराने में पैदा हुए नफासतपसंद जोश निजी जिंदगी में जितने साहसी, उतने ही भावुक थे- 'आसमां जागा है सर में और सीने में जमीं, तब मुझे महसूस होता है कि मैं कुछ भी नहीं।' बंटवारे के बावजूद वह 1958 तक भारत में ही रहे। वह ग़ज़लें और नज़्में तखल्लुस 'जोश' नाम से लिखते थे और अपने जन्म स्थान का नाम भी अपने तखल्लुस में जोड़ रखा था, जिससे उनका पूरा नाम बनता था जोश मलीहाबादी। उनका जन्म लखनऊ (उ.प्र.) की मलीहाबाद पंचायत क्षेत्र में हुआ था। पढ़ाई-लिखाई सेंट पीटर्स कॉलेज आगरा में हुई, फिर वरिष्ठ कैम्ब्रिज परीक्षा उत्तीर्ण की।

अरबी-फ़ारसी का भी अध्ययन करते रहे। उस दौरान वह छह महीने गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में भी रहे। कहा जाता है कि जिन मुशायरों में मुल्ला लोगों की संख्या अधिक होती थी, उसमें वे चुन-चुनकर फटकार लगाने वाली नज्में पढ़ा करते थे- 'क्या सिर्फ मुसलमानों के प्यारे हैं हुसैन, चर्खे नौए बशर के तारे हैं हुसैन, इंसान को बेदार तो हो लेने दो, हर कौम पुकारेगी हमारे है हुसैन।' कहते हैं न कि जैसा देश, वैसा भेष, कुछ उसी अंदाज में सरकारी महफिलों देशभक्ति की नज्में तो औरतों के जमावड़े में जवानी के तराने सुनाने लगते। कोई सुने, न सुने, वह अपनी टेर से टस से मस नहीं होते थे अपनी पूरी रचना सुनाए बगैर -

क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने की

के अब हवस है अजल को गले लगाने की

वहाँ से है मेरी हिम्मत की इब्तिदा अल्लाह

जो इंतिहा है तेरे सब्र आज़माने की

फूँका हुआ है मेरे आशियाँ का हर तिनका

फ़लक को ख़ू है तो है बिजलियाँ गिराने की

हज़ार बार हुई गो मआलेगुल से दोचार

कली से ख़ू न गई फिर भी मुस्कुराने की

मेरे ग़ुरूर के माथे पे आ चली है शिकन

बदल रही है तो बदले हवा ज़माने की

चिराग़-ए-दैर-ओ-हरम कब के बुझ गए ऐ जोश

हनोज़ शम्मा है रोशन शराबख़ाने की

उन्नीस सौ पच्चीस के दशक में हैदराबाद की रियासत में उन्हें अनुवाद करते हुए कुछ दिन गुजारने पड़े। उनकी एक नज़्म, जो कि रियासदां के ख़िलाफ़ गई और उनको स्टेट से निष्कासित कर दिया गया। इसके तुरंत बाद जोश ने पत्रिका निकाली, जिसमें उन्होंने खुले तौर पर बर्तानिया हुकूमत की मुखालफत शुरू कर दी। उसी दौरान वह जवाहरलाल नेहरू के करीबी बने। बड़े रोबदाब के अंदाज वाले जोश साहब को गलत शब्दों से शख्त चिढ़ होती थी। कहा जाता है कि तल्खी तो उनमें बचपन से ही कूट-कूट कर भरी थी। बचपन के दिनो में अक्सर बच्चों को पीट दिया करते थे। ऐसा करने में उन्हें बड़ा मजा आता था। बड़े हुए तो रूढ़ियों, कुरीतियों से जेहाद करने लगे। अंग्रेजों की ताजदारी पर बरस पड़े। विद्रोही नज्में लिखने लगे। मशहूर भी कुछ इस कदर हुए कि लोग उनकी किताबें चुरा-चुराकर पढ़ने लगे -

मज़हबी इख़लाक़ के जज़्बे को ठुकराता है जो

आदमी को आदमी का गोश्‍त खिलवाता है जो

फर्ज़ भी कर लूँ कि हिन्‍दू हिन्‍द की रुसवाई है

लेकिन इसको क्‍या करूँ फिर भी वो मेरा भाई है

बाज़ आया मैं तो ऐसे मज़हबी ताऊन से

भाइयों का हाथ तर हो भाइयों के ख़ून से

तेरे लब पर है इराक़ो-शामो-मिस्रो-रोमो-चीं

लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाकिफ़ नहीं

सबसे पहले मर्द बन हिन्‍दोस्‍ताँ के वास्‍ते

हिन्‍द जाग उट्ठे तो फिर सारे जहाँ के वास्‍ते

जोश साहब उर्दू व्याकरण के भी माने हुए अदीब थे। उर्दू साहित्य पर उनका गहरा अधिपत्य था। उनका पहला संग्रह सन 1921 में प्रकाशित हुआ, जिसमें शोला-ओ-शबनम, जुनून-ओ-हिकमत, फ़िक्र-ओ-निशात, सुंबल-ओ-सलासल, हर्फ़-ओ-हिकायत, सरोद-ओ-खरोश और इरफ़ानियत-ए-जोश आदि उल्लेखनीय रचनाएं रहीं। उन्होंने 'शालीमार' फिल्म के लिए गीत और 'यादों की बारात' नाम से आत्मकथा भी लिखी है। आत्मकथा की तल्खियों ने भी उन्हें काफी शोहरतें दीं, वजह ये रही कि उसमें पाकिस्तान के नेताओं की खिंचाई और हिंदुस्तान के नेताओं की शाबासियां लिखी गई थीं, नतीजा ये रहा कि पाकिस्तान में 'यादों की बारात' जब्द कर ली गई।

सन 1954 में भारत सरकार ने उनको पद्म भूषण से नवाजा था। नेहरू जी ने उनको एक वक्त में 'आजकल' के उर्दू संस्करण का सम्पादक बना दिया था लेकिन 1955 में कुछ पाकिस्तानी नेताओं के कहने में आकर वे करांची चले गये लेकिन वहां वे कत्तई खुश नहीं रहे। इधर, भारत में भी उन दिनो उनकी मुखालफत होने लगी थी। मीर और .गालिब के बाद जिन शायरों ने उर्दू साहित्य को समृद्ध किया, जोश मलीहाबादी उनमें से एक हैं। उन्होंने अपनी गज़लों, नज्मों और मर्सियों से खूब शोहरत कमाई -

लोग कहते हैं कि मैं हूँ शायरे जादू बयाँ।

सदर-ए- मआनी, दावर-ओ-अल्फाज़, अमीरे-शायरां।

और ख़ुद मेरा भी कल तक, ख़ैर से था ये ख़्याल।

शायरी के फ़न में हूँ, मिनजुमला -ए-अहले -कमाल।

लेकिन अब आई हैं जब इक गूना मुझमें पुख़्तगी।

जेहन के आईने पे काँपा हैं अक्स-ए-आगही।

आसमाँ जागा है सर में और सीने में जमीं।

तब मुझे महसूस होता है कि मैं कुछ भी नहीं ।

जिहल की मंज़िल में था मुझको गुरूर-ए-आगही।

इतनी 'लामहदूद’ दुनिया और मेरी शायरी।

'जुल्फे-हस्ती’ और इतने बेनिहायत पेचो-ख़म।

उड़ गया 'रंगों तअल्ली’ खुल गया अपना भरम ।

मेरे शेरों में फ़क़त एक तायराना रंग है ।

कुछ सियासी रंग है कुछ आशिकाना रंग है ।

कुछ 'मनाज़िर' कुछ 'मबाहिस’ कुछ 'मसाइल' कुछ ख़याल ।

एक उचटता सा जमाल एक 'सर-ब-जानू' सा ख़याल ।

मेरे 'कस्त्रे-शेर' में 'गोगाए-फिक्रे-नातमाम'।

इक दर्द अंगेज दरमाँ इक शिकस्त आमादा ज़ाम।

गाह सोजे चश्मे -अबरू, गाह सोजे नाओ नोश।

गाह खलवत की ख़ामोशी, गाह जलवत का खरोश।

चहचहे कुछ मौसमों के, जमजमे कुछ ज़ाम के ।

देरे-दिल में चंद मुखड़े 'मरमरी असनाम' के ।

चंद जुल्फ़ों की सियाही ,चंद रुखसारों की आब ।

गाह 'हर्फ़े बेनवाई' गाह शोरे इन्क़लाब ।

गाह मरने के अजायम गाह जीने की उमंग ।

यही ओछी-सी बातें बस यही सतही से रंग ।

बेख़बर था मैं कि दुनिया राज़ अन्दर राज़ है ।

वो भी गहरी ख़ामोशी है जिसका नाम आवाज़ है ।

यह सुहाना बोसतां सर्वो गुलो शमशाद का ।

इक पल भर का खिलंदरापन है आबो-बाद का ।

'इब्तिदा' और 'इंतिहा' का इल्म नज़रों से निहाँ ।

टिमटिमाता सा दिया दो जुल्मतों के दर्मियाँ ।

'अंजुमन' में 'तखलिए' हैं 'तखलियों' में 'अंजुमन' ।

हर 'शिकन' में इक 'खिंचावट', हर 'खिंचावट ' में 'शिकन' ।

हर 'गुमाँ' में इक 'यकीं' सा हर 'यकीं ' में सौ 'गुमाँ ' ।

नाखुने-तदबीर में भी इक गुत्थी बे-अमां।

एक-एक 'गोशे' से पैदा 'बुसअते-कोनो-मकाँ'।

एक-एक 'खोशे' में पिन्हाँ 'सद-बहारे-जाविदाँ'

'बर्क़' की लहरों की बुसअत अल-हफीजो-अल-अमां'।

और मैं सिर्फ़ एक कोंदे की लपक का 'राजदाँ'।

'राजदाँ' 'क्या मदहख्वां' और 'मदहख्वां' भी 'कमसवाद'।

'नाबलद-नादान-नावाकिफ-नादीदः -नामुराद’।

क्यों न फिर समझूँ 'सुबक' अपने सुखन के रंग को ।

नुत्क ने अलमास के बदले तराशा संग को ।

" लैला-ए-आफाक" पलटती ही रही पैहम निक़ाब ।

और यहाँ 'औरत' 'मनाज़िर' 'इश्क' ' सहबा' 'इन्कलाब' ।

पा रहा हूँ शायद अब इस 'तीरह' हल्क़े से निज़ात ।

क्योंकि अब 'पेश-ए-नज़र' हैं 'उक्दा हाये-कायनात'।

ये भिंची उलझी जमीं ये 'पेच-दर-पेच' आसमाँ ।

'अल-अमानो-अल-अमानो-अल-अमानो-अल-अमां'।

इक 'नफ़स' का तार और ये 'शोरे -उम्रे- जाविदाँ।

इक कड़ी और उसमें जंजीरों के इतने कारवाँ ।

एक-एक लम्हे में इतने 'कारवाने -इन्कलाब'

एक-एक जर्रे में इतने 'माहताब-ओ-आफ़ताब'।

इक 'सदा' और उसमें ये लाखों हवाई दायरे।

जिसके 'शोबों' को 'अगर चुनले तो दुनिया गूंज उठे ।

एक 'बूँद' और 'हफ्त -कुलज़म' के हिला देने का जोश ।

एक गूंगा ख्वाब और ताबीर का इतना खरोश।

इक 'कली' और उसमें सदियों की 'मताअ-ए- रंगों-बू'।

सिर्फ एक 'लम्हे' की राग में और 'करनों' का लहू।

हर कदम पर 'नस्ब' और 'असरार' के इतने खयाम।

और इस मंजिल में मेरी शायरी मेरा कलाम ।

जिसमें 'राजे-आस्मां ' है और ना 'असरारे-जमीं।

एक 'खस' एक 'दाना' एक 'जौ' एक 'ज़र्रा' भी नहीं ।

'नौ-ए-इंसानी' को जब मिल जाएगी 'रफ़्तार-ए-नूर'

'शायरे-आज़म' का तब होगा कहीं जाकर 'ज़हूर'

'खाक' से फूटेगी जब 'उम्रो-अबद' की रौशनी ।

झाड़ देगी मौत को दामन से जिस दिन जिंदगी ।

जब हमारी जूतियों की 'गर्द' होगी 'कहकशां'।

तब जनेगी 'नस्ले-आदम' 'शायरे-जादू-बयाँ’।

'बज़्म' में 'कामिल' ना 'फन्ने-शेर ' में 'यकता' हूँ में ।

और अगर कुछ हूँ तो ' नकीब-ए-शायरे-फ़रदां' हूँ मैं।

यह भी पढ़ें: वैज्ञानिक ही नहीं, कवि भी थे शांतिस्वरूप भटनागर