उन्होंने इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ दी और बन गए टैक्सी ड्राईवर
अपनों के दर्द का एहसास कर दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाना आसान नहीं होता है। वह भी उस हालात में जब दर्द की हद से गुजर कर किसी का बेहद खास इस दुनिया को अलविदा कह गया हो। ऐसा सिर्फ कोई बड़े दिलवाला ही कर सकता हैं, जो जिंदगी के बुरे दौर और गर्दिशों के आगे घुटने टेक देने के बजाए मुश्किल हालात को ही अपने कदमों तले रौंद डालता है। अपनी पत्नी का कष्ट देखकर एक बड़े पहाड़ को काटकर गांव वालों के लिए सार्वजनिक रास्ता बनाने वाले बिहार के माउंटेन मैन दशरथ माझी के बारे में आपने जरूर सुना होगा। पत्नी के प्रति आगाध प्रेम और अनुराग ने मांझी को दूसरों की पीड़ा को महसूस कर उसे दूर करने के लिए प्रेरित किया था। मांझी एक बीते हुए कल की तरह है, जिसकी यादें और किस्से कहानी ही अब शेष हैं। लेकिन मांझी जैसा ही एक किरदार मायानगरी मुम्बई के अंधेरी में आज भी जिंदा-जावेद है। हालांकि उन्होंने किसी पहाड़ को काटकर रास्ता नहीं बनाया है, न ही किसी शहंशाह की माफिक अपनी बीवी की याद में कोई आलीशान ताजमहल खड़ा किया है। हां, लेकिन उन्होंने तकरीबन पिछले 30 सालों से हजारों लोगों की जिंदगी बचाने में मदद की है। वो अपनी टैक्सी से रात के सन्नाटे में दर्द की बैचेनी से कराहते मरीजों को अपनी टैक्सी से अस्पताल पहुंचा रहे हैं। वो भी निशुल्क और निस्वार्थ भाव से। पैसों के बदले वह किसी से दुआओं की उम्मीद भी नहीं रखते हैं, क्योंकि इस काम से मिला दिली सुकून ही उनके लिए सबसे बड़ा मुनाफा है। ऐसा वो सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि दर्द और मर्ज की शिददत उन्होंने कभी अपनी आंखों से देखा और उसे महसूस किया है। उससे भी दिलचस्प ये है कि उनका टैक्सी ड्राईवर होना कोई उसकी किस्मत का लिखा फैसला नहीं है, बल्कि इस पेशे को उन्होंने अपनी मर्जी से चुना है। वह भी एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर की नौकरी छोड़ कर। इंजीनियर से टैक्सी ड्राइवर बनने के पीछे की कहानी में छुपा है एक बेपनाह दर्द और किसी अपने की बिछड़ने की दारूण वेदना।
कभी अपनी खुशनसीबी पर करते थे रक्श
मुम्बई के अंधेरी में रहने वाले 11 भाषाओं के जानकार 74 वर्षीय विजय ठाकुर उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के एक संभ्रात परिवार से ताल्लुक रखते हैं। मथुरा शहर के एक सरकारी कॉलेज से उन्होंने वर्ष 1967 में पॉलिटेकनिक किया था। पढ़ाई पूरी करने के बाद रोज़ी-रोटी की तलाश में वह मुम्बई आ गए थे। यहां एल एण्ड टी कंपनी में उन्हें नौकरी मिली। लगभग 18 सालों तक उन्होंने उस कंपनी में अपनी सेवाएं दी। इसी बीच उनकी शादी हो गई और उनके दो बच्चे हुए। विजय ठाकुर की जिंदगी बड़े सुकून और आराम से चल रही थी। वह खुद की खुशनसीबी पर रक्श करते थे। उन्होंने जीवन में कभी किसी तरह का दु:ख नहीं देखा था। अपनी आगे की जिंदगी और भविष्य को लेकर उन्होंने हसीन सपने संजोए थे। लेकिन अचानक इसे किसी की नजर लग गई। विजय की जिंदगी ने अचानक वह करवट ले लिया, जिसमें दु:ख और पीड़ा थी। जिंदगी भर का दर्द था। पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया, फिर कुछ दिन बाद एक बेटे की मौत हो गई। जब उन्होंने खुद को संभाला तो उनके दूसरे बैंकर बेटे और बहु ने उनका साथ छोड़ दिया। आगे की जिंदगी जीने के लिए उन्होंने एक बच्ची गोद ले ली। अब उस बच्ची की परवरिश और गरीब मरीजों की देखभाल ही उनकी जिंदगी का मकसद है।
वह मनहूस रात... और एक इंजीनियर का टैक्सीवाला बन जाना
यह वाक्या सन 1984 का है। रात के लगभग ढाई बज रहे थे। विजय ठाकुर की पत्नी को अचानक प्रसव पीड़ा उठा। उन्हें पत्नी को अस्पताल पहुंचाने के लिए तत्काल एक टैक्सी की जरूरत थी। वह सड़क और असापास के टैक्सी स्टैंड में किराए पर टैक्सी लेने पहुंचे। टैक्सी में सो रहे एक-एक टैक्सी चालकों ने उस समय एक बीमार महिला को अस्पताल ले जाने से इंकार कर दिया। उधर विजय ठाकुर की पत्नी की पीड़ा लगातार बढ़ती जा रही थी, और वह टैक्सी चालकों के आगे गिड़गिड़ाते रहे। काफी देर बाद एक ड्राइवर अस्पताल चलने के लिए तैयार हुआ, लेकिन इसके लिए उसने मनमाना किराया वसूल किया। आज से 32 साल पहले उसे टैक्सी वाले ने 4 किमी का किराया 300 रुपया चार्ज किया था। विजय ठाकुर जब अपनी पत्नी को लेकर अस्पताल पहुंचे तबतक काफी देर हो चुकी थी। उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। डॉक्टरों ने कहा कि अगर समय पर मरीज को अस्पताल लाया गया होता तो शायद उसे बचाया जा सकता था।
हादसे के बाद छोड़ दी नौकरी
उस हादसे ने ठाकुर को अंदर तक तोड़ दिया था। पर्याप्त पैसा और समय रहते वह वह अपनी पत्नी-बच्चे को बचा नहीं पाए। इसकी वजह सिर्फ टैक्सी चालकों का वह गैरजिम्मेदारी रवैया था। मुश्किल हालात में फंसे एक इंसान के प्रति एक दूसरे इंसान के रवैये से वह बेहद आहत थे। उन्होंने इस मसले पर बहुत सोचा। अंत में निष्कर्ष ये निकला कि किसी सवारी या मरीज को अपने टैक्सी में बैठाना या न बैठाना ये टैक्सी वालों की मर्जी पर है। उसे जबरन सवारी बैठाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। ऐसा करने के लिए कोई कानून भी नही है। ठाकुर ने सोचा कि ये घटना सिर्फ उनके साथ ही हुई हो, शायद ऐसा नहीं है। टैक्सी वालों के कारण और लोग भी परेशान हुए होंगे या हो रहे होंगे। इसलिए उन्होंने खुद टैक्सी चलाने का फैसला किया। वह भी खासकर उन लोगों के लिए जिन्हें रात में बीमारी की हालत में अस्पताल जाने में परेशानी होती है। इसके पहले अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। नौकरी छोड़ने का कारण जानने के बाद उनके साथियों ने उन्हें बहुत समझाया लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी। नौकरी छोड़कर उन्होंने टैक्सी खरीदी और उसे चलाना शुरू कर दिया। तभी से वह रात के समय हर जरूरतमंद की जरूरत पूरी कर रहे हैं।
मरीज से नहीं लेते किराया
विजय ठाकुर कभी रात तो कभी दिन की पालियों में टैक्सी चलाते हैं। लेकिन मरीजों के लिए उनकी सेवाएं 24 घंटे उपलब्ध रहती है। मरीजों से वह कभी किराया नहीं लेते हैं। उन्होंने बकायदा अपनी टैक्सी के पीछे अपना मोबाइल नम्बर और संदेश लिखा है जिससे कोई भी उनके टैक्सी के लिए कभी भी फोन कर उन्हें बुला सकता है। वह बीमार लोगों को अपना कार्ड भी देते हैं ताकि वह दूसरे लोगों तक उनकी सेवाओं की जानकारी पहुंचा सके। ठाकुर कहते हैं,
"कमाई कितनी भी हो खर्चों के आगे वह हमेशा कम पड़ती है। फिलहाल मैं हर महीने 15 हजार रुपया तक कमा लेता हूं। अगर इंजीनियर होता तो अभी इससे कम से कम तीन गुणा ज्यादा पैसा कमाता। जीने के लिए पैसा कमाना है या कमाने के लिए जीना यह आपको तय करना है। गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा करके मुझे अंदर से खुशी मिलती है, जो कभी पैसे से नहीं खरीदी जा सकती है।"
बच्ची की बचाई जान
विजय ठाकुर एक घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं,
"एक बार एक कार दुर्घटना में एक महिला और एक बच्ची गंभीर रूप से घायल हो गई थी। दोनों को मैंने एक अस्पताल में पहुंचाया, जहां उस महिला की तो मौत हो गई लेकिन डॉक्टरों ने बच्ची को बचा लिया। इस हादसे के बाद उस महिला के पति जो एक बहुत बड़ा कारोबारी था, मेरा शुक्रिया अदा किया और मेरे सामने तिजोरी खोलकर रख दी कि जितनी रकम चाहिए आप ले लो, लेकिन मैंने ऐसा करने से इंकार कर दिया।"
एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि एक आग से जली महिला को सारे टैक्सी वाले ने अस्पताल ले जाने से इंकार कर दिया था, लेकिन उन्होंने उसे अस्पताल तक पहुंचाया, जिससे उसकी जान बचायी जा सकी। विजय सिर्फ मरीजों को अस्पताल ही नहीं पहुंचाते बल्कि वह लगातार उसके ठीक होने तक उसका हालचाल लेते रहते हैं। ऐसे में कई मरीज उनके परिचित बन गए हैं। वह मुम्बई में 2005 और 2008 में आए बाढ़ के दौरान भी लोगों की जमकर मदद की थी।
टैक्सी वाला कहलाने पर होती है गर्व की अनुभूति
विजय ठाकुर अबतक 500 से अधिक मरीजों को अस्पताल पहुंचा चुके हैं। इस समय उनकी आयु 74 वर्ष हो रही है। वह कहते हैं कि जब मुझे कोई टैक्सी वाला कहकर पुकारता है तो मुझे गर्व की अनुभूति होती है। ठाकुर को उनके काम के लिए आज देश ही नहीं बल्कि दुनिया के बाहर भी लोग जानते हैं। उन्हें फोन करते हैं और उनका हालचाल पूछते हैं। उनके काम की कई फिल्मी हस्तियों ने भी तारीफ की है। विजय ठाकुर अमिताभ बच्चन के साथ एक टीवी न्यूज चैनल पर अपना इंटरव्यू भी दे चुके हैं। कई अखबार और चैनलों ने उनकी नेक कारनामे की खबर छापी है।
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