Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
ADVERTISEMENT
Advertise with us

कठिन है छंद में अच्छी कविता लिखना

कविता आज और कल...

छंदमुक्त कविता के नाम पर पिछले वर्षों जो योजनाबद्ध अभियान चलाये गये हैं, उनसे असल काव्य का नुकसान ही हुआ है; तथापि छंदीय काव्य का प्रभाव यथावत है। इस अर्से में यह भी प्रमाणित हुआ है कि कविता वही जीवित रहेगी, जो गेय है। 

नरेश सक्सेना: फोटो साभार youtube

नरेश सक्सेना: फोटो साभार youtube


मुक्त कविता-कर्म से बुद्धि और कार्य साधक भावुकता का लक्ष्य तो पा लिया जा सकता है, लेकिन 'रूह' का नहीं। रूह तो छन्द के आँगन में ही उन्मुक्तता से धड़कती है और रूह को जो महज़ रूमानियत के दायरे में ही समझने, देखने-कहने के आदी हैं, वे इसपर भी अपनी बौद्धिक उदासीनता प्रकट करेंगे।

रचनाओं के प्रकाशन की स्थिति जैसी अब है, वैसी ही तब भी उदासीनता की रही। लेकिन गीत विधा की मृत्यु मानना और कहना उन लोगों के अपने विश्वास का अकाल था, जो 'अकवि' थे क्योंकि यही उनकी प्रतिभा और प्रवृत्ति के लिए सुविधाजनक था।

छंदयुक्त और मुक्तछंद कविताओं के बारे में प्रश्न-प्रतिप्रश्न के इस दौर पर हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि नरेश सक्सेना का कहना है कि "छंदमुक्त की शुरुआत निराला ने की थी। दुनिया की सारी भाषाओं में ये हुआ। जो आज भी छंद में अच्छा लिख सकते हैं, वे ज़रूर लिखें। मैं तो दोनों तरह से कोशिश करता हूँ। छंद में अच्छी कविताएं लिखना बहुत कठिन, लगभग असंभव। लय कविता का प्राण है, यह सही है।" सुपरिचित कवि गंगेश गुंजन का कहना है कि "बाबा (नागार्जुन जी) ने एक बार मुझे कहा था-'छंदमुक्त या मुक्तछंदीय अच्छी कविता भी वही लिख सकता है, जिसे छन्दोबद्ध लिखने का अभ्यास हो। स्वाभाविक ही उसके बाद मैं, इसे ज़िम्मेदार गंभीरता से लेने लगा। वैसे कविता भी तो अपने स्वरूप के अनुरूप ही अपने रचनाकार से साँचा भी ग्रहण करवाती है। छन्दोबद्ध या मुक्त लिखना भी अक्सर आपकी इच्छा पर शायद ही निर्भर है।" हमारे समय के श्रेष्ठ सिद्ध कवि नरेश जी अधिक स्पष्ट जानते हैं। शास्त्रीय गायन-वादन में राग-रागिनियों की 'अवतारणा' की जाती है। यह विलक्षण अवधारणा है।

नरेश कहते हैं, "जैसे प्राणप्रतिष्ठा की धारणा-परम्परा। इसी भाव से मैंने 'रूह' की बात की है। रूह हर जगह नहीं ठहर पाती। कोई भी कला-विधा (कविता या गीत तो और भी) 'आलोचना' के सम्मुख याचक बनकर नहीं जीती-मरती है। अपना वजूद सिद्ध करने के लिए रचनाकार को स्वयं महाप्राण बने रहना पड़ता है। जहां तक अपनी बात है, तो मैं प्रासंगिकता के संग अनवरत वह भी लिखता रहा। रचनाओं के प्रकाशन की स्थिति जैसी अब है, वैसी ही तब भी उदासीनता की रही। लेकिन गीत विधा की मृत्यु मानना और कहना उन लोगों के अपने विश्वास का अकाल था, जो 'अकवि' थे क्योंकि यही उनकी प्रतिभा और प्रवृत्ति के लिए सुविधाजनक था। मुक्त कविता-कर्म से बुद्धि और कार्य साधक भावुकता का लक्ष्य तो पा लिया जा सकता है, 'रूह' का नहीं। रूह तो छन्द के आँगन में ही उन्मुक्तता से धड़कती है। और रूह को जो महज़ रूमानियत के दायरे में ही समझने, देखने-कहने के आदी हैं, वे इस पर भी अपनी बौद्धिक उदासीनता प्रकट करेंगे। अंततः रचनाकार की अपनी प्रवृत्ति और आस्था के साथ प्रयोगशील रहने का उसका साहस ही मुख्य है।"

कवि संजय चतुर्वेदी का कहना है कि "अनुवादवादी और आयातवादी सौंदर्यभ्रम का एक फलता फूलता कारोबार फैला है हिंदी पट्टी की छाती पर। ये और बात है कि न तो इस कारोबार का हिंदी पट्टी से कोई "लेणा-देणा" रहा - न इसके बाशिंदों से। लेकिन इस महादेश की जनता ने सदा कृतघ्नता और विस्मृति से इन्कार किया है।" कवि ज्ञानचंद मर्मज्ञ का कहना है कि "इन्हीं आलोचकों ने एक समय छन्दिक कविता की मृत्यु की घोषणा भी की थी परन्तु समय के साथ कविता ने पुन:अपने को नव गीत के रूप में स्थापित किया। गीत तत्व कविता का प्राण है। कविता से इसे कभी अलग नहीं किया जा सकता।"

कवि नवल जोशी का मानना है कि "छंदमुक्त कविता के नाम पर पिछले वर्षों जो योजनाबद्ध अभियान चलाये गये हैं, उनसे असल काव्य का नुकसान ही हुआ है; तथापि छंदीय काव्य का प्रभाव यथावत है। इस अर्से में यह भी प्रमाणित हुआ है कि कविता वही जीवित रहेगी, जो गेय है। इसीलिये आलोचकीय उपेक्षा के बावजूद छंदोबद्ध काव्य सृजन निरंतर चल रहा है।"

कवि सेवाराम त्रिपाठी का कहना है कि "छन्द में लिखना हमेशा कठिन होता है। इस शैली की रचनाएं समूची दुनिया में लिखी गईं। इसके लिये आलोचकों को दोषी ठहराने का भी एक रिवाज सा पड़ गया है। हां निराला के बाद बहुतायत से छन्द मुक्त रचनाएं लिखी जाती रही हैं। अब भी लिखी जा रही हैं। सच में पूर्व में मैंने भी गीत-नवगीत लिखे, फिर एकदम कम हो गया। मेरा मानना है कि जिनमें क्षमता हो, छन्द में लिखने की कुव्वत हो, उन्हें ज़रूर लिखना चाहिए। आखिर किसने मना किया है। समय की आपाधापियों की वजह से छन्द साधना न कर सकने की कमी की वजह से लोग मुक्तछन्द की तरफ मुखातिब हुए।"

ये भी पढ़ें,

भोजपुरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर