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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जिनके साहित्य से प्रभावित होकर उन्हें कहा था राष्ट्रकवि

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जिनके साहित्य से प्रभावित होकर उन्हें कहा था राष्ट्रकवि

Thursday August 03, 2017 , 5 min Read

राष्ट्रकवि स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त से भला कौन अपरिचित होगा। आज उनका जन्मदिन है। हिन्दी कविता के इतिहास में उनका एक बड़ा योगदान यह माना जाता है कि उन्होंने अपने समय में ब्रजभाषा जैसे समृद्ध काव्य-माध्यम को छोड़कर अपनी रचनाओं द्वारा खड़ी बोली को काव्य-भाषा का रूप दिया।

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मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों का जनता पर इतना असर था, कि राष्ट्रीय आंदोलन उनसे प्रभावित हो रहा था। उनकी कविताओं और शब्दों के इसी वजन को महसूस करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ का दर्जा दे दिया था।

इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, कि मैथिलीशरण गुप्त एक महान कवि थे। उनका हम उन्हें आज भी पढ़ पा रहे हैं ये हमारे समय के लिए सौभाग्य की बात है। उनकी कविताएं अपनी राष्ट्रीय भावना की वजह से काफी विशेष थीं, साथ ही उन्होंने अपनी रचनाओं में उन ऐतिहासिक और पौराणिक स्त्रियों के दुखों को भी शब्द और आवाज़ दी, जिन्हें लेकर हिन्दी भारतीय साहित्य उनसे पहले सो रहा था, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं उनकी रचनाओं में महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा और लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के दुख को स्थान मिलना।

नर हो, न निराश करो मन को,

कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

राष्ट्रकवि स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त की इन लोकप्रिय पंक्तियों से भला कौन अपरिचित होगा। आज उनका जन्मदिन है। हिन्दी कविता के इतिहास में उनका एक बड़ा योगदान यह माना जाता है कि उन्होंने अपने समय में ब्रजभाषा जैसे समृद्ध काव्य-माध्यम को छोड़कर अपनी रचनाओं द्वारा खड़ी बोली को काव्य-भाषा का रूप दिया। अगस्त माह राष्ट्रीयता की दृष्टि से साहित्य में भी अपना अलग महत्व रखता है और इसी माह उनका जन्म 03 अगस्त 1986 को पिता सेठ रामचरण कनकने और माता कौशिल्या बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। 

गुप्त "कनकलताद्ध" नाम से कविता करते थे। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन उन्होंने किया। मुंशी अजमेरी जी से साहित्य में उनका मार्गदर्शन हुआ। वह बारह वर्ष की उम्र से ही ब्रजभाषा में कविताएं रचने लगे थे। बाद में वह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आये। उनकी कविताएं "सरस्वती" में प्रकाशित होने लगीं। प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग' तथा बाद में "जयद्रथ वध" प्रकाशित हुई। उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया।

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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मैथिलीशरण गुप्त के जन्मदिन पर आयोजित एक समारोह में कहा था, ‘वे राष्ट्रकवि हैं, जैसे मैं राष्ट्र बनने से महात्मा बन गया हूं। मैं तो गुप्त जी को इसलिए बड़ा मानता हूं, कि वे हम लोगों के कवि हैं और राष्ट्र भर की आवश्यकता को समझकर लिखने की कोशिश कर रहे हैं।’

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में 1914 के आसपास राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत उनकी लोकप्रिय कृति "भारत भारती" का प्रकाशन हुआ।

भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?

फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ?

संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?

उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।

गुप्त जी ने खड़ीबोली की उँगली पकड़कर उसे चलना सिखाया, बड़ा किया और काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' में जिस खड़ी बोली के स्वरूप को निश्चित करने का प्रयास किया था, उसे गुप्तजी ने जन-गण में विस्तारित और साहित्य में परिनिष्ठित किया। इससे हिंदी काव्य-जगत में लंबी अवधि से चली आ रही काव्य-भाषा संबंधी ऊहापोह समाप्त होने लगा। भारत-भारती, स्वदेश-संगीत, वैतालिक, किसान, अजित हिंदू, पत्रावली, राजा-प्रजा, झंकार, मंगलघट, नहुष, शकुंतला, तिलोत्तमा, चंद्रहास, पंचवटी, साकेत, जयद्रथ-वध, त्रिपथगा, वकसंहार, वन-वैभव, सैरंध्री, द्वापर, जयभारत, यशोधरा, कुणाल, अनघ, सिद्धराज, विष्णुप्रिया, काबा और कर्बला, गुरुकुल, रंग में भंग, विकट भट, अर्जन और विसर्जन काव्य ग्रंथों से यह सिद्ध हो गया कि काव्य की भाषा होने में खड़ी बोली में तमाम सामर्थ्य मौजूद हैं। मैथिलीशरण गुप्त महावीर द्विवेदी द्वारा 'निर्मिति' थे। इसे गुप्तजी ने मुक्तकंठ से स्वीकार भी किया है -

करते तुलसीदास भी, जैसे मानस-नाद?-

महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।

भारत भारती के तीन खण्ड में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। वे मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे। गुप्तजी की रचनाओं में उनके भीतर के 'स्व' से अधिक युग को महत्व दिया गया है। समय का प्रभाव कहीं इतना गहरा था कि उससे मुख मोड़ना किसी भी जागरूक कलाकार के लिए असंभव था। गुप्तजी ने समाज और राष्ट्र की कभी उपेक्षा नहीं की। उनके समय में एक ओर बाबू राजेंद्र प्रसाद जी का नारा था कि परतंत्र भारत में राजद्रोह पाप नहीं, पुण्य-कार्य होता है। इसे कवि ने मिथकीय कथा के सहारे प्रस्तुति करते हुए कहा है -

वह प्रलोभन हो किसी के हेतु

तो उचित है क्रांति का ही केतु।

दूर हो ममता, विषमता, मोह

आज मेरा धर्म राजद्रोह।

राष्ट्रजीवन की चेतना को मन्त्र-स्वर देने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त सच्चे अर्थों में राष्ट्रभर के कवि थे। इसीलिये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि का सम्मान देते हुए कहा था, 'मैं तो मैथिलीशरण जी को इसलिये बड़ा मानता हूं कि वे हम लोगों के कवि हैं और राष्ट्रभर की आवश्यकता को समझकर लिखने की कोशिश कर रहे हैं।' उन्होंने पराधीनता काल में मुंह खोलने का साहस न करने वाली जनता का नैराश्य-निवारण करके आत्मविश्वास भरी ऊर्जामयी वाणी दी, इससे 'भारत-भारती' जन-जन का कण्ठहार बन गयी थी। इस कृति ने स्वाधीनता के लिये जन-जागरण किया। इसी कारण गुप्त जी को अपना काव्यगुरु मानने वाले कविवर अज्ञेय जी, 15 अगस्त 1947 को आजादी का जश्न मनाने, दिल्ली छोड़कर गुप्त जी के गृहनगर चिरगांव (झांसी) गये थे। उनकी यह पंक्तियां आज भी हर भारतीय के मन-प्राण को आलोड़ित करती रहती हैं-

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती¸

भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।

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