जन्मदिन विशेष: संघर्षों से निकलकर चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का सफर
"नोटों की माला लेकर कीमती जवाहरातों की भेंट तक, तमाम ऐसे वाकिये रहे हैं जिन्होने जन्मदिन को विशेष कारणों से यादगार बना दिया। लेकिन उम्मीद के विपरीत मायावती इस बार बेहद ही सादे तरीके से अपना जन्मदिन मना रही हैं।"
मायावती नाम है खामोश सियासी तूफ़ान का, जो परिणाम की बुनियाद पर अपने वजूद की पैमाइश देता है। मायावती नाम है उस आत्मविश्वास का जिसने सैकड़ों वर्षों से हाशिये पर पड़े गूंगे-बहरे वंचित समाज के कण्ठ को राजनीतिक आवाज दी। मायावती नाम है उस काल खंड का जिसमे विशाल हिन्दोस्तान की अवाम एक दलित महिला को दिल्ली के तख़्त पर बैठे देखने का तसव्वुर करने लगी थी। ऐसी चमत्कारिक मायावती का आज 63 वां जन्म दिवस है। दीगर है मायावती का प्रत्येक जन्मदिन अपने अंदाज के लिये सुर्खियों में रहा है। नोटों की माला लेकर कीमती जवाहरातों की भेंट तक, तमाम ऐसे वाकिये रहे हैं जिन्होने जन्मदिन को विशेष कारणों से यादगार बना दिया। लेकिन उम्मीद के विपरीत मायावती इस बार बेहद ही सादे तरीके से अपना जन्मदिन मना रही हैं।
यही वह सादगी है जिसने कार्यकर्ता के मन मोह लिया था, यही वह सादगी है जिसको देख कर कांशीराम जैसे कुशल संगठनकर्ता ने एक ऐतिहासिक राजनीतिक निर्णय लिया था। यही वह सादगी है जिसके कारण प्रत्येक वंचित समुदाय ने अपनी वंचना के स्वर और छवि को मायावती की शख्सियत में महसूस किया था।
आज माया फिर उस सादगी को वापस पाने की कोशिश में जुटी हुई हैं...ताकि 2014 से शुरू पराजय के सिलसिले को 2019 के अखिल भारतीय संग्राम में तोड़ा जा सके। ताकि अपराजेय मोदी के रथ की लगाम थामी जा सके। ताकि वर्षों से उनके लाखों समर्थकों की आंखों में पल रहे दिल्ली के तख्त पर एक दलित महिला को बैठे देखने का ख्वाब पूरा हो सके। ताकि वह लोग जो 2014 के बाद से बसपा के खत्म होने का दावा कर रहे हैं, उन्हे बताया जा सके कि विचारधारा कभी नहीं खत्म होती। ताकि यह स्थापित हो सके कि मायावती सिर्फ विजेता मात्र नहीं वरन एक अप्रतिम राजनीतिक योद्धा हैं, जिनका कुछ पराजयों से पराभाव नहीं हो सकता है।
वैसे भी गरीबी और बदहाली की शुरुआती जिंदगी के बावजूद मायावती ने कभी हार नहीं मानी, जिसका परिणाम है कि आज भी प्रदेश की राजनीति की समीकरण उन्हीं से तय होते हैं। वह दलित, वंचित और शोषित तबकों के लिए एक बड़ी आवाज बन चुकी हैं। मायावती ने जो कुछ हासिल किया है, वो एक लंबी राजनीतिक लंड़ाई के बाद ही हासिल किया है, जिसमें स्व.काशीराम का बहुत बड़ा योगदान है। मायावती की जीवनी लिखने वाले अजॉय बोस लिखतें है कि कांशीराम, मायावती के साथ बहुत अच्छा भावनात्मक जुड़ाव रखते थे। कांशीराम का गुस्सैल स्वभाव, खरी-खरी भाषा व जरूरत पडऩे पर हाथ के इस्तेमाल पर मायावती की तर्कपूर्ण खरी-खरी बातें भारी पड़ती थी।
समान आक्रामक स्वभाव वाले दलित चेतना के लिए समर्पित इन दोनों लोगो के काम का अंदाज जुदा होते हुए भी एक दुसरे का पूरक था, जहां कांशीराम लोगो से घुलना मिलना, राजनीतिक संघर्ष और गपशप में यकीन रखते थे वही मायावती अंतर्मुखी रहते हुए राजनीतिक बहसों को समय की बर्बादी मानती थीं। मायावती का ये अंदाज अब भी बरकरार है। वे आज भी चुपचाप अपना काम करती हैं। राजनीतिक अटकलबाजियों में ना तो वो खुद शामिल होती हैं ना ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को शामिल होने देती हैं। मायावती ने अपना पहला चुनाव उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के कैराना लोकसभा सीट से लड़ा था।
यह सीट बिजनौर में आती है। साल 1989 में मायावती को बिजनौर विधानसभा सीट से जीत मिली। मायावती के इस जीत ने बीएसपी के लिए संसद के दरवाजे खोल दिए। 1989 के आम चुनाव में बीएसपी को तीन सीटें मिली थी, उत्तर प्रदेश में 10 फीसदी और पंजाब 8.62 फीसदी वोट मिले थे। बीएसपी का कद बढ़ रहा था अब वह एक राजनीतिक पार्टी बनकर उभर रही थी, जो आगामी समय में प्रदेश की राजनीति की दशा-दिशा तय करने वाली थी। इस दौरान मायावती पर कांशीराम का जरूरत से ज्यादा भरोसा भी बढ़ गया। साल 1993 में प्रदेश की राजनीति में एक अद्भुत शुरुआत हुई।
दरअसल, इसे समझने के लिए हमें 1992 के दौर को देखना होगा। बाबरी मस्जिद गिरने के बाद केंद्र में बीजेपी की सरकार गिर चुकी थी। प्रदेश में कांग्रेस के दलित वोट बैंक पर बीएसपी कब्जा कर चुकी थीं। प्रदेश में बीजेपी को हराने के लिए कांशीराम ने एक बड़ा कदम उठाया। उन्होंने समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लिया। कांशीराम की सोच, दलित और पिछड़ों की एकजुटता ये नतीजा रहा कि 1993 में इस गठबंधन को जीत मिली। सरकार के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव बने। और मायावती को दोनों दलों के बीच तालमेल बिठाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी गई।
अभी एसपी-बीएसपी गठबंधन में बनी सरकार को तकरीबन दो ही साल हुए थे कि प्रदेश में दलितों के साथ अत्याचार होने की घटनाएं बढ़ गईं, जिससे मायावती नाराज थीं। ये बात 1995 की है। इसी दौर में कांशीराम गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। दलितों के प्रति होते अत्याचार को देख बीमार कांशीराम ने अपना नजरिया बदला और बीजेपी के साथ एक गुप्त समझौता किया। 01 जून 1995 को मुलायम सिंह को ये खबर मिली की मायावती ने गवर्नर मोतीलाल वोहरा से मिलकर उनसे समर्थन वापस ले लिया है और वह बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने वाली हैं। तो मुलायम हैरान रह गए।
2 जून 1995 को मायावती लखनऊ के स्थित गेस्ट हाऊस के कमरा नंबर-1 में पार्टी नेताओं के साथ अगामी रणनीति तय कर रहीं कि तभी करीब दोपहर 3 बजे अचानक गुस्साए सपा कार्यकर्ताओं ने गेस्ट हाऊस पर हमला बोल दिया। घबराई मायावती ने इस दौरान पार्टी नेताओं के साथ स्वंय को इस गेस्ट हाउस में घंटों का बंद कर लिया। इस घटना ने प्रदेश की राजनीति का रूख हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया। अगर दलित-पिछड़ों का यह गठबंधन बना रहता तो शायद ही प्रदेश में कोई अन्य पार्टी का भविष्य में जीत पाना मुमकिन होता।
गेस्ट हाऊस कांड के तीसरे दिन यानी 5 जून 1995 को बीजेपी के सहयोग से मायावती ने पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली और कांशीराम ने वो अपना सपना पूरा कर किया जो कभी उन्होंने मायावती को दिखाया था। इस समय मायावती की उम्र महज 39 साल की थी। यह एक ऐतिहासिक पल जब था जब देश की प्रथम दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं थी। हांलाकि यह सरकार महज चार महीने चली। इसके बाद मायावती 1997 और 2002 में फिर से बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री बनीं। जैसे-जैसे मायावती का कद पार्टी और प्रदेश की राजनीति में बढ़ रहा था वैसे-वैसे कांशीराम वक्त के साए में कहीं पीछे रह गए। उनका स्वास्थ्य गिरने लगा।
लगातार बीमार रहने के चलते उन्होंने साल 2001 में मायावती को अपना राजनीतिक वारिस घोषित कर दिया। 6 अक्टूबर 2006 को दलितों को रोशनी देने वाला ये दीपक सदा-सदा के लिए बुझ गया। साल 2007 में प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे। पार्टी जीत के लिए रोडमैप तैयार कर रही थी। मायावती ने देखा कि वह अकेले दलित-मुस्लिम वोटों के बलबूते नहीं जीत पाएंगी। इसलिए उन्होंने अपने गुरु कांशीराम की पुरानी रणनीति को अपनाया। और पार्टी की रणनीति को सर्वसमाज के लिए तैयार किया। जिसका नतीजा ये हुआ कि प्रदेश में पार्टी को 2007 के विधानसभा में 206 सीटों का प्रचंड बहुमत मिला।
हांलाकि मायावती का यह कार्यकाल उनके जुड़े द्वारा विकास कार्यों के अलावा ताज कॉरिडोर घोटाला, एनएसआरएम घोटाला, आय से अधिक संपत्ति केस और अपनी मूर्ति बनाने को लेकर काफी विवादों में रहा। यद्यपि पार्टी के लिए बीते लोकसभा चुनाव-2014 और उसके बाद का समय अच्छा नहीं रहा किंतु यह भी हैरतंगेज है कि मोदी की सुनामी में जब अनेक दल अस्तित्व विहीन हो गये हैं, उस दौर में 20 प्रतिशत मतों से बसपा की झोली का आबाद रहना मायावती होने की अहमियत को बताता है। नि:संदेह भारतीय लोकतंत्र को समाज की सबसे पिछली कतार से निकली एक सामान्य महिला की उपलब्धियों पर गर्व होना चाहिए।
यह भी पढ़ें: डिलिवरी स्टार्टअप शुरू कर रेवती ने हजारों गरीब महिलाओं को दिया रोजगार