आईआईटी के इस पूर्व छात्र ने आदिम जनजाति समुदाय को कृषि से कराया रूबरू, हजारों लोगों को दे चुके हैं आधुनिक कृषि का प्रशिक्षण
टीम के प्रयास का ही नतीजा था कि इस जनजाति से जुड़े लोगों ने कृषि में दिलचस्पी दिखाई और महज 1 साल के भीतर करीब 500 परिवारों ने कृषि को अपनी आजीविका के रूप में अपना लिया।
ट्रस्ट के जरिये विशाल और उनकी टीम लगातार लोगों को कृषि क्षेत्र में प्रशिक्षित करने का काम कर रही है।
शुरुआती पढ़ाई के बाद विशाल भी आईआईटी जैसे बड़े संस्थान से इंजीनियरिंग करने के लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में तैयारी कर रहे थे, इस दौरान ही उन्हे कृषि इंजीनियरिंग विषय के बारे में जानकारी हुई और ग्रामीण क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले विशाल के लिए यह काफी रोचक था।
भुवनेश्वर से कृषि में बीटेक और फिर आईआईटी खड़गपुर से कृषि में ही एमटेक करने वाले विशाल सिंह ने अपने शुरुआती दौर में खाद्य से जुड़ीं कुछ बड़ी कंपनियों के लिए काम किया, हालांकि उन्होने उड़ीसा की सेंचुरियन यूनिवर्सिटी में कुछ समय तक पढ़ाया भी है।
कृषि में एमटेक की पढ़ाई करने वाले विशाल का मानना है कि कृषि से जुड़े हुए जितने भी शोध होते हैं उनमें से अधिकतर शोध का लाभ आम किसानों को मिल ही नहीं पता है। इस तरह की जानकारी बस कुछ लोगों तक ही सीमित रहती है।
विशाल कहते हैं,
“कृषि की पढ़ाई के दौरान मुझे समझ आया कि इस क्षेत्र में लोगों और किसानों के लिए अपार संभावनाएं हैं। कृषि आम लोगों के लिए बेहतर आमदनी का जरिया बन सकती है।”
भारत में आमतौर पर कृषि पारंपरिक तौर तरीकों से की जाती है और यह प्रमुख वजह भी है कि भारत में किसानों की आय पश्चिमी देशों के किसानों की तुलना में उतनी अधिक नहीं है। विशाल ने किसानों की आय बेहतर करने के उद्देश्य से पोस्ट हार्वेस्टिंग और फूड प्रोसेसिंग कारकों पर काम करना शुरू किया, जिसमें जमीन का कम से कम दोहन और जीरो लॉस को ध्यान में रखा गया।
विशाल बताते हैं,
“फूड प्रोसेसिंग का ज्ञान एक ऐसा कारक है जिससे किसानों को बड़ा लाभ मिल सकता है। वे फसलों से जुड़े अपने नुकसान को शून्य कर सकते हैं और बड़ा लाभ कमा सकते है। ”
बढ़ाए कदम
विशाल सेंचुरियन यूनिवर्सिटी में कृषि विभाग के प्रमुख थे और उस दौरान उनके साथ कई अन्य शिक्षक भी इस दिशा में जुड़े हुए थे। शिक्षण के दौरान ही विशाल ने जमीनी स्तर पर जाकर इन बुनियादी चीजों को लागू करने का निर्णय लिया, जिसमें उनके कुछ अन्य साथी प्रोफेसरों और उनके कुछ पुराने साथियों का भी उन्हे सहयोग मिला।
इस दौरान ही अपनी नौकरी से इस्तीफा देते हुए विशाल ने साथियों के साथ ग्राम समरिद्धि ट्रस्ट का गठन किया। शुरुआती दौर में विशाल के कुछ पुराने साथी और कॉलेज के पासआउट इस ट्रस्ट में शामिल हुए। इसके बाद टीम ने शुरुआती दौर में उड़ीसा के सुदूर आदिवासी इलाकों में जाकर वास्तविक स्थिति का जायजा लेना शुरू किया।
टीम ने अपने काम की शुरुआत के लिए मयूरवन जिले को चुना, जो उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और झारखंड की सीमा पर स्थित है। जिले में आदिम जनजाति के लोग निवास करते थे, जिनके ऊपर अभी तक मानव सभ्यता के विकास का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। ये जनजाति कृषि से भी वाकिफ नहीं थी और ये जीवित रहने के लिए महज शिकार पर ही निर्भर थे। टीम ने इन जनजाति के बच्चों को शिक्षा देने से अपने काम की शुरुआत की, जिसमें टीम से जुड़े वॉलांटियर्स ने भी खूब सहयोग किया।
इन बच्चों की शिक्षा के बाद बढ़ी जागरूकता का ही नतीजा था कि जनजाति के लोगों ने कृषि में दिलचस्पी दिखाई और महज 1 साल के भीतर करीब 500 परिवारों ने कृषि को अपनी आजीविका के रूप में अपना लिया।
विशाल बताते हैं,
“इस जनजाति के लोग एक खास तरह की शराब के आदी थे, हमने पहले उन्हे इस विसंगति से मुक्त कराया और उनके घर के आस-पास फलदार वृक्षों का रोपण कराया।”
आहार मण्डल
आगे बढ़ते हुए टीम ने आहार मण्डल नाम के कान्सैप्ट को लोगों के सामने रखा, जिसके तहत समुदाय के प्रत्येक परिवार को घर पास करीब 12 सौ वर्गफीट जगह पर फल और सब्जियाँ उगाने के लिए प्रेरित और प्रशिक्षित किया गया। इससे उन परिवारों के भरण पोषण की समस्या हल हो गई।
ट्रस्ट ने लोगों को लेमनग्रास की खेती से भी परिचित कराया और इसके साथ ही इससे तेल निकालने और इसकी बॉटलिंग और मार्केटिंग के लिए भी उन्हे प्रशिक्षित किया। बाद में इस मॉडल को अन्य जगहों पर ही लागू किया गया। टीम ने आहार मण्डल को कंधमाल जिले के साथ ही अन्य जगहों पर भी आगे ले जाने का काम किया।
आहार मण्डल का प्रभाव यह हुआ कि कृषि के क्षेत्र में पिछड़े हुए इलाकों में भी लोग ना सिर्फ अपने भरण पोषण के लिए सब्जियाँ उगाने में सफल हुए, बल्कि इनमें से कुछ सब्जियों को वे स्थानीय बाज़ार में भी ले जाकर बेंच पा रहे थे, जिससे उनकी कुछ आमदनी होना भी शुरू हो गई। टीम ने लोगों को हल्दी की खेती और उसकी प्रोसेसिंग का भी प्रशिक्षण देना शुरू किया।
टीम ने इसी के साथ मधुमक्खी पालन, मशरूम कल्टीवेशन, सीड प्रोसेसिंग और इंटीग्रेटेड फ़ार्मिंग के लिए भी लोगों के समूह को प्रशिक्षण देना शुरू किया। प्रशिक्षित लोग आज अन्य लोगों को भी प्रशिक्षण देने का काम करते हैं, जिससे उन्हे आमदनी भी होती है। टीम ने इन उत्पादों के लिए बाज़ार खड़ा करने का भी काम किया है, जहां किसानों के द्वारा तैयार किए गए इन उत्पादों को बिक्री की जाती है।
विशाल कहते हैं,
“जो लोग शहरों में काम कर रहे हैं वो भी किसी ना किसी गाँव से ही जुड़े हैं। हमें गाँव में ही रोजगार के अवसरों को बढ़ाने पर काम करना होगा, जिससे हम हम गांवों के गौरव को फिर से खड़ा कर सकें और हम गाँव को स्वावलंबी बनाने के लक्ष्य के साथ ही आगे बढ़ रहे हैं।”
टीम लोगों को प्रशिक्षित करने बाद क्षेत्र में काम करने के लिए छोड़ देती और अगले पड़ाव पर बढ़ जाती है। टीम राज्य में इस तरह से प्रशिक्षित युवाओं की बेहद बड़ी और मजबूत संख्या खड़ी करने की दिशा में आगे बढ़ रही है, जो उत्पादन, प्रोसेसिंग, मार्केटिंग व अन्य पहलुओं में पूरी तरह प्रशिक्षित हों।
भविष्य और राजस्व
विशाल के अनुसार अभी ट्रस्ट उड़ीसा के 7 जिलों पर काम कर रहा है, लेकिन निकट भविष्य में विशाल उत्तर प्रदेश, बिहार के साथ ही अन्य राज्यों में जाने का लक्ष्य बना रहे हैं। टीम के साथ लगातार वॉलांटियर्स जुड़ते रहते हैं, जिन्हे पूरी तरह से प्रशिक्षण दिया जाता है।
ट्रस्ट ने दिव्यांगजनों को भी कृषि क्षेत्र में प्रशिक्षित करने के साथ ही उन्हे रोजगार उपलब्ध करने की दिशा में अपने कदम बढ़ाए हैं और यह सिलसिला भी लगातार आगे बढ़ रहा है।
विशाल कहते हैं,
“कोई भी हमारे साथ जुड़ सकता है। आप हमने संपर्क साध सकते हैं, हमारे साथ काम कर सकते हैं, सीख सकते हैं और अपने क्षेत्र में जाकर स्थानीय किसानों के साथ मिलकर या व्यक्तिगत तौर पर भी कृषि के क्षेत्र में काम कर सकते हैं।”
ट्रस्ट के जरिये अब तक उड़ीसा के 17 हज़ार किसानों को प्रशिक्षण दिया जा चुका है और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। ट्रस्ट कई सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों के साथ इस क्षेत्र में प्रोजेक्ट साइन करता है और यही मुख्यता इसका राजस्व मॉडल है।