बच्चन फूट-फूटकर रोए
अमिताभ शीशे की दीवार के पीछे दुबके हुए, ये देखने की कोशिश कर रहे थे कि बाबूजी इतनी आत्मीयता से जिससे लिपट कर रो रहे हैं, वह आखिर है कौन...
वह वर्ष 1982 का दिन था, जब श्यामनारायण पांडेय के साथ हम 'कुली' फिल्मांकन में घायल अमिताभ बच्चन को देखने एवं हरिवंश राय बच्चन से मिलने के लिए उनके घर 'प्रतीक्षा' पहुंचे थे। उस मुलाकात के दौरान बच्चनजी ने द्वार तक आकर विदा करते समय अपने बुजुर्ग मित्र को बांहों में लपेटकर कहा था- 'अच्छा तो चलो पांडेय, अब ऊपर ही मुलाकात होगी।' यह कहते वक्त दोनो महाकवियों की पलकें भीग गई थीं। बच्चनजी फूट-फूटकर रोने लगे थे। उस समय अमिताभ शीशे की दीवार के पीछे दुबके हुए से ये देखने की कोशिश कर रहे थे कि बाबूजी इतनी आत्मीयता से जिससे लिपट रहे हैं, वह आखिर है कौन!
"आज मुझसे दूर दुनिया, भावनाओं से विनिर्मित, कल्पनाओं से सुसज्जित, कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकनाचूर दुनिया, आज मुझसे दूर दुनिया! बात पिछली भूल जाओ, दूसरी नगरी बसाओ, प्रेमियों के प्रति रही है, हाय, कितनी क्रूर दुनिया। वह समझ मुझको न पाती, और मेरा दिल जलाती, है चिता की राख कर में, माँगती सिंदूर दुनिया...आज मुझसे दूर दुनिया।" महाकवि हरिवंश राय बच्चन के इस गहरे दर्द की एक अंतर्गत कथा है, जो बहुतों को मालूम नहीं है।
गुस्से में जैसे जोर-जोर से कोई हंसने का अभ्यास करते-करते फूट-फूटकर रोने लगे। काश हमारे समय में भी कोई हरिवंश राय बच्चन होता तो असंख्य सुबकती आंखें थम जातीं। लेकिन अपने शब्दों की दुनिया में वह भी बार-बार एक-अकेले हो जाते थे। एक ऐसा ही सघन अकेलापन उन्होंने 1936 में अपनी पहली पत्नी श्यामा के निधन के बाद महाकवि श्यामनारायम पांडेय के साथ साझा किया था। श्यामा जी की मृत्यु के बाद जब उनके पास दोबारा शादी के लगातार प्रस्ताव आने लगे, उनका मन विचलित हो उठा था। एक दिन कवि सम्मेलन में विश्राम के समय उन्होंने बड़े दुखी मन से पांडेयजी से कहा, कि 'देखो न पांडेय, अभी श्यामा को गए कितना वक्त हुआ है और लोग कितने स्वार्थी हैं, मुझ पर आए दिन पुनः शादी रचाने का दबाव डाल रहे हैं।' उन्होंने तभी यह भी बताया था कि उन्होंने यह कविता श्यामा के बिछोह में ही लिखी है- 'आज मुझसे दूर दुनिया, है चिता की राख कर में, माँगती सिंदूर दुनिया।'
कुछ वर्ष बाद रंगकर्मी एवं गायिका तेजी सूरी से आखिरकार उन्हें शादी रचानी ही पड़ी। तेजी बच्चन से ही अमिताभ का जन्म हुआ। उस वक्त इलाहाबाद में शिशु अमिताभ को देखने के लिए शायर फिराक गोरखपुरी भी हरिवंश राय बच्चन की अनुपस्थिति में उनके घर पहुंचे थे और एक ऐसा तंज कसा था, जिसने साहित्य जगत में सनसनी फैला दी थी। बच्चनजी के साथ कई एक रोमांचक सुर्खियां रही हैं। जैसेकि होली पर वह इलाहाबाद में साड़ी पहनकर निकलते थे। साड़ी उन्हें और कोई नहीं, बल्कि तेजी बच्चन ही पहनाती थीं। एक बार पुरुषोत्तमदास टंडन के घर पर महिलाओं ने बच्चनजी की साड़ी उतरवा दी थी।
बच्चनजी के साथ एक ऐसी ही सुर्खी सोहनलाल द्विवेदी की एक कविता को लेकर हवा में तैर गई थी। कविता कोई और लिखे और उस पर शोहरत से कोई और नवाजा जाए, ऐसा आजकल तो अक्सर होने लगा है लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था। सोहनलाल द्विवेदी की उस कविता को हरिवंश राय बच्चन की रचना मान लेने की अफवाह हिंदी साहित्य की अजीब सी घटना है, जिस पर अमिताभ बच्चन तक को अपनी फ़ेसबुक वॉल पर सफाई देनी पड़ी, कि यह रचना सोहनलाल द्विवेदी की ही है। उस कविता की लाइनें हैं - 'लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती। कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।'
वह वर्ष 1982 का दिन था, जब श्यामनारायण पांडेय के साथ हम 'कुली' फिल्मांकन में घायल अमिताभ बच्चन को देखने एवं हरिवंश राय बच्चन से मिलने के लिए उनके घर 'प्रतीक्षा' पहुंचे थे। उस मुलाकात के दौरान बच्चनजी ने द्वार तक आकर विदा करते समय अपने बुजुर्ग मित्र को बांहों में लपेटकर कहा था- 'अच्छा तो चलो पांडेय, अब ऊपर ही मुलाकात होगी।' यह कहते वक्त दोनो महाकवियों की पलकें भीग गई थीं। बच्चनजी तो फूट-फूटकर रोने लगे थे। उस समय अमिताभ शीशे की दीवार के पीछे दुबके हुए से ये देखने की कोशिश कर रहे थे, कि बाबूजी इतनी आत्मीयता से जिससे लिपट रहे हैं, वह आखिर है कौन! सचमुच वह उनकी आखिरी मुलाकात थी। उस मुलाकात के दिन बच्चनजी ने कविता को लेकर एक महत्वपूर्ण कमेंट किया था कि यह अब काव्य का नहीं, व्यंग्य का समय है। इस वक्त का सच रेखांकित करने के लिए व्यंग्य ही सबसे धारदार विधा हो सकती है। मुझे बच्चनजी की उस टिप्पणी की गंभीरता और महत्व अब समझ में आता है।
एक अन्य वाकया बताए बिना श्यामनारायण पांडेय और हरिवंश राय बच्चन की अटूट दोस्ती का आख्यान अधूरा रह जाएगा। यह आपबीती श्यामनारायण पांडेय ने मुझे सुनाई थी। एक बार देवरिया (उ.प्र.) में कवि सम्मेलन हो रहा था। मंच पर दोनो मित्र आसीन थे। पहले बच्चनजी को कविता पाठ के लिए प्रस्तु किया गया। उन्होंने कविता पढ़ी- महुआ के नीचे फूल झरे, महुआ के। बच्चनजी अपने सस्वर पाठ से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। बच्चनजी के बाद पांडेयजी ने काव्यपाठ के लिए जैसे ही माइक संभाला, बच्चनजी के लिए एक असहनीय बात बोल गये- 'अभी तक आप लोग गौनहरियों के गीत सुन रहे थे, अब कविता सुनिए।' इतना सुनते ही बच्चनजी रुआंसे मन से मंच से उठकर अतिथिगृह चले गये।
अपनी कविता समाप्त करने के बाद जब पांडेयजी माइक से हटे तो सबसे पहले उनकी निगाहें बच्चनजी को खोजन लगीं। वह मंच पर थे नहीं। अन्य कवियों से उन्हें जानकारी मिली, कि बच्चनजी तो आपकी टिप्पणी से दुखी होकर उसी समय मंच छोड़ गये। इसके बाद पांडेयजी भी मंच से चले गये बच्चनजी के पास अतिथिगृह। जाड़े का मौसम था। बच्चनजी रजाई ओढ़ कर जोर-जोर से रो रहे थे। पांडेयजी समझ गये कि यह व्यथा उन्हीं की दी हुई है। बमुश्किल उन्होंने बच्चनजी को सहज किया। खुद पानी लाकर उनका मुंह धोया। बच्चनजी बोले- 'पांडेय मेरे इतने अच्छे गीत पर कवियों और श्रोताओं के सामने तुम्हे इतनी घटिया टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी।' पांडेयजी के मन से वह टीस जीवन भर नहीं गयी। लगभग तीन दशक बाद उस दिन संस्मरण सुनाते हुए वह भी गमछे से अपनी भरी-भरी आंखें पोछने लगे थे।