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कपड़े पर करिश्मा बुनने की कला है जरदोजी

चमकीले धागे को बारीक सुई में लपेट, कपड़े पर करिश्मा बुनने की कला है जरदोजी। जरदोजी का काम करने वाले कारीगर अपनी उंगलियों के हुनर से सूट और साडिय़ों को रूहदार कर देते हैं, लेकिन क्या है उनकी ज़िंदगी का सच जानने के लिए पढ़ें प्रणय विक्रम सिंह की रिपोर्ट...

आज जरदोजी कला के केंद्र लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, आगरा, कश्मीर, अजमेर और चेन्नई हैं। कारीगरी के बेमिसाल शिल्प से परिधान को सजाने और संवारने वाली इस वैदिक कालीन कला के इबादतगीर पुराने लखनऊ से लेकर पुराने फर्रुखाबाद तक उन्नाव से लेकर रायबरेली, हरदोई के सुदूर इलाकों तक में बहुतायत मात्रा में दिखाई पड़ते हैं। लगभग हर कारीगर की आंख पर चश्मा चढ़ा है, बारीक नजर रखने की मजबूरी का नतीजा है ये। लेकिन क्या आपको मालूम है, कि ये बारीक नजर बस दो जून की रोटी कमाने तक ही सीमित है, उसके आगे कुछ नहीं...

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फोटो साभार: dsource.ina12bc34de56fgmedium"/>

जरदोजी एक फारसी शब्द है जिसका संधि विच्छेद जर+दोजी यानी सोने की कढ़ाई है। भारत में इसका काल ऋग्वेद ही माना जाता है और कहा ये जाता है, कि देवी-देवताओं को सजाने के लिए इस कला का उपयोग होता था बाद में मुगल दरबार राजा अकबर के छत्र-छाया में ईरानी कलाकारों को यहां पनाह मिली और तब से यह भारतीय शाही दरबारों की शान व शौकत मानी जाने लगी। 

चमकीले धागे को बारीक सुई में लपेट, कपड़े पर करिश्मा बुनने की कला है जरदोजी। जरदोजी का काम करने वाले कारीगर अपनी उंगलियों के हुनर से सूट और साडिय़ों को रूहदार कर देते हैं। जरदोजी एक फारसी शब्द है जिसका संधि विच्छेद जर+दोजी यानी सोने की कढ़ाई। भारत में इसका काल ऋग्वेद ही माना जाता है और कहा यह जाता है की देवी-देवताओं को सजाने के लिए इस कला का उपयोग होता था बाद में मुगल दरबार राजा अकबर के छत्र-छाया में ईरानी कलाकारों को यहां पनाह मिली और तब से यह भारतीय शाही दरबारों की शान व शौकत मानी जाने लगी। औरंगजेब का कला के प्रति उदासीनता से कारीगर पंजाब और राजस्थान के शाही दरबारों में विस्थापित हो गए। 18वीं-19वीं सदी के उद्योगीकरण ने इसे पीछे की ओर धकेल दिया। 1947 की आजादी के बाद इस कला के बेहतरी के लिए कदम उठाये गए। इस कढ़ाई को करने के लिए अड्डा, आरी, सलमा ,सितारा बेशकीमती पत्थर और सोने, चांदी के तार और रेशम, मखमल के कपड़े की जरूरत पड़ती है।

आज जरदोजी कला के केंद्र लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, आगरा, कश्मीर, अजमेर और चेन्नई हैं। कारीगरी के बेमिसाल शिल्प से परिधान को सजाने और संवारने वाली इस वैदिक कालीन कला के इबादतगीर पुराने लखनऊ से लेकर पुराने फर्रुखाबाद तक उन्नाव से लेकर रायबरेली, हरदोई के सुदूर इलाकों तक में बहुतायत मात्रा में दिखाई पड़ते हैं। लगभग हर कारीगर की आंख पर चश्मा चढ़ा है, बारीक नजर रखने की मजबूरी का नतीजा है ये। मगर ये बारीक नजर बस दो जून की रोटी कमाने तक ही सीमित है। वरना बिचौलिये इनकी मेहनत का कमाई के बढ़े हिस्से को हड़प लेते हैं। जरदोजी कला में कई तरह के काम किये जाते हैं जैसे रेशम में काम, करदाना मोती, कोरा नकसीस, सादी कसब और अन्य तरह के काम किये जाते हैं। सादे कपड़े पर मोती रेशम के धागे से डिजाइन बनाया जाता है। इसके अलावा वक्त के साथ चिकन पर भी जरदोजी के काम होने लगे हैं। चिकन पर जरदोजी का काम तो विश्व प्रसिद्ध है। बनारसी साडिय़ों पर भी जरदोजी के काम की मांग अब ज्यादा बढ़ गई है।

सन् 2000 में रेशम का काम ज्यादा होता था मगर वर्तमान समय में चॉदला का काम ज्यादा चल रहा है। लखनऊ की जरी और जरदोजी का इस्तेमाल आम तौर पर लहंगों, साडिय़ों और सलवार सूट में ही होता है। लेकिन अब गाउन, जैकेट, शर्ट, पर्स और यहां तक कि जूतों के ऊपरी हिस्से में इस्तेमाल होने वाली जरी-जरदोजी की मांग बढ़ रही है। फैशन में आए इस बदलाव का असर कुछ हद तक लखनऊ के कारोबार पर भी पड़ा है, लेकिन यहां के कारीगर इसे अपनाने के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं। इसलिए लखनऊ की जरी-जरदोजी के कद्रदान तेजी से घट रहे हैं। इस मामले में अब बरेली और फर्रूखाबाद ने रफ्तार पकड़ ली है। यहां की जरी-जरदोजी किसी वक्त खाड़ी देशों, पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी धूम मचाती थी, लेकिन आज तस्वीर कुछ अलग है।

लखनऊ के पुराने इलाके चौक में जरदोजी का कारखाना चलाने वाले हसीब सिद्दीकी के मुताबिक कुछ सालों से यहां के कारोबारियों को सीधे अॉर्डर कम मिल रहे हैं। दिल्ली और मुंबई के कारोबारी ही यहां से माल ले जाकर निर्यात करते हैं। वह कहते हैं, लखनऊ की जरी-जरदोजी के सबसे बड़े ग्राहक लंहगे, साडिय़ां और सलवार सूट तैयार करने वाले हैं। लेकिन अब बरेली और फर्रुखाबाद की जरदोजी आगे निकल रही है। वहां के कारखानों में पाश्चात्य डिजायनर परिधानों के लिए जरदोजी तैयार होती है, जिसकी विदेश में भारी मांग है।

हस्तशिल्प के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था आरम्भ के प्रशांत सिंह बताते हैं, कि लखनऊ से महज 10-12 करोड़ रुपये की जरदोजी का निर्यात होता है। दिल्ली और मुंबई से होने वाले निर्यात के आंकड़े मौजूद नहीं हैं। प्रशांत सिंह ने बताया कि कुछ समय पहले वाराणसी में तैयार होने वाली साड़ियों और लहंगों के लिए जरी-जरदोजी लखनऊ से जाती थी। लेकिन अब वहीं इसके कारखाने खुल गए हैं। उन्होंने बताया कि बरेली की जरी का इस्तेमाल पर्स और जूतों की ऊपरी सतह बनाने में किया जा रहा है। वहां से जरी यूरोप और अमेरिका तक भेजी जाती है। वाराणसी, बरेली और फर्रुखाबाद के कारीगर धातु के भारी तारों का इस्तेमाल कर हैंडबैग, बेल्ट, जूते, बैज और डिनर जैकेट के लिए जरदोजी तैयार कर रहे हैं।

लखनऊ के कारीगर आज भी कलाबत्तू, मोती और सलमा-सितारे का ही काम कर रहे हैं। इसका खमियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। लखनऊ में कारीगरों का कौशल बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है, जिसके कारण यहां के लोग आज भी परंपरागत कढ़ाई से आगे नहीं बढ़ सके हैं। कुछ लोगों ने पाश्चात्य शैली का काम खुद ही सीखा है, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है।

जरदोजी कारीगर मोहम्मद अब्बास शीबू ने बताया है, कि एक ओर सरकार जरदोजी के प्रमोशन में विस्तार के लिए काम रही है, वहीं लखनऊ महोत्सव में लखनवी जरदोजी को ही जगह नहीं मिली है। हाल ये है कि कई कारीगर राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं लेकिन उन्हें भी तवज्जो नहीं दी गई।

कढ़ई में शामिल हैं मासूम बचपन के आंसू

पुराने लखनऊ के अधिकतर क्षेत्रो में बच्चे हाथों में कलम और किताब की जगह सूई धागा और मोती लिए अड्डों पर काम कर रहे हैं। उनकी आंखो में ख्वाब नहीं जरदोजी की डिजाइन हैं। किंतु जरदोजी के अड्डों पर इन मासूमों का बचपन सिसक रहा है। खास बात तो यह है कि लड़कियां भी स्कूल जाने के बजाए इस काम और हुनर को सिख रही है। परिवार वाले आर्थिक तंगी की वजह से बच्चों को यह कार्य और हुनर सिखाते हैं ताकि वह मेहनत करके कुछ रकम घर लाने लगे। शुरूआत में इनको साप्ताहिक 20-30 रूपए मिलते हैं फिर वह परिपक्व होकर अधिक कमाने लगते हैं। इस कार्य में लगे हुए कारीगरों तथा लोगों का कहना कि सरकार इसे उद्योग का दर्जा दे दे तो इसे एक नई पहचान मिलेगी और कारीगरों को उचित मजदूरी मिलेगी। जिससे उनका परिवार अच्छा जीवन यापन कर सकेगा तथा उनके बच्चे भी पढ़-लिख सकेंगे तथा उनका भविष्य उज्जवल हो सकेगा।

मेहनताना कम, मुनाफा ज्यादा

दिहाड़ी के काम में करने वालो जरदोजी कारीगरों को घंटो के हिसाब से काम करना पड़ता है आठ घंटे में नफरी के हिसाब से 80 रुपये मिलते है, पंद्रह घंटे काम करने पर 150 रुपये ही मिलते है। इसके अलावा साड़ी पर काम करने के दौरान यदि व गंदी या कट फट जाती है तो उसका हर्जाना भी कारीगर से ही लिया जाता है। जरदोजी का काम एक साड़ी पर 1000 रुपये से लेकर पांच लाख रुपये तक का काम होता है। इस काम को करने में रिस्क ज्यादा होता है। यदि एक भी साड़ी रिजेक्ट हो जाती है तो मेहनत के साथ उसकी लागत भी कारीगरों को अपनी जेब से देनी पड़ती है। एक साड़ी को बनाने में कम से कम तीन दिन लगते है यदि एक साड़ी की कीमत एक हजार है तो उसको बनवाने में 600 रुपये की लागत आती है। ऐसे में 400 रुपये की ही बचत हो पाती है। मोहम्मद अंसार के मुताबिक जरदोजी कारीगरों की बदहाल स्थिति का मुख्य कारण बड़े-बड़े कारीगरों का दुकानदार को उधार माल देना है जिससे दुकानदार अब अपना पैसा लगाकर काम करवाना ही बंद कर दिया। जिससे सबसे ज्यादा नुकसान कारीगरों का हुआ है ऐसे में ठेकेदार उनसे अपने मन मुताबिक काम करवा रहे हैं और मेहनत के हिसाब से पैसा भी नहीं देते।

जिनके बनाये सूट और साड़ी मार्केट में चालीस हजार रुपये तक बिकते हैं, उन कारीगरों को सिर्फ चार हजार रुपये ही मिलते हैं। दिन रात जीतोड़ मेहनत करने के बाद भी उनको परिवार को पालना मुश्किल हो रहा है ऐसे में वो इन काम को छोड़ कर दूसरे कामों की तरफ भाग रहे हैं।

मेहनत ज्यादा और मजदूरी कम इस बात ने कारीगरों के हौसले को तोडऩा शुरू कर दिया है अब वे इस काम को करने में रूचि नहीं दिखा रहे हैं। लोग अपने लिए दूसरा रोजगार तलाशने लगे हैं लेकिन बारीक सुई पकड़ने के आदी हाथ कोई दूसरा औजार कैसे पकड़ सकते हैं। जरी कारीगर ये रोजगार अपनी खुशी से छोड़ने को तैयार नहीं है। अगर उन्हें भी अपनी मेहनत की अच्छी मजदूरी मिले तो वे इस खूबसूरत कला को आगे कई वर्षों तक चला सकते हैं। इस कला के सामने एक समस्या और भी है कि भावी पीढ़ी इसमें कोई रूचि नहीं दिखा रही है इनका मानना है, कि जो काम हमारे बाप-दादा ने किया बस उतना ही काफी है। इस रोजगार ने उनका ही क्या भला किया? इसमें हमारा कोई भविष्य नहीं है।

पुराने कारीगरों के बच्चे अपने पुश्तैनी काम से दूर होते जा रहे हैं, जिससे जरी कारीगरी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। कुछ अपनों की उपेक्षा, कुछ सरकार की बेरूखी ने इन हुनरमंदों का मनोबल तोड़ सा दिया है। अब देखिये न, दो नफरी (शिफ्ट) में 350 रुपये कमा पाते हैं। बदले में कुछ ही सालों में नजर गंवा देते हैं। चश्मा लग जाता है इससे आगे उसकी नजर नहीं जाती। उन्हें न तो सूबे की और न ही केंद्र की पेंशन योजनाओं, स्वास्थ योजनाओं की ज्यादा जानकारी है। सस्ते गैस सिलेंडर का जिक्र करो तो जवाब मिलता है कि मोदी जी ने ऐलान किया, स्कीम बनाई अच्छा किया, मगर यहां लोकल लेवल पर चाहे बैंक वाले हों या गैस डीलर, सब पैसा मांगते हैं।

मशीनीकरण से हुआ नुकसान

कम्प्यूटराइज्ड जमाने में सबसे ज्यादा नुकसान जो हुआ है वो जरदोजी के कारीगरों का हुआ है। जिस साड़ी को पांच लोग मिलकर तीन दिन में बनाते थे उसी साड़ी को मशीन के द्वारा सात से आठ घंटे में बना दिया जाता है और इसमें लागत भी कम आती है। जिसके कारण मार्केट में इनके हाथ से बनी साड़ियों के अपेक्षा मशीन के द्वारा बनी हुई साड़ी के कम दाम की वजह से लोग ज्यादा पंसद करते है।

पाकिस्तान से मिल रही है जबरदस्त टक्कर

दुनिया में जरदोजी कारीगरी के जरिए छाप छोड़ने वाले बनारस को पाकिस्तान से जबरदस्त टक्कर मिल रही है। दरअसल, पाकिस्तान ने बनारस के जरदोजी बाजार की रौनक छीन ली है। दोनों ही देशों में जरदोजी की कला के माहिर हैं। बस फर्क है तो दोनों की मजदूरी में। पाकिस्तान कम दाम में बनारस वाला काम देने को तैयार है। इससे हुआ यह है कि जरदोजी का जो काम सात समुंदर पार कर बनारस पहुंचता था, उसका नया ठिकाना अब पाकिस्तान हो गया है।

बनारस में बनता था यूके आर्मी का मोनोग्राम

पांच साल पहले यूरोप के कई देशों में आर्मी की वर्दी पर मोनोग्राम और बैजेज के पीछे बनारस की जरीदोज कारीगरी मौजूद थी। अब भी यूरोप के कई देशों की आर्मी वही वर्दी पहनती है, लेकिन उसमें छाप बनारस की नहीं, बल्कि पाकिस्तान की है। इसका कारण यह है कि अब यह काम पाकिस्तान के हवाले है। हालांकि, बनारस के कारीगरों का कहना है कि जो बात उनकी कारीगरी में है वह बात पाकिस्तानी कारीगरी में नहीं है।

मुरीद थे लेटिन अमेरिका के ग्राहक

बनारस जरदोजी की कारीगरी करने वाले कई कारीगरों का कहना है कि हम लगातार अपने पारंपरिक ग्राहक खोते जा रहे हैं। इसके पीछे कई कारण हैं मसलन, हमें हमारे काम के मुताबिक मेहनताना नहीं मिलता। बनारस जरदोजी कारीगर मुश्ताक का कहना है कि 'हमने हाल ही में लेटिन अमेरिका, नाइजीरिया और जिंबाब्वे के कई ग्राहकों को खोया है, जबकि यह जरदोजी कारीगरी के लिए भारत के बड़े बाजार हैं।'

लखनवी जरदोजी के बहुरेंगे दिन

- जरदोजी क्लस्टर के लिए हुआ एसपीवी का गठन

- रियायती दरों पर दिलाया जाएगा कच्चा माल

जरदोजी का क्लस्टर बनाने की दिशा में पहली कड़ी पार कर ली गई है। जिला उद्योग केंद्र में क्लस्टर को संचालित करने वाली समिति स्पेशल पर्पज वीकल का गठन कर लिया गया है। जिला उद्योग केंद्र के सहायक आयुक्त अमिताभ सेठ ने बताया, कि लखनऊ मंडल में 60 हजार जरदोजी कारीगर हैं। यहां की जरदोजी की अमेरिका, अरब और रूस में काफी मांग है। लेकिन बिचौलियों की वजह से जरदोजी कारीगरों को उचित मेहनताना नहीं मिल पाता है। अब असंगठित जरदोजी कारीगरों को संगठित करने उन्हें रियायती दरों पर कच्चा माल दिलवाया जाएगा। साथ ही विश्व बाजार की डिमांड के अनुरूप जरदोजी की डिजाइन और तकनीक में भी बदलाव लाया जाएगा।