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एक समय अपने घर में नहीं था शौचालय, आज देश और दुनिया में कराया 'सुलभ'

सुलभ शौचालय की नींव रख सबको सुलभ कराया शौचालय...13 लाख घरेलू और 85,000 सामुदायिक शौचालय बनवाए ...महात्मा गांधी के स्वच्छता अभियान से मिली प्रेरणा...सामाजिक विरोध का भी किया डटकर सामना....

एक समय अपने घर में नहीं था शौचालय, आज देश और दुनिया में कराया 'सुलभ'

Saturday November 12, 2016 , 8 min Read

गांधी जी के जीवन और योगदान को पूरा विश्व जानता है। महात्मा गांधी के विचारों और दर्शन ने ना जाने कितने ही लोगों को प्रेरित किया जिन्होंने इतिहास रचा। उनमें एक बड़ा नाम है डॉ. बिंदेश्वर पाठक का। जी हां, सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक महात्मा गांधी से बहुत ज्यादा प्रेरित रहे हैं। गांधी जी की यह बात कि पहले भारत को स्वच्छ करो, आजादी हम बाद में हासिल कर सकते हैं, ने उन्हें खासा प्रभावित किया और वे गांधी जी के स्वच्छता मिशन से जुड़ गए। इस दिशा में बहुत काम किया। कई अविष्कार किए। लगभग 44 साल पहले नई एवं उन्नत स्वदेशी तकनीकों का अविष्कार किया जो सुलभ शौचालय के नाम से प्रसिद्ध है। बिंदेश्वर पाठक जॉन एफ. कैनेडी से भी खासे प्रभावित रहे हैं। कैनेडी के एक बार कहा था कि - यह मत पूछो कि देश ने तुम्हारे लिए क्या किया है, बल्कि यह पूछो कि तुमने अपने देश के लिए क्या किया। भारत में खुले में शौच की समस्या आज भी बड़ी समस्या है ऐसे में समझा जा सकता है कि जब बिंदेश्वर पाठक ने अपनी युवावस्था में इस दिशा में काम करना शुरु किया होगा, उस समय यह कितनी बड़ी समस्या रही होगी।

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आज बिंदेश्वर पाठक के काम से सभी वाकिफ हैं। पद्मभूषण जैसे बड़े पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं लेकिन बिंदेश्वर पाठक के लिए यह रास्ता बहुत ज्यादा कठिनाईयों भरा रहा है। क्योंकि यह वह समय था जब देश जातिगत कर्म व्यवस्था में बहुत ज्यादा जकड़ा हुआ था। ऐसे में एक ब्राह्मण परिवार में जन्में बिंदेश्वर पाठक के लिए केवल घर के बाहर समाज में काम करना ही कठिन नहीं था बल्कि घरेलू मोर्चे पर भी इस बात को साबित करना था कि जिस दिशा में वे आगे बढ़ रहे हैं वह बहुत मुश्किल काम है और भविष्य में बहुत बड़े बदलाव लेकर आएगा।

बिंदेश्वर पाठक का जन्म बिहार के वैशाली जिले के रामपुर गांव में हुआ। उनके दादा मशहूर ज्योतिष शास्त्री थे और पिता आयुर्वेद के डॉक्टर। एक समृद्ध परिवार जहां घर में नौ कमरे थे अपना कुंआ था लेकिन शौचालय नहीं था। शौच के लिए बाहर ही जाना होता था। घर की सभी महिलाओं को सुबह चार बजे उठकर सूर्य उदय से पहले नित्यकर्म से निबटना होता था। घर की बहुत सी महिलाओं को दिनभर सिर में दर्द की शिकायत रहती थी चूंकि दिन भर पेशाब रोककर रखना होता था। खुले में बाहर जा नहीं सकती थीं। इस प्रकार बचपन से ही घर में व गांव में पक्का शौचालय न होने से किस प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है यह, वे बहुत अच्छी तरह जानते थे। इसके अलावा उस समय जातीय व्यवस्था इस कदर समाज में फैली हुई थी कि समाज एक होते हुए भी कई टुकड़ों में बंटा हुआ था। एक बार अनजाने में बिंदेश्वर पाठक ने एक दलित को छू लिया था जिस पर घर में हंगामा हो गया और बिंदेश्वर जी की दादी ने गोबर, गंगाजल और गौमूत्र उनके मुंह में डाल कर उनकी शुद्धि कराई थी। यह घटना भी उनके दिलोदिमाग में गहरा असर कर गई तभी से यह जातीय व्यवस्था उन्हें बहुत परेशान करती थी। बेशक उस समय बालक बिंदेश्वर को इस बात का अहसास नहीं था कि आगे चलकर वे इस समस्या का एक बहुत सशक्त समाधान निकालकर देश के आगे रख देंगे।

हर युवा की तरह पहले बिंदेश्वर पाठक को भी ठीक से पता नहीं था कि वे किस दिशा में भविष्य बनाएंगे, क्या करना चाहेंगे? कई तरह के विचार थे जो समय-समय पर आकार लेते रहे लेकिन एक बात स्पष्ट थी कि वे कोई ऐसा काम करना चाहते थे जिसे इज्जत की निगाह से देखा जाए। इसलिए उन्होंने महसूस किया कि लेक्चरर बनना ही ज्यादा अच्छा विचार है और अपनी पढ़ाई में ध्यान देने लगे। उन्होंने बीए समाज शास्त्र में किया और एमए अपराध विज्ञान में किया। वे इस विषय में स्पेशलाइजेशन करना चाहते थे लेकिन प्रथम श्रेणी में पास नहीं हो पाए। इस विषय पर रिसर्च करने का उनका सपना टूट गया। यह एक प्रकार से उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट भी था क्योंकि अब एक के बाद एक उनकी जिंदगी में इतने सारे मोड़ आते जा रहे थे कि वे खुद समझ नहीं पा रहे थे कि आगे क्या होगा। इस दौरान उन्होंने अध्यापन भी किया तो आयुर्वेदिक दवाएं भी बेचीं। फिर मन में बिजनेस करने का विचार आया लेकिन उस समय बिजनेस मैन की समाज में खास इज्जत नहीं थी। और बिंदेश्वर पाठक ऐसा काम करना चाहते थे जिसमें उन्हें पैसे के साथ-साथ इज्जत भी मिले। इसलिए बिजनेस भी छोड़ दिया। फिर उन्होंने अपने पुराने सपने को पूरा करने का मन बनाया और अपराध विज्ञान में आगे की पढ़ाई करने के लिए सागर विश्वविद्यालय में आवेदन किया और उनका चयन भी हो गया लेकिन कहते हैं न होता वही है जो किस्मत को मंजूर होता है। किस्मत उन्हें पटना ले गई जहां उन्होंने गांधी संदेश प्रचार नाम की एक उप समिति में काम किया। कुछ समय बाद उनका ट्रांसफर सफाई विभाग में हो गया। जहां गांधी जी के सपने को पूरा करने के काम में वे लग गए। उस समय मल हटाने के लिए बकेट टॉयलेट का इस्तेमाल किया जाता था जिसका विकल्प खोजना बहुत जरूरी था। साथ ही जिस ब्राह्मण वर्ग से वे आते थे वहां भी उनका विरोध हो गया। केवल ब्राह्मण समाज ही नहीं बल्कि घर पर भी घोर विरोध होने लगा।

ऐसी विषम परिस्थिति में भी वे विचलित नहीं हुए। क्योंकि वे जानते थे कि बेशक आज उनका विरोध हो रहा है लेकिन यदि वे अपने काम में सफल हो गए तो यह समाज के लिए बहुत बड़ा बदलाव होगा। इसलिए उन्होंने समाज से मिल रहे तानों की परवाह नहीं की और मैला ढोने का विकल्प खोजने लगे। इसके लिए उन्हें सबसे पहले उस समुदाय के साथ घुलना मिलना था जो सफाई के काम से जुड़ा था ताकि मैला ढोने वालों की समस्याओं को गहराई से समझ सकें। उन्होंने उसी बस्ती में कमरा ले लिया और काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने डब्ल्यूएचओ द्वारा प्रकाशित किताब इक्स्क्रीट डिस्पोजल इन रूरल एरिया एण्ड स्मॉल कम्यूनिटीज और राजेन्द्र लाल दास की किताब जोकि बेहतर टॉयलेट सिस्टम के स्वरूप पर लिखी गई थी, वह भी पढ़ी। इन दोनों किताबों ने बिंदेश्वर पाठक के दिमाग में घूम रहे सवालों को काफी हद तक स्पष्ट करने में मदद की। बिंदेश्वर पाठक ऐसी तकनीक चाहते थे जिसमें कम लागत आए और पानी भी कम खर्च हो। जल्दी बन जाए साथ ही कहीं भी बनाया जा सके। इसी सोच के साथ सुलभ तकनीक का अविष्कार हुआ। सुलभ दो डिब्बों में बना है। पहले में फ्लश करने के बाद मल कम्पोस्ट टॉयलेट में जाकर एकत्र हो जाता है। यह एक ढलान वाला टॉयलेट पैन है जिसकी सफाई बहुत आसान है। बस एक मग पानी से इसे साफ किया जा सकता है। इसके लिए किसी सीवर लाइन की जरूरत नहीं होती। पहले पिट में मौजूद मल उर्वर खाद में बदल जाता है। न इसमें बदबू होती है न कीड़े और न ही इसकी हाथ से सफाई की जरूरत होती है।

शुरु में इसके डिज़ाइन को तैयार करने में बिंदेश्वर पाठक को दो से तीन साल का समय लगा। उसके बाद समय-समय पर वे इसमें सुधार करते चले गए।

पहले जब बिंदेश्वर पाठक ने अपनी यह योजना सरकार के सामने रखी तो किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह कामयाब हो सकता है। उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ी अपने प्रोजेक्ट डिज़ाइन को समझाने में। कई इंजीनियर्स को भी लगा कि बिंदेश्वर तो इंजीनियर नहीं हैं इसलिए उन्होंने उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन बिंदेश्वर पाठक की मेहनत रंग लाई और सन 1970 में बिहार में सुलभ शौचालय बनाने के लिए मंजूरी मिल गई। फिर बिंदेश्वर पाठक ने सुलभ नाम से अपनी संस्था भी खोल दी। बिंदेश्वर पाठक का आइडिया कामयाब रहा। आगे चलकर सरकार की ओर से भी उन्हें प्रोत्साहन मिलने लगा। बिंदेश्वर पाठक ने डिज़ाइन बनाने के साथ-साथ सुलभ शौचालयों का निर्माण भी शुरु कर दिया। लेकिन फंड के लिए उन्हें बहुत ज्यादा इंतजार करना पड़ता था। जितना फंड मांगा जाता था उतना मिलता भी नहीं था जिससे कार्य उस प्रगति से नहीं हो पा रहा था जितना होना चाहिए था। फिर रामेश्वर नाथ जी जोकि एक आईएएस अधिकारी थे, उन्होंने बिंदेश्वर पाठक को सलाह दी कि वे अपने इस कार्य के लिए सरकारी अनुदान के भरोसे न रहें और जो काम कर रहे हैं उसी का पैसा लें। इस सीख को बिंदेश्वर पाठक ने अपना लिया और टॉयलेट इंस्टॉलेशन के लिए वे प्रति प्रोजेक्ट पैसे लेने लगे और शौचालय के रख-रखाव के लिए इस्तेमाल करने वालों से शुल्क लेने लगे। इससे फायदा यह मिला कि सुलभ अब अपने पैर पर खड़ा होने के लिए सक्षम हो गया।

अपने इस सफल प्रयोग की वजह से आज सुलभ इंटरनेशनल अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संस्था है। शौचालय निर्माण आज भी एक बड़ा मुद्दा है। जिसके लिए सरकार स्वच्छता अभियान भी चला रही है। लगातार लोगों को घर में शौचालय बनाने और इस्तेमाल करने की सलाह भी दी जा रही है। इसी काम को तो बिंदेश्वर पाठक सालों से करते आ रहे हैं। समाज को दिए अपने अमूल्य योगदान के लिए बिंदेश्वर पाठक को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। जिसमें इनर्जी च्लोब पुरस्कार, प्रियदर्शिनी पुरस्कार, दुबई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार, अक्षय ऊर्जा पुरस्कार और भारत सरकार की ओर से पद्म भूषण पुरस्कार शामिल हैं।