Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

जन्मदिन पर विशेष: जीवनभर देशभक्ति के गीत गाते रहे मैथिलीशरण गुप्त

जन्मदिन पर विशेष: जीवनभर देशभक्ति के गीत गाते रहे मैथिलीशरण गुप्त

Friday August 03, 2018 , 6 min Read

जब हमारा देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, तमाम सृजनधर्मी अपनी लेखनी और शब्दों के माध्यम से संघर्षशील जनता में जोश जगा रहे थे। ऐसे ही मनीषियों में एक थे महाकवि मैथिलीशरण गुप्त। भारतीय संस्कृति के इस अमर गायक, राष्ट्रकवि का आज यानी 3 अगस्त को जन्मदिन है।

काव्यपाठ करते मैथिलीशरण गुप्त का एक दुर्लभ चित्र

काव्यपाठ करते मैथिलीशरण गुप्त का एक दुर्लभ चित्र


आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में जिन कवियों ने ब्रज-भाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी को अपनी काव्य-भाषा बनाकर उसकी क्षमता से विश्व को परिचित कराया, उनमें गुप्तजी का नाम सर्वोपरि माना जाता है। 

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्रभक्ति की भावना को मुखर किया। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्र धारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव (झांसी) से कविता के माध्यम से निःसृत हो रहा था। मैथिलीशरण गुप्त की वह पंक्तियां आज भी कंठस्थ-सी मानो बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं -

जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं।

वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।

जैसाकि माना जाता है, कवि गुप्त अपने पिताश्री के स्नेहाशीष से राष्ट्रकवि के सोपान तक पहुंचे थे। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिन्दी में उनकी काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे। धोती और बंडी में माथे पर तिलक लगाए संत की तरह अपनी हवेली में रचनारत रहे कविवर गुप्त ने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। उनके जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भरे थे।

राष्ट्र-चेतना को मंत्र-स्वर देने वाले मैथिलीशरण गुप्त सच्चे अर्थों में राष्ट्रकवि थे। उन्होंने आम-जन के बीच प्रचलित देशी भाषा को मांजकर जनता के मन की बात, जनता के लिए, जनता की भाषा में कही। महात्मा गांधी ने कहा था - 'मैं तो मैथिलीशरणजी को इसलिए बड़ा मानता हूं कि वे हम लोगों के कवि हैं और राष्ट्रभर की आवश्यकता को समझकर लिखने की कोशिश कर रहे हैं।' उनकी इस कविता की प्रथम पंक्ति तो आज भी भारतीय जनजीवन में कहावत की तरह व्याप्त है -

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो, न निराश करो मन को।

संभलो कि सुयोग न जाय चला

कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला

समझो जग को न निरा सपना

पथ आप प्रशस्त करो अपना

अखिलेश्वर है अवलंबन को

नर हो, न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे

हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे

मरणोत्‍तर गुंजित गान रहे

सब जाय अभी पर मान रहे

कुछ हो न तज़ो निज साधन को

नर हो, न निराश करो मन को।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं

कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं

जान हो तुम भी जगदीश्वर के

सब है जिसके अपने घर के

फिर दुर्लभ क्या उसके जन को

नर हो, न निराश करो मन को।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में जिन कवियों ने ब्रज-भाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी को अपनी काव्य-भाषा बनाकर उसकी क्षमता से विश्व को परिचित कराया, उनमें गुप्तजी का नाम सर्वोपरि माना जाता है। उनका जन्म झांसी के समीप चिरगांव में 3 अगस्त, 1886 को हुआ। बचपन में स्कूल जाने में रुचि न होने के कारण उनके पिता सेठ रामचरण गुप्त ने उनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया तो उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी और बांग्ला का स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्त किया। काव्य-लेखन की शुरुआत उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कविताएं प्रकाशित कर कीं।

उस समय उन्हीं पत्रिकाओं में से एक 'सरस्वती' आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकल रही थी। युवा मैथिलीशरण ने आचार्यजी की प्रेरणा से खड़ी बोली में लिखना शुरू किया। 1910 में उनकी पहला प्रबंधकाव्य 'रंग में भंग' प्रकाशित हुआ। 'भारत-भारती' के प्रकाशन के साथ ही वे देश के लोकप्रिय कवियों में शुमार होने लगे। वह देश को आजादी मिलने तक जन-जागरण का शंखनाद करते रहे-

मलय पवन सेवन करके हम नन्दनवन बिसराते हैं,

हव्य भोग के लिए यहाँ पर अमर लोग भी आते हैं!

मरते समय हमें गंगाजल देना, याद दिलाते हैं,

वहाँ मिले न मिले फिर ऐसा अमृत जहाँ हम जाते हैं!

कर्म हेतु इस धर्म भूमि पर लें फिर फिर हम जन्म सहर्ष

हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥

'भारत भारती' की प्रस्तावना में वह लिखते हैं- 'यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है! ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा हीं पतन! परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में हीं पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ जाएँ और हम वैसे हीं पड़े रहेंगे? क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गए हैं कि अब उसे पा हीं नहीं सकते?

संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को, इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता-पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्त्ति के लिए मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया।' यह ग्रंथ तीन भागों में बाँटा गया है - अतीत खण्ड, वर्तमान खण्ड तथा भविष्यत् खण्ड। अतीत खण्ड का मंगलाचरण द्रष्टव्य है -

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरतीं-

भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।

हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते।

सीतापते! सीतापते !! गीतामते! गीतामते !

हिन्दी साहित्य में गद्य को चरम तक पहुंचाने में जहां प्रेमचंद्र का विशेष योगदान माना जाता है, वहीं पद्य और कविता में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त को सबसे आगे माना जाता है। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व गुप्तजी का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था लेकिन बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के संपर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय संबंधों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर ‘जयद्रथ वध’, ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। ‘साकेत’ उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है लेकिन ‘भारत-भारती’ उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मानी जाती है।

यह भी पढ़ें: देश के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को बनाने वाले शख्स को जानते हैं आप?