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केंद्र और यूपी सरकार का हाल: नो वर्क, नो करप्शन

सिर्फ इरादा नेक होने से कार्य सफल नहीं होते। कार्य की सफलता के लिए हौसले, हुनर, हिकमत और हुकूमत के इकबाल की दरकार होती है। शासक की धमक को अधिकारी और कर्मचारी महसूस करें, ऐसे इकबाल की जरूरत होती है।

UP के CM योगी आदित्यनाथ (फोटो साभार: ट्विटर)

UP के CM योगी आदित्यनाथ (फोटो साभार: ट्विटर)


सवाल है कि नौकरशाही के पेचोखम में फंस कर लोक कल्याणकारी योजनाओं का असमय दम तोडऩे का दस्तूर क्या खत्म हो पाया है? जब तक भ्रष्टाचार की गर्भनाल पर चोट नहीं की जायेगी, वह रावण की तरह अमर रहेगा और विकास कार्य पाण्डवों की भांति अज्ञातवास काटता रहेगा।

आज जब एक योगी, राजयोगी बन उत्तर प्रदेश की कमान संभाले हैं तो आशा की जा सकती है कि भ्रष्टाचार रूपी कौरवों के डर से विकास कार्यों के पाण्डवों को अज्ञातवास नहीं काटना पड़ेगा।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की भ्रष्टाचार के मामले में रैकिंग पहले से कुछ दर्जा बेहतर हुई है। भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, जहां वर्तमान में योगी सरकार कायम है, के अंशदान के बगैर इस पुनीत उपलब्धि को हासिल कर पाना सम्भव नहीं था। शायद तभी मोदी सरकार अपने पिछले तीन साल के शासन को भ्रष्टाचार मुक्त बता कर स्वयं अपनी पीठ थपथपा रही है। किन्तु यहां एक तथ्य यह भी काबिले गौर है कि भ्रष्टाचार करने के लिए कार्य का होना भी आवश्यक है। कार्य की जटिलता और औपचारिकता को इतना बढ़ा देना कि कार्य सम्पादन की स्थिति ही समाप्त हो जाए, भी भ्रष्टाचार को रोकने का एक माध्यम हो सकता है, यह बात, मोदी सरकार के तीन साल और 100 दिवसीय योगी सरकार के विकास कार्यों की गति और नीति, तसदीक करती है। हम अपने छात्र जीवन के दौरान व्यंग्य में ही कहा करते थे कि मोर स्टडी मोर कन्फ्यूजन, नो स्टडी नो कन्फ्यूजन। कुछ इसी तर्ज पर वर्तमान केन्द्रीय और यूपी सरकार कार्य कर रही हैं। नो वर्क, नो करप्शन के बीज-मंत्र के कारण विभागों के पास बजट का अभाव है, विकास कार्य ठप्प पड़े हैं।

100 स्मार्ट सिटी देखने की हसरत शायद अपने समय से पूरी हो जाती, अगर सरकार योजना के नियोजन और क्रियान्वयन के सापेक्ष बजट के प्रवाह में समयबद्ध निरन्तरता बनाती। उ।प्र। में आगरा एक्सप्रेस वे इसका एक उदाहरण है। यह एक अलहदा बात है कि आगरा एक्सप्रेस वे भ्रष्टाचार का मरकज बन कर भी उभरा है। किन्तु मोदी और अखिलेश के प्रशासनिक कौशल में यही अन्तर अपेक्षित है कि मोदी सरकार में कार्य समयबद्ध और गुणवत्तापरक होगा। भ्रष्टाचार की कोई सम्भावना नहीं रहेगी किन्तु यदि सरकार भ्रष्टाचार के डर से कार्य क्रियान्वयन की जटिलता और औपचारिकता को बढ़ा देगी तो कार्य सम्पादन नहीं सिर्फ घोषणाएं होंगी। योरोपीय देशों समेत विकसित राष्ट्रों की कार्यशैली से सीखने की आवश्यकता है कि समयबद्ध और भ्रष्टाचार रहित कार्य कैसे सम्पादित किए जाते हैं?

यहां यह भी देखना आवश्यक है कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए वजूद में आये निर्णय भी रक्तबीज की तरह नये भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। जैसे योगी सरकार ने प्रदेश में सत्ता संभालते ही सबसे पहले अवैध चल रहे स्लाटर हाउसों को बन्द करा दिया। कार्य विधि-सम्मत था। चहुंओर प्रशंसा होने लगी। किन्तु रातोंरात हजारों लोगों के हाथों से रोजगार छिन जाने के कारण विवाद भी बढऩे लगा। यहां तक कोर्ट को हस्तक्षेप करते हुए सरकार को लाइसेंस जारी करने का आदेश देना पड़ा। अब देखने वाली बात यह कि मीट की दुकानों के लिए जो मानक हैं वह उस स्तर के व्यवसाई के लिए उसे पूरा कर पाना आकाश कुसुम के समान है। उसके रोजगार के लिए लाइसेंस आवश्यक है। अब ऐसे में या तो वह रोजगार बदले अथवा व्यावहारिक किन्तु गैरकानूनी राह अपनाते हुए अपना कार्य कराये। यह तो एक प्रसंग है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो व्यवस्था को सुधारने की अपेक्षा उसके दरकने का रास्ता दिखाते हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा के सत्ता में आने के बाद अवैध खनन पर तो रोक लगी किन्तु यूपी, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के लाखों मजदूरों की रोजी-रोटी छीन गई। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर गिट्टी बालू के अवैध खनन के खिलाफ की जा रही कार्रवाई से यूपी-एमपी की सीमा पर बसे सोनभद्र-मिर्जापुर के खनन क्षेत्र में गिट्टी बालू का उत्पादन 70 फीसदी तक घट गया है। अवैध वसूली के लिए पूर्व सरकार में लगाया गया सिंडिकेट पुलिस के खौफ से भागा-भागा फिर रहा है तो वही परमिट की काला बाजारी पूरी तरह से बन्द है।

दीगर है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के सोनभद्र स्थित गिट्टी-बालू के खनन क्षेत्र में जहां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर से 05 लाख लोगों की आजीविका जुड़ी थी वहां आज सन्नाटा पसरा हुआ है। हजारों मजदूर रोज-बरोज अपनी-अपनी झोपडिय़ों को छोड़ कर अपने-अपने गांवों की और प्रस्थान कर रहे हैं। दरअसल उत्तर प्रदेश में खनन से शासन को भारी राजस्व के साथ ही भ्रष्ट मंत्रियों, अफसरों और बिचौलियों को उतना ही वीआईपी शुल्क भी मिलता रहा है। नये मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की घोषणा तो की और उसे अमल में लाने की सार्थक कवायद भी शुरू की, लेकिन मजदूरों के पुनर्वास का कोई उपाय नहीं किया जबकि यहां के खनन क्षेत्र में यह अनियमितता और भ्रष्टाचार अधिकारियों और मंत्रियों की मिलीभगत से ही परवान चढ़ा था। न तो इनमें उद्यमियों की कोई बड़ी भूमिका रही और न ही मजदूरों की।

खनन क्षेत्र के बन्द होने की वजह से लगभग 01 लाख मजदूर, 20 हजार वाहन चालक, इतने ही रोड साइड के दुकानदार, मिस्त्री, ढाबे, छोटे फेरीवाले, राजमिस्त्री और विक्रेता बेकार हो गए हैं। ऐसा नहीं है कि खनन उद्योग बन्द होने का प्रभाव सिर्फ उसमें काम करने वाले मजदूरों पर पड़ा है, पूरे प्रदेश में सरकारी और गैरसरकारी निर्माण कार्यों पर भी इसका असर दिखने लगा है। लागत बढऩे के कारण कई बड़ी सड़क परियोजनाओं पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है।

सोनभद्र से ट्रकों पर छत्तीसगढ़ वापस लौट रहे मजदूरों में से एक का कहना है- अब शायद नौकरी की तलाश में दूर जाना होगा, पहाड़ों पर अब कुछ नहीं होता, जमीन हमेशा बंजर रहती है, पशु-जानवर है नहीं, सोचा था पत्थर तोडूंगा तो जो पैसे मिलेंगे उससे बेटी की शादी कर दूंगा, लेकिन अब सारे रास्ते बन्द हो गए, मालिक ने भी खदान बन्द होने का बहाना बना कर एक पैसा नहीं दिया, कहां जाऊं, क्या करूं, सभी रास्ते बन्द हैं! यही केन्द्र सरकार, जो सेना के बलिदान को तो हर मंच से गाती है किन्तु उसके सैनिक अभी भी हथियारों की कमी से जूझ रहे हैं। इस देश के फौजी को, राष्ट्रवादी सरकार के तीन साल के कार्यकाल के बाद भी आरामदेह कॉम्बैट बूट, हल्के बुलेटप्रूफ वेस्ट और विश्वसनीय एसॉल्ट राइफल, रात में मार करने वाले हॉविट्जर्स, मिसाइल्स के लिए इन्तजार करना पड़ रहा है। थल सेना को आधुनिक युद्धक किट मुहैया कराने की व्यवस्थागत नाकामी का नतीजा है कि फौजियों को अपनी कारतूस की पेटी में एक लीटर वाली पानी की बोतल खोंस कर ले जाना पड़ता है क्योंकि उसकी बेल्ट में सेना वाली बोतलें लटकाने के लिए लूप नहीं होता।

सूत्रों के मुताबिक 23 लाख करोड़ रुपये के 140 से ज्यादा प्रोजेक्ट्स मंत्रालय में अटके हुए हैं। एक सूत्र का कहना है कि इस वित्त वर्ष में केवल 5800 करोड़ रुपये के प्रॉजेक्टस पर ही मंजूरी मिल पाई है। वहीं तीसरी पीढ़ी के माने जाने वाले एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल्स एक दशक से ज्यादा समय से अटके हैं। मोदी सरकार में रक्षा सौदों की कछुआ चाल के पीछे सबसे बड़ा कारण रक्षा सौदों में होने वाले भ्रष्टाचार से बचने की कोशिश है। दरअसल भ्रष्टाचार रक्षा सौदे की संरचना में गहरे अन्तर्निहित है और संरचना, पद्धति व प्रक्रिया में आमूल बदलाव लाए बिना कोई छोटी कोशिश बेमानी होगी। ऐसा कोई सौदा नहीं है, जिसमें बिचौलिये नहीं होते या जिसमें कमीशन की मोटी रकम नहीं ली और दी जाती। लेकिन क्या इस संस्थागत भ्रष्टाचार से बचने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को दांव पर लगाना उचित है? इस गन्दगी को साफ करने की शुरुआत देश में हथियार उत्पादन का आधार तैयार करने से की जा सकती है। इतिहास में कोई देश रक्षा क्षेत्र की बुनियादी जरूरतों के लिए पराश्रित रह कर महाशक्ति नहीं बना। किसी भी देश को महाशक्ति बनने के लिए सबसे पहले अपने साधनों से अपनी रक्षा करने की क्षमता पैदा करने की अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। किन्तु जब तक रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता न हासिल हो तब तक हथियार-विहीन हो असुरक्षित, लाचार बने रहना कहां तक उचित है।

मोदी सरकार ने सत्ता पर काबिज होते ही रोजगार बढ़ाने के लिए बड़े तामझाम के साथ अनेक घोषणाएं कीं जिनसे युवाओं में रोजगार पाने की उम्मीद जगना स्वाभाविक था। इनमें 'मेक इन इंडिया' से सरकार को ही नहीं, युवाओं को भी नौकरियों की बड़ी उम्मीद थी। इसके लिए अनेक क्षेत्रों को विदेशी निवेश के लिए खोला गया, उनमें विदेशी निवेश की सीमा भी बढ़ायी गई पर जमीन पर मेक इन इंडिया नॉन स्टार्टर ही रही। 'स्टार्ट अप इंडिया' से काफी उम्मीदें बनी थीं। मोदी सरकार ने इसके लिए 10 हजार करोड़ का भारी भरकम फण्ड भी मुहैय्या कराया। बताया गया कि इससे दस साल में 18 लाख रोजगार पैदा होंगे, यानी 18 लाख सालाना। बिजनेस अखबार मिंट की जनवरी, 2017 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस फण्ड में से एक धेला भी वितरित नहीं हो पाया है। सरकार के पास दिसम्बर, 2016 तक 1368 आवेदन आये, जिनमें 502 को स्टार्ट अप के योग्य माना गया। इनमें से 111 को टैक्स राहत के लिए योग्य माना गया पर अन्त में यह टैक्स लाभ केवल 08 स्टार्ट अप को प्रदान किये गए।

'स्टैंड अप इंडिया में अनुसूचित जाति, जनजातियों और महिलाओं में उद्यमिता के माध्यम से रोजगार बढ़ाने की मुहिम थी। इससे एक करोड़ रुपये तक कर्ज की सुविधा थी। लक्ष्य था कि कम से कम राष्ट्रीयकृत बैंकों की हर शाखा ऐसा एक कर्ज अवश्य बांटेगी। लेकिन जमीन पर इसका भी कोई असर नहीं दिखाई देता है। 'स्किल इंडिया' भी रोजगार मूलक योजना है जिसमें वर्ष 2022 तक 40 करोड़ युवाओं को ट्रेनिंग देने का लक्ष्य है, पर यह योजना भी अपने लक्ष्य से काफी पीछे है। सरकार की यह तमाम कोशिशें अब तक खण्डहर ही साबित हुई हैं।

सिर्फ इरादा नेक होने से कार्य सफल नहीं होते। कार्य की सफलता के लिए हौसले, हुनर, हिकमत और हुकूमत के इकबाल की दरकार होती है। शासक की धमक को अधिकारी और कर्मचारी हमेशा महसूस करें, ऐसे इकबाल की जरूरत होती है। सवाल है कि जो मौजूदा राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय घोटाले जांच के दायरे में हैं क्या उनकी जांच निर्धारित समय में पूरी हो पाई? क्या विगत तीन वर्षों में ए. राजा, कनिमोझी, कलमाड़ी में कोई अपने अंजाम को प्राप्त हो सका?

कैग प्रत्येक वर्ष अनियमितता की रपट प्रस्तुत करता है, कितनों पर कार्रवाई सम्भव हो पाई है? नौकरशाही के पेचोखम में फंस कर लोक कल्याणकारी योजनाओं का असमय दम तोडऩे का दस्तूर क्या खत्म हो पाया? शायद नहीं। लिहाजा जब तक भ्रष्टाचार की गर्भनाल पर चोट नहीं की जायेगी, वह रावण की तरह अमर रहेगा और विकास कार्य पाण्डवों की भांति अज्ञातवास काटता रहेगा। आज जब एक योगी, राजयोगी बन उत्तर प्रदेश की कमान संभाले हैं तो आशा की जा सकती है कि भ्रष्टाचार रूपी कौरवों के डर से विकास कार्यों के पाण्डवों को अज्ञातवास नहीं काटना पड़ेगा। 

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