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हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य हैं नामवर सिंह

हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित आलोचक एवं वाचिक परंपरा के आचार्य नामवर सिंह के जन्मदिन पर विशेष...

हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य हैं नामवर सिंह

Tuesday May 01, 2018 , 9 min Read

हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित आलोचक एवं वाचिक परंपरा के आचार्य नामवर सिंह का आज जन्मदिन है। साहित्य-संस्कृति और उसके सौंदर्यशास्त्र पर वह दो टूक कहते हैं - हिन्दी में साहित्यिक आलोचना का पुराना सामाजिक-राजनीतिक तेवर अब भी बरकरार है किन्तु सौन्दर्यशास्‍त्र के संपर्क से संस्‍कृति की तरह और लगभग संस्‍कृति‍ के साथ ही साहित्यिक आलोचना का सुंदरीकरण हुआ। सुंदरीकरण शब्‍द सुन्‍दर नहीं है। 'सुन्‍दरीकरण' कहें तो भी बात बनने की जगह बिगड़ती-सी लगती है। ठेठ हिन्दी में हिन्दी के अपने देसी लहजे में कहें तो सौन्दर्यशास्‍त्र ने आलोचना को 'सुन्‍दर' बनाया।

नामवर सिंह

नामवर सिंह


आलोचना अपनी कोख से ही आलोचनात्‍मक रही है। हिन्दी में 'आलोचना' शब्‍द की व्‍युत्‍पत्ति भले ही 'लुच्' धातु से बताकर चारों ओर अच्‍छी तरह देखने के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाए, इसे देखने के तेवर कई तरह के रहे हैं। देखने की वह भी एक दृष्टि होती है जो सारे छद्म को तार-तार करके रख देती है। यह वह दृष्टि है जिससे बने हुए सभ्‍य और संस्‍कृत जन घबराते हैं, डरते हैं, थर्राते हैं।

डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य माने जाते हैं, जैसेकि बाबा नागार्जुन घूम-घूमकर किसानों और मजदूरों की सभाओं से लेकर छात्र-नौजवानों, बुद्धिजीवियों और विद्वानों तक की गोष्ठियों में अपनी कविताएँ बेहिचक सुनाकर जनतान्त्रिक संवेदना जगाने का काम करते रहे थे, वैसे ही नामवर सिंह घूम-घूमकर वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, कलावाद, व्यक्तिवाद आदि के खिलाफ साहित्यिक चिन्तन को प्रेरित करते रहे हैं। आज (1 मई) नामवर सिंह का जन्मदिन है।

नामवर सिंह के कृतित्व और व्यक्तित्व दोनों का ही, अपने समय की बनती हुई युवा-पीढ़ी पर गहरा प्रभाव पड़ा है। उनके चिन्तन, उनकी भाषा, उनकी रचनाशीलता और उनके व्यक्तित्व से नयी पीढ़ी को एक नई दिशा मिली है। आलोचना में नामवर सिंह का यही महत्व है कि जब काव्य चिन्तन में जीवन-निरपेक्ष साहित्यिकता को महत्व मिल रहा था, वे जीवन-सापेक्ष कलात्मकता के लिए संघर्षरत रहे। नामवर सिंह की वैचारिक दृष्टि आधुनिक साहित्यिक संदर्भों में काफी मूल्यवान रही है। वह हिन्दी के शीर्ष शोधकार-समालोचक, निबन्धकार तथा मूर्द्धन्य सांस्कृतिक-ऐतिहासिक उपन्यास लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी के सबसे प्रिय शिष्‍यों में एक हैं।

अत्यधिक अध्ययनशील तथा विचारक प्रकृति के नामवर सिंह हिन्दी में अपभ्रंश साहित्य से आरम्भ कर निरन्तर समसामयिक साहित्य से जुड़े हुए आधुनिक अर्थ में विशुद्ध आलोचना के प्रतिष्ठापक तथा प्रगतिशील आलोचना के प्रमुख हस्‍ताक्षर माने जाते हैं। उनका जन्म 1 मई 1927 को चंदौली (उ.प्र.) के गाँव जीयनपुर में हुआ था। उन्होंने हिन्दी साहित्य में एमए और पीएचडी करने के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन करने लगे। वह 1959 लोकसभा चुनाव भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार रूप में लड़े लेकिन पराजित हो गए। उसके बाद उन्हें बीएचयू छोड़ना पड़ा और वह सागर विश्वविद्यालय एवं जोधपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन करने लगे। बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन्होंने काफी समय तक अध्यापन कार्य किया।

अवकाश प्राप्त करने के बाद भी वे उसी विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में इमेरिट्स प्रोफेसर रहे। वे हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, बांला एवं संस्कृत भाषा भी जानते हैं। 'बक़लम ख़ुद' में उनकी उपलब्ध कविताओं एवं अन्य विधाओं की गद्य रचनाएं संकलित हैं। 'हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग' उनकी शोध-कृति रही है, जिसका संशोधित संस्करण अब 'पृथ्वीराज रासो: भाषा और साहित्य' नाम से उपलब्ध है। नामवर सिंह की आलोचनात्मक कृतियों में आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, छायावाद, इतिहास और आलोचना, कहानी : नयी कहानी, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परम्परा की खोज, वाद विवाद और संवाद, साक्षात्कार, कहना न होगा, बात बात में बात, पत्र-संग्रह, काशी के नाम आदि प्रमुख हैं।

इनके अलावा आलोचक के मुख से, कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता, हिन्दी का गद्यपर्व, प्रेमचन्द और भारतीय समाज, ज़माने से दो-दो हाथ, साहित्य की पहचान, आलोचना और विचारधारा, सम्मुख, साथ साथ, पुरानी राजस्थानी, चिन्तामणि आदि उल्लेखनीय हैं। उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिंदी अकादमी के शलाका सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, शब्द-साधक शिखर सम्मान, महावीरप्रसाद द्विवेदी सम्मान आदि से समादृत किया जा चुका है।

रचना की प्राथमिकता के प्रश्‍न पर नामवर सिंह प्रतिप्रश्न करते हैं कि 'पहले संस्‍कृति या पहले आर्थिक और राजनीतिक उत्‍थान? सच पूछिए तो यह प्रश्‍न ही गलत ढंग से उठाया गया है। एक निश्चित ऐतिहासिक स्थिति की विशिष्‍टता के अनुरूप यह सामान्‍य प्रश्‍न भी विशिष्‍ट रूप से सामने आता है। इतिहास की संश्लिष्‍ट प्रक्रिया में प्राथमिकता का प्रश्‍न इतने सामान्‍य रूप में प्रस्‍तुत नहीं होता और न आगे-पीछे के ढंग से वह हल ही किया जाता है। मिसाल के लिए उपनिवेशवादी दौर में जब राजनीतिक स्‍वाधीनता भारत का प्रथम लक्ष्‍य था, सारे सांस्‍कृतिक प्रयास इस बिना पर मुल्‍तवी नहीं रखे गए कि आजादी मिल जाने के बाद ही संस्‍कृति की ओर ध्‍यान दिया जाएगा।

आजादी के इंतजार में यदि डेढ़-दो सौ वर्षों तक सारे सांस्‍कृतिक कार्य ठप्‍प रखे गए होते, स्‍वाधीन भारत कितनी मूल्‍यवान सांस्‍क‍ृतिक विरासत से वंचित रह जाता। यही नहीं बल्कि आजादी के बाद क्षतिपूर्ति असंभव होती। यह कहना कि संस्‍कृति एक दिन में नहीं बनती- संस्‍कृतिवाद नहीं है। इसी प्रकार का एक भ्रम यह भी है कि संस्‍कृति का बुद्धि-विलास विकसित और समृद्ध यूरोप, अमेरिका तथा जापान को मुबारक, एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देश फिलहाल संस्‍कृति की ऐयाशी में अपने सीमित साधनों का अपव्‍यय नहीं कर सकते। एक तो इस कथन के पीछे स्‍पष्‍टत: संस्‍कृति की अत्‍यन्‍त सीमित धारणा निहित है। दूसरे, विकास में संस्‍कृति की सक्रिय भूमिका की कोई पहचान नहीं है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों ने सांस्‍कृतिक चेतना का विकास करके ही साम्राज्‍यवादी शिकंजे से अपनी राजनीतिक स्‍वाधीनता प्राप्‍त की। राष्‍ट्रीय चेतना के विकास के बिना स्‍वाधीनता की प्राप्ति असंभव थी, और कहने की आवश्‍यकता नहीं कि राष्‍ट्रीय चेतना वस्‍तुत: एक सांस्‍कृतिक चेतना है। स्‍वाधीनता-प्राप्ति के बाद इस सांस्‍कृतिक चेतना की आवश्‍यकता कम हुई नहीं है। आर्थिक विकास और जनतांत्रिक राजनीति का विस्‍तार करने के साथ ही अपनी स्‍वाधीनता की रक्षा निश्‍चय ही प्रधान आवश्‍यकताएँ प्रतीत होती हैं, किन्तु इन सभी कार्यों को संपन्‍न करने के लिए देश की जनता को सांस्‍कृतिक चेतना से लैस करना भी उतना ही आवश्‍यक है।

यदि इस बात पर जोर न दिया गया तो संस्‍कृति का समूचा मैदान ऐसे तत्त्‍वों के हाथ पड़ जाएगा जो किसी-न-किसी तरह संस्कृतिवाद की विचारधारा का ही प्रचार करते हैं। संस्‍कृतिवाद का जवाब अर्थवाद नहीं है; जवाब है संस्‍कृति की ऐसी मूलगामी आलोचना जो आलोचना की संस्‍कृति के मूल अभि‍प्राय का मायाजाल छिन्‍न-भिन्‍न करने में समर्थ हो। 'आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना' शीर्षक अपने एक लेख में नामवर सिंह लिखते हैं कि वैसे, कहने के लिए सौन्दर्यशास्‍त्र ने संस्‍कृति को संकुचित किया, किन्तु हकीकत में वह शिष्‍ट वर्ग है जिसने आगे-पीछे सौन्दर्यशास्‍त्र और संस्‍कृति दोनों को संकुचित किया। इस प्रक्रिया में संस्‍कृति अपने सही अर्थ में एक विचारधारा बन गई।

विचारधारा की पूरी ताकत के साथ। संस्‍कृति का एक अलग वाद खड़ा हो गया। नाम पड़ा संस्‍कृतिवाद। इस संस्‍कृतिवाद ने साहित्‍य की आलोचना को भी प्रभावित किया। संस्‍कृतिवाद ने जिस तरह संस्‍कृति को संकुचित किया, उसी तरह उसने साहित्‍य की आलोचना को भी संकुचित किया। संस्‍कृतिवाद की शब्‍दावली में कहें तो संस्‍कृति ने साहित्‍य की आलोचना को संस्‍कृत-सुसंस्‍कृत किया। आलोचना अपनी कोख से ही आलोचनात्‍मक रही है। हिन्दी में 'आलोचना' शब्‍द की व्‍युत्‍पत्ति भले ही 'लुच्' धातु से बताकर चारों ओर अच्‍छी तरह देखने के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाए, इसे देखने के तेवर कई तरह के रहे हैं। देखने की वह भी एक दृष्टि होती है जो सारे छद्म को तार-तार करके रख देती है। यह वह दृष्टि है जिससे बने हुए सभ्‍य और संस्‍कृत जन घबराते हैं, डरते हैं, थर्राते हैं। अंग्रेजी का 'क्रिटिसिज्‍म' शब्‍द अपने उस आलोचनात्‍मक अर्थ को आज भी सुरक्षित रखे हुए है। दोष-दर्शन और छिद्रान्‍वेषण के अर्थ में आज भी आलोचना का व्‍यवहार देखा और सुना जाता है।

यद्यपि संस्कृति के संबंध में हिंदी के मूर्धन्य आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल कहते हैं कि आलोचना-कर्म हिंदी साहित्य का अभिन्‍न अंग है। ज्‍यों-ज्‍यों हमारी वृत्तियों पर सभ्‍यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे, कवि-कर्म कठिन होता जाएगा और उसके साथ ही आलोचना-कर्म भी। इस सभ्‍यता के कारण क्रोध आदि को भी अपना रूप कुछ बदलना पड़ता है, वह भी सभ्‍यता के साथ अच्‍छे कपड़े-लत्ते पहनकर समाज में आता है जिससे मार-पीट, छीन-खसोट आदि भद्दे समझे जानेवाले व्‍यापारों का कुछ निवारण होता है। वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी का मानना है कि साहित्‍य अपनी विशिष्‍ट संस्‍कृति भी विकसित करता है। यह साहित्यिक संस्‍कृति साहित्‍य में सक्रिय शक्तियों और दृष्टियों के बीच संवाद का शील निरूपण करती है, सीमाएँ निर्धारित करती है, खेल के नियम बनाती है ताकि कुछ सीमाओं का अतिक्रमण न हो सके।

वह (संस्‍कृति) असहमति और अंतर्विरोधों को मुख्‍य प्रक्रिया में समाहित करती है। साहित्य और संस्कृति के सवाल पर सदियों पहले मैथ्‍यू आर्नल्‍ड ने लिखा था कि आलोचना संस्‍कृति का वर्चस्‍व बढ़ाती है और संस्‍कृति समरसता एवं संतुलन स्‍थापित करने का साधन है क्‍योंकि वह समरसता और संतुलन की अभिव्‍यक्ति भी है। इस संस्‍कृति में वही सहयोग दे सकते हैं, जो झगड़ा-फसाद जैसे व्यावहारिक मसलों से अलग रहते हों और जो अपने आपको तथा अपनी भाषा को हाट-बाजार के धुएँ से काला नहीं करते हों। नामवर सिंह का मानना है कि अंग्रेजी में मैथ्‍यू आर्नल्‍ड से पहले साहित्यिक आलोचना का दोष-दर्शनवाला रूप प्रचलित था और शायद प्रबल भी।

साहित्‍य के आलोचक सामाजिक आलोचना के लिए भी इस अस्‍त्र का उपयोग करते थे। रूस में बेलिंस्‍की जैसे तेजस्‍वी आलोचक ने साहित्यिक आलोचना को जिस तरह सामाजिक और राजनीतिक आलोचना के प्रखर अस्‍त्र के रूप में इस्‍तेमाल किया, वह उन्‍नीसवीं सदी के पूर्वार्ध के इतिहास का संभवत: सबसे शानदार अध्‍याय है। हिन्दी में भी उन्‍नीसवीं सदी के उत्‍तरार्ध से चलकर बीसवीं सदी में महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचन्‍द्र शुक्‍ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा से आती हुई साहित्यिक आलोचना का वह सामाजिक-राजनीतिक तेवर अब भी बरकरार है किन्तु सौन्दर्यशास्‍त्र के संपर्क से संस्‍कृति की तरह और लगभग संस्‍कृति‍ के साथ ही साहित्यिक आलोचना का सुंदरीकरण हुआ। सुंदरीकरण शब्‍द सुन्‍दर नहीं है। 'सुन्‍दरीकरण' कहें तो भी बात बनने की जगह बिगड़ती-सी लगती है। ठेठ हिन्दी में हिन्दी के अपने देसी लहजे में कहें तो सौन्दर्यशास्‍त्र ने आलोचना को 'सुन्‍दर' बनाया। 'सुन्‍नर' बनाया।

नामवर सिंह लिखते हैं कि साहित्‍य के लिए न तो कलाओं का संपर्क हानिकर है, न सौन्दर्यशास्‍त्र का। हानिकर है कलावाद की कला और कलावाद का सौन्दर्यशास्‍त्र; और इस सौन्दर्यशास्‍त्र पर कलावाद की छाप इतनी गहरी है कि वह सौन्दर्यशास्‍त्र की अधिकांश अवधारणाओं तक में घर किए बैठी है - यहाँ तक कि सौन्दर्यशास्‍त्र की समूची भाषा कलावादी अभिरुचि से ओतप्रोत है। इस भाषा में सोचनेवाला व्‍यक्ति साहित्‍य को तो रूपाकारों में देखने का अभ्‍यस्‍त हो ही जाता है, जीवन-जगत और समाज को भी उन्‍हीं रंग-रूपों की तरह देखने लगता है। 'देखहि चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे।' आकस्मिक नहीं कि इस सौन्दर्यशास्‍त्रीय प्रभाव में सारा साहित्‍य सिमटकर 'काव्‍य' बन जाता है, अभिरुचि कविता तक सिमट रहती है। आगे बढ़ी तो नाटक तक और वह भी इसलिए कि उसमें विविध कलाओं का योग रहता है। उपन्‍यास और कहानी इस अभिरुचि के दरवाज़े के बाहर होते हैं। इनमें से एकाध को प्रवेश भी मिल पाया तो इसलिए कि उनमें 'कवित्‍व' है। यहाँ 'कवित्‍व' का अर्थ विशेष है। एक खास काट का कवित्‍व। नख-दन्‍त-विहीन। गर्द-गुबार रहित। जिन बातों के कारण कहानी-उपन्‍यास वर्जित रहते हैं।

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