द्विवेदी युग के प्रगतिशील, फक्कड़ कवि पद्म भूषण बालकृष्ण शर्मा नवीन
एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए: बालकृष्ण शर्मा नवीन
'कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए। एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए....।' ये पंक्तियां हैं द्विवेदी युग के प्रगतिशील, फक्कड़ कवि पद्म भूषण बालकृष्ण शर्मा नवीन की, जिनका आज (08 दिसंबर) जन्मदिन है।
नवीन जी यद्यपि सन 1930 तक कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे लेकिन उनका पहला कविता संग्रह 'कुंकुम' 1936 में प्रकाशित हुआ। इस गीत संग्रह का मूल स्वर यौवन के पहले उद्दाम प्रणयावेग एवं प्रखर राष्ट्रीयता का है।
उनके सृजनकाल की पहली रचना एक कहानी 'सन्तू' थी। इसे उन्होंने छपने के लिए सरस्वती में भेज दिया था। उसके बाद वह कविताओं की रचना करने लगे। आजादी के पूरे आंदोलन के दौरान उनकी जेल यात्राओं का सिलसिला चलता रहा।
बालकृष्ण शर्मा नवीन ने जिस वक्त में साहित्य साधना शुरू की, उस समय द्विवेदी युग समाप्त हो रहा था, स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन साहित्य में मुखर होने लगा था। वह ऐसे सेतु समय में यशस्वी हुए, जब दो युगों की प्रवृत्तियाँ संधि-सम्मिलन कर रही थीं। 'महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा ने ही कवियों की चिर-उपेक्षिता 'उर्मिला' का लेखन उनसे 1921 में प्रारम्भ कराया, जो सन् 1934 में पूरा हुआ। इस पुस्तक में द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता, स्थूल नैतिकता या प्रयोजन (जैसे रामवन गमन को आर्य संस्कृति का प्रसार मानना) स्पष्ट देखे जा सकते हैं, परन्तु मूलत: स्वच्छन्दतावादी गीतितत्व प्रधान 'नवीन' का यह प्रयास प्रबन्धत्व की दृष्टि से बहुत सफल नहीं कहा जा सकता।
छह सर्गों वाले इस महाकाव्य ग्रन्थ में उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुनर्मिलन तक की कथा कही गयी है, पर वर्णन प्रधान कथा के मार्मिक स्थलों की न तो उन्हें पहचान है और न राम-सीता के विराट व्यक्तित्व के आगे लक्ष्मण-उर्मिला बहुत उभर ही सके हैं। उर्मिला का विरह अवश्य कवि की प्रकृति के अनुकूल था और कला की दृष्टि से सबसे सरस एवं प्रौढ़ अंश वही है। यों अत्यन्त विलम्ब से प्रकाशित होने के कारण सम्यक् ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थ का मूल्यांकन नहीं हो सका। विलम्ब तो उनकी सभी कृतियों के प्रकाशन में हुआ।'
नवीन जी यद्यपि सन 1930 तक कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे लेकिन उनका पहला कविता संग्रह 'कुंकुम' 1936 में प्रकाशित हुआ। इस गीत संग्रह का मूल स्वर यौवन के पहले उद्दाम प्रणयावेग एवं प्रखर राष्ट्रीयता का है। यत्र-तत्र रहस्यात्मक संकेत भी हैं, परन्तु उन्हें तत्कालीन वातावरण का फ़ैशन प्रभाव ही मानना चाहिए। 'कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ' तथा 'आज खड्ग की धार कुण्ठिता है' जैसी प्रसिद्ध कविताएँ 'कुंकुम' में संग्रहीत हैं। उनकी कालजयी रचना 'कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ', तो आज भी हिंदी कवियों के कंठ-कंठ में बसी हुई है -
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए,
प्राणों के लाले पड़ जाएँ, त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए,
नाश और सत्यानाशों का-धुँआधार जग में छा जाए,
बरसे आग, जलद जल जाएँ, भस्मसात भूधर हो जाएँ,
पाप-पुण्य सद्सद भावों की, धूल उड़ उठे दायें-बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाए- तारे टूक-टूक हो जाएँ
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए।
माता की छाती का अमृत-मय पय काल-कूट हो जाए,
आँखों का पानी सूखे, वे शोणित की घूँटें हो जाएँ,
एक ओर कायरता काँपे, गतानुगति विगलित हो जाए,
अंधे मूढ़ विचारों की वह अचल शिला विचलित हो जाए,
और दूसरी ओर कंपा देने वाला गर्जन उठ धाए,
अंतरिक्ष में एक उसी नाशक तर्जन की ध्वनि मंडराए,
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए,
नियम और उपनियमों के ये बंधक टूक-टूक हो जाएँ,
विश्वंभर की पोषक वीणा के सब तार मूक हो जाएँ
शांति-दंड टूटे उस महा-रुद्र का सिंहासन थर्राए
उसकी श्वासोच्छ्वास-दाहिका, विश्व के प्रांगण में घहराए,
नाश! नाश!! हा महानाश!!! की प्रलयंकारी आँख खुल जाए,
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए।
सावधान! मेरी वीणा में, चिनगारियाँ आन बैठी हैं,
टूटी हैं मिजराबें, अंगुलियाँ दोनों मेरी ऐंठी हैं।
कंठ रुका है महानाश का मारक गीत रुद्ध होता है,
आग लगेगी क्षण में, हृत्तल में अब क्षुब्ध युद्ध होता है,
झाड़ और झंखाड़ दग्ध हैं-इस ज्वलंत गायन के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है निकली मेरे अंतरतर से!
कण-कण में है व्याप्त वही स्वर रोम-रोम गाता है वह ध्वनि,
वही तान गाती रहती है, कालकूट फणि की चिंतामणि,
जीवन-ज्योति लुप्त है - अहा! सुप्त है संरक्षण की घड़ियाँ,
लटक रही हैं प्रतिपल में इस नाशक संभक्षण की लड़ियाँ।
चकनाचूर करो जग को, गूँजे ब्रह्मांड नाश के स्वर से,
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है निकली मेरे अंतरतर से!
दिल को मसल-मसल मैं मेंहदी रचता आया हूँ यह देखो,
एक-एक अंगुल परिचालन में नाशक तांडव को देखो!
विश्वमूर्ति! हट जाओ!! मेरा भीम प्रहार सहे न सहेगा,
टुकड़े-टुकड़े हो जाओगी, नाशमात्र अवशेष रहेगा,
आज देख आया हूँ - जीवन के सब राज़ समझ आया हूँ,
भ्रू-विलास में महानाश के पोषक सूत्र परख आया हूँ,
जीवन गीत भूला दो - कंठ, मिला दो मृत्यु गीत के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है, निकली मेरे अंतरतर से!
नवीन जी का जन्म 8 दिसम्बर, 1897 को ग्वालियर (म.प्र.) के भयाना गांव में हुआ था। उन्होंने उज्जैन से दसवीं और कानपुर से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। आजादी के आंदोन के दौरान लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट और गणेशशंकर विद्यार्थी के संपर्क में आने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। सन् 1916 में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने पहुंच गए। वहां उनकी मुलाकात माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त एवं गणेशशंकर विद्यार्थी से हुई। फिर कानपुर में छात्र जीवन बिताने लगे। बी.ए. फ़ाइनल के दौरान ही वह गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन में कूद पड़े। भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य के रूप में हिन्दी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार कराने में उनका बड़ा योगदान रहा है। मृत्युपर्यंत तक वह सांसद रहे। गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में वह उस समय के महत्त्वपूर्ण अखबार 'प्रताप' से जुड़ गये। 1931 में विद्यार्थी जी की मृत्यु के बाद कई वर्षों तक वे ही 'प्रताप' के प्रधान सम्पादक रहे। हिन्दी की राष्ट्रीय काव्य धारा को आगे बढ़ाने वाली पत्रिका 'प्रभा' का भी उन्होंने सम्पादन किया। उन्होंने अपनी रचनाओं से ब्रजभाषा को समृद्ध किया-
सरद जुन्हाई अब कहां-कहां बसंत उछाह।
जीवन में अब बीच रह्यो चिर निदाघ कौ दाह।।
हम बिषपायी जनम के सहैं अबोल-कुबोल।
मानत नैंकु न अनख हम जानत अपनो मोल।।
उनके सृजनकाल की पहली रचना एक कहानी 'सन्तू' थी। इसे उन्होंने छपने के लिए सरस्वती में भेज दिया था। उसके बाद वह कविताओं की रचना करने लगे। आजादी के पूरे आंदोलन के दौरान उनकी जेल यात्राओं का सिलसिला चलता रहा। नमक सत्याग्रह, फिर व्यक्तिगत सत्याग्रह और अंत में 1942 के ऐतिहासिक भारत छोड़ो-आंदोलन में भी वह शामिल हुए। उन्होंने कुल छ: जेल यात्राएं कीं। उनकी श्रेष्ठ रचनाएं जेल यात्राओं के दौरान ही रची गईं। उनके महत्वपूर्ण काव्यग्रंथ हैं- कुमकुम, रश्मिरेखा, अपलक, क्वासि, उर्मिला, विनोबा स्तवन, प्राणार्पण तथा हम विषपायी जन्म के। उनकी कविताओं का मूलस्वर रोमाण्टिक था -
कलाकार कब का मैं प्रियतम, कब मैंने तूलिका चलाई
मैंने कब यत्नत: कला के मंदिर में वर्तिका जलाई
यों ही कभी काँप उठ्ठी है मेरी अंगुली और कलाई
यों ही कभी हुए हैं कुछ-कुछ रसमय कुछ पाहन अरसीले!
बन-बनकर मिट गए अनेकों मेरे मधुमय स्वप्न रंगीले!
मैंने कब सजीवता फूँकी जग के कठिन शैल पाहन में
मैं कर पाया प्राणस्फुरण कब अपने अभिव्यंजन वाहन में
मुझे कब मिले सुंदर मुक्ता भावार्णव के अवगाहन में
यदा-कदा है मिले मुझे तो तुम जैसे कुछ अतिथि लजीले!
यों ही बन-बनकर बिगड़े हैं मेरे मधुमय स्वप्न रंगीले।
मेरे स्वप्न विलीन हुए हैं किंतु शेष है परछाई-सी
मिटने को तो मिटे किंतु वे छोड़ गए हैं इक झाईं-सी
उस झिलमिल की स्मृति-रेखा से हैं वे आँखे अकुलाई-सी
उसी रेख से बन उठते हैं फिर-फिर नवल चित्र चमकीले
बन-बनकर मिट गए अनेकों मेरे सपने गीले-गीले!
यह भी पढ़ें: महाराष्ट्र पुलिस कॉन्स्टेबल संघपाल तायडे की सुरीली आवाज सुनकर खो जाएंगे आप