मिलिए 77 वर्षीय वृद्ध प्रिंसिपल से जिसने स्कूल चलाने के लिए बेच दिया अपना घर
77 साल की ब्यूला गैब्रिएल ने 1993 में हैदराबाद में जोसेफ सेकेंड्री स्कूल की शुरुआत की थी। यह स्कूल गरीब और पिछड़े तबके के बच्चों के लिए एजुकेशन प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था। कम संसाधन होने की वजह से यह स्कूल एक किराए की इमारत में चला जिसका किराया देने के लिए ब्यूला ने अपना घर तक बेच दिया।
इस स्कूल को चलाने के लिए ब्यूला को बीते 25 सालों में कई तरह के संघर्ष करने पड़े। सबसे बड़ी आहुति उन्होंने अपने घर की दी, जिसे बेचकर उन्होंने स्कूल की बिल्डिंग का किराया चुकाया।
कहा जाता है कि भविष्य का निर्माण हमारे क्लासरूम में होता है। वाकई शिक्षा ऐसा अस्त्र है जिसकी मदद से समाज की तमाम बुराइयों और विकास में आने वाली बाधाओं को आसानी से खत्म किया जा सकता है। लेकिन हमारे देश का दुर्भाग्य ये है कि यहां हर किसी को समान शिक्षा का अवसर उपलब्ध ही नहीं हो पाता। तभी तो ब्यूला गैब्रिएल जैसे लोगों को सामने आना पड़ता है। 77 वर्षीय ब्यूला ने हैदराबाद के ईस्ट मैरेडपल्ली इलाके में 1993 में सेंट जोसेफ सेकंड्री स्कूल (SJSS) की स्थापना की थी। उनका मकसद उन बच्चों को शिक्षा प्रदान करना था जो आर्थिक तंगी की वजह से स्कूल का मुंह नहीं देख पाते।
इस स्कूल को चलाने के लिए ब्यूला को बीते 25 सालों में कई तरह के संघर्ष करने पड़े। सबसे बड़ी आहुति उन्होंने अपने घर की दी, जिसे बेचकर उन्होंने स्कूल की बिल्डिंग का किराया चुकाया। सेंट जोसेफ स्कूल में इस वक्त केजी से 10वीं क्लास तक लगभग 300 बच्चे पढ़ते हैं। पिछले 25 सालों में तरह-तरह की पृष्ठभूमि वाले बच्चों को इस स्कूल में पढ़ने का मौका मिला। यहां पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे घरों में काम करने वाली बाई, रिक्शा चलाने वाले, मजदूर और सिक्योरिटी गार्ड के होते हैं। शहरों में प्राइवेट स्कूलों की फीस इतनी ज्यादा है कि ये अपने बच्चों को वहां चाहकर भी नहीं पढ़ा सकते।
इन बच्चों का सपना पूरा करता है ब्यूला का सेंट जोसेफ स्कूल। स्कूल में वैसे तो फीस नाम मात्र की ही है, लेकिन अगर किसी के पास वो भी नहीं होती तो उनके बच्चे मुफ्त में शिक्षा हासिल करते हैं। ब्यूला ने अपने इस स्कूल के जरिए तमाम बच्चों की जिंदगी बदली है। उनके पढ़ाई बच्चे आज डॉक्टर, इंजीनियर, नर्स, सैनिक, अधिकारी बनकर देश की सेवा कर रहे हैं और अपना भविष्य भी संवार रहे हैं। इसकी प्रेरणा ब्यूला को बचपन में ही मिल गई थी। उनकी मां भी गांव के गरीब बच्चों को पढ़ाती थीं और उन्हें नर्सिंग में दाखिला दिलाती थीं। इससे गांव के तमाम गरीब बच्चों की जिंदगी बदली।
ब्यूला ने 1985 में स्कूल खोलने का सपना देखा था। उन्होंने सेंट एंड्र्यूज नाम से स्कूल भी खोला, लेकिन परिवार वालों से उनकी बात बन नहीं पाई। 'द न्यूज मिनट' को दिए इंटरव्यू में वे कहती हैं, 'मेरे परिवार के लोग चाहते थे कि स्कूल से फायदा कमाया जाए। उनका कहना था कि इसमें बड़े घरों के बच्चे पढ़ें। यह सुनकर मैं मैनेजमेंट पैनल से बाहर आ गई। क्योंकि मैं ऐसा स्कूल खोलना चाहती थी, जहां हर तबके के बच्चे आकर शिक्षा ग्रहण कर सकें। चाहे वे अमीर हों या फिर गरीब।'
वह बताती हैं कि बाकी स्कूलों में एडमिशन के लिए एंट्रेंस लिया जाता है लेकिन यहां पर अलग तरह की पॉलिसी है। ब्यूला के मुताबिक, 'किसी भी स्टूडेंट को एंट्रेंस टेस्ट में फेल होने की वजह से एडमिशन से दूर नहीं किया जाता। हम टेस्ट सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि बच्चे की प्रतिभा का पता चल सके और उसके हिसाब से उसकी शिक्षा आगे बढ़े। यहां तक कि हम ऐसे बच्चों को प्राथमिकता दते हैं जिन्हें अकादमिक, शारीरिक या सामाजिक कारणों से एडमिशन नहीं मिल पाता।'
हाल ही में जब स्कूल के 25 वर्ष पूरे हुए तो इस मौके को उत्सव के रूप में मनाने के बजाय ब्यूला ने बच्चों से कहा कि वे दाल, चावल जैसी चीजें अपने पड़ोस में बांटें। इससे लगभग 100 गरीब परिवारों के भोजन की व्यवस्था हो गई। ब्यूला कहती हैं, 'सेवा ही मेरी जिंदगी का ध्येय है। 77 वर्ष की उम्र हो जाने के बाद भी रिटायर होने का कोई मन नहीं है। अगर मैं और भी बच्चों की जिंदगी बदल पाऊं तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी और मैं अपना काम जारी रखूंगी।'
यह भी पढे़ं: ये पांच स्टार्टअप्स किफ़ायती क़ीमतों पर आपके घर को बना सकते हैं 'सपनों का घर'