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शिवानी के साहित्य में स्त्री के आंसुओं की नदी

शिवानी के साहित्य में स्त्री के आंसुओं की नदी

Tuesday October 17, 2017 , 5 min Read

समकालीन हिंदी कथा साहित्य के इतिहास का एक अनूठा लोकरंजित अध्याय हैं गौरापंत शिवानी। आज (17 अक्टूबर) उनका जन्मदिन हैं। उनका ज्यादातर समय कुमाऊँ की पहाड़ियों में बीता। बाद का कुछ वक्त लखनऊ में भी गुजरा। उन्हें देवभूमि उत्तराखंड की लेखिका के रूप में जाना जाता है लेकिन उनका मूल जन्म स्थान राजकोट (गुजरात) रहा है।

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उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के कथा-साहित्य ने जिस तरह एक वक्त में हिंदी पाठकों का एक नया वर्ग पैदा किया, उसी तरह का श्रेय शिवानी के साहित्य को भी दिया जाता है। कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने में उनका अमूल्य योगदान रहा है।

वह कुछ इस तरह लिखती थीं कि पढ़ने की जिज्ञासा पैदा होती थी। उनकी भाषा शैली कुछ-कुछ महादेवी वर्मा जैसी रही। उनके पिता अश्विनी कुमार पांडे रामपुर स्टेट में दिवान थे, वह वायसराय के वार काउंसिल में मेम्बर भी रहे। उनकी मां संस्कृत की विदूषी एवं लखनऊ महिला विद्यालय की प्रथम छात्रा रही थीं।

समकालीन हिंदी कथा साहित्य के इतिहास का एक अनूठा लोकरंजित अध्याय हैं गौरापंत शिवानी। आज (17 अक्टूबर) उनका जन्मदिन हैं। उनका ज्यादातर समय कुमाऊँ की पहाड़ियों में बीता। बाद का कुछ वक्त लखनऊ में भी गुजरा। उन्हें देवभूमि उत्तराखंड की लेखिका के रूप में जाना जाता है लेकिन उनका मूल जन्म स्थान राजकोट (गुजरात) रहा है। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के कथा-साहित्य ने जिस तरह एक वक्त में हिंदी पाठकों का एक नया वर्ग पैदा किया, उसी तरह का श्रेय शिवानी के साहित्य को भी दिया जाता है। कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने में उनका अमूल्य योगदान रहा है। वह कुछ इस तरह लिखती थीं कि पढ़ने की जिज्ञासा पैदा होती थी। उनकी भाषा शैली कुछ-कुछ महादेवी वर्मा जैसी रही। 

पति के साथ शिवानी की फोटो

पति के साथ शिवानी की फोटो


उनके पिता अश्विनी कुमार पांडे रामपुर स्टेट में दिवान थे, वह वायसराय के वार काउंसिल में मेम्बर भी रहे। उनकी मां संस्कृत की विदूषी एवं लखनऊ महिला विद्यालय की प्रथम छात्रा रही थीं। उन्हें गुजराती, बंगाली, संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू का भी अच्छा ज्ञान था। उनके पति एस डी पंत शिक्षा विभाग में थे। उनका असमय निधन हो गया था। उनकी बेटी मृणाल पांडे भी जानी मानी लेखिका हैं। अपने अनूठे सृजन संसार से शिवानी ने अपने समय के यथार्थ को अलग रंग दिया। उनके लेखन में संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बहुलता रही। जिस समय उनका उपन्यास 'कृष्णकली' (धर्मयुग) में प्रकाशित हो रहा था, उसे पढ़ने के लिए हिंदी का एक बड़ा पाठक वर्ग अनुप्राणित हो रहा था। 

उनके लेखन में सुन्दर चित्रण के साथ भाषा की सादगी तो होती ही, पहाड़ी जन जीवन का भोलापन और वहाँ की सांस्कृतिक जीवंतता भी कुछ कम मुग्धकारी नहीं। उनके लेखन में कुमाऊँनी शब्दों और मुहावरों की भरमार है। शिवानी ने अपनी कहानियों में स्त्री-व्यथा और सामाजिक बन्धनों को बेहद संजीदगी से उकेरा है। पाठक स्त्री पात्रों के कष्टों से अपना तादात्म्य महसूस करता है। उनकी क़लम का जादू मन पर पसरीं सारी चट्टानें तोड़ कर अन्दर की तरलता आँखों तक ला देता है। शिवानी ने अपनी कहानियों में स्त्री-व्यथा और सामाजिक बन्धनों को बेहद संजीदगी से उकेरा है। पाठक स्त्री पात्रों के कष्टों से अपना तादात्म्य महसूस करता है। उनकी क़लम का जादू मन पर पसरीं सारी चट्टानें तोड़ कर अन्दर की तरलता आँखों तक ला देता है।

शिवानी के अनमोल साहित्य पर अमिता चतुर्वेदी लिखती हैं - 'लोकप्रिय लेखिका शिवानी की रचनाओं ने पाठकों पर अमिट छाप छोड़ी है। शिवानी का नाम लेते ही कुमाऊँ की पहाड़ियों के दृश्य आँखों के सामने घूम जाते हैं। अपनी रचनाओं में नायिका की सुन्दरता का वह इतना सजीव चित्रण करतीं थीं कि लगता था कि वह समक्ष आ खड़ी हुई है। कभी लगता था कि शायद कुमाऊँ की पहाड़ियों पर वह असीम सुन्दर नायिका अपनी माँ के बक्से से निकाली हुई साड़ी पहने असाधारण लगती हुई खड़ी हो। कहीं किसी घर में ढोलक की थाप से उत्सव का वर्णन होता है, तो कही कोई तेज तर्रार जोशी ब्राह्मण आदेश देता फिरता है। 

परिवार की भरी भरकम ताई खाट पर बैठी हैं और नायिका का नायक उसे छिपकर देख रहा है। कभी नायिका का एक पुरानी हवेली में जाना और एक बुढिया के अट्टहास से उसका सहम जाना। ये सभी वर्णन हमारी आँखों के सामने सचित्र उभर आते हैं। शिवानी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। मन करता था कि कभी वह मिलें तो उनसे पूछूँ कि उनकी कहानियों के पात्र क्या सच में कहीं हैं। यद्यपि अपने अन्तिम काल में वह बहुत कम लिखने लगीं थीं। मै उनके उपन्यासों का इन्तजार करती थी, पर शायद तब तक उन्होंने लिखना बन्द कर दिया था परन्तु उनके जितने भी उपन्यास और कहानी संग्रह हैं, वे हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।'

उनकी पढ़ाई-लिखाई शन्तिनिकेतन में हुई। साठ-सत्तर के दशक में वह अपनी कहानियों और उपन्यासों से हिन्दी पाठकों में अत्यंत लोकप्रिय रहीं। उनकी प्रमुख कृतियां हैं - कृष्णकली, कालिंदी, अतिथि, पूतों वाली, चल खुसरों घर आपने, श्मशान चंपा, मायापुरी, कैंजा, गेंदा, भैरवी, स्वयंसिद्धा, विषकन्या, रति विलाप, शिवानी की श्रेष्ठ कहानियाँ, शिवानी की मशहूर कहानियाँ, अमादेर शांति निकेतन, समृति कलश, वातायन, जालक यात्रा वृतांत : चरैवैति, यात्रिक आत्मकथा : सुनहुँ तात यह अमर कहानी आदि। उनकी विषकन्या, चौदह फेरे, करिया छिमा आदि जैसी रचनाएं आज भी हिंदी पाठकों के बीच उतनी ही लोकप्रिय हैं। महज 12 वर्ष की उम्र में पहली कहानी प्रकाशित होने से लेकर 21 मार्च 2003 को उनके निधन तक उनका लेखन निरंतर जारी रहा। उनकी अधिकतर कहानियां और उपन्यास नारी प्रधान रहे। 

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