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जब पड़ोसी देश को आजादी दिलाने के लिए भारत ने लड़ी पाकिस्‍तान से जंग

9 महीने चली लंबी लड़ाई के बाद 16 दिसंबर, 1971 को पश्चिमी पाकिस्‍तान से अलग होकर स्‍वतंत्र मुल्‍क बना बांग्‍लादेश.

जब पड़ोसी देश को आजादी दिलाने के लिए भारत ने लड़ी पाकिस्‍तान से जंग

Friday December 16, 2022 , 5 min Read

1947 में भारत से अलग होकर बना था मुल्‍क पाकिस्‍तान, जो भौगोलिक कारणों से दो हिस्‍सो में बंटा हुआ था- पूर्वी पाकिस्‍तान और पश्चिमी पाकिस्‍तान. धर्म के आधार पर एक देश तो बन गया, लेकिन भाषाई और सांस्‍कृतिक पहचान अलग होने के कारण वह ज्‍यादा दिनों तक साथ रह नहीं पाया.

25 मार्च, 1971 को शुरू हुआ था बांग्‍लादेश मुक्ति युद्ध, जो 9 महीनों तक चला और आखिरकार 16 दिसंबर, 1971 को पश्चिमी पाकिस्‍तान से अलग होकर पूर्वी पाकिस्‍तान एक स्‍वतंत्र देश बन गया. नाम पड़ा- बांग्‍लादेश. बांग्‍लादेश मुक्ति युद्ध का नारा भी था-“आमार शोनार बांग्‍ला.”

आज 16 दिसंबर को उस बंग मुक्ति संग्राम के 51 वर्ष पूरे हुए हैं.

यह तारीख सिर्फ बांग्‍लादेश के इतिहास में ही महत्‍वपूर्ण नहीं है. भारत के इतिहास में भी इस तारीख का बड़ा महत्‍व है. इंदिरा गांधी के नेतृत्‍व वाली सरकार तब इस युद्ध में पूर्वी पाकिस्‍तान के साथ खड़ी थी. पाकिस्‍तान को युद्ध में हराने और बांग्‍लादेश को आजादी दिलाने में भारत का बहुत बड़ा योगदान है.

16 दिसंबर, 1971 की तारीख पाकिस्‍तान पर भारत की विजय के रूप में भी एक ऐतिहासिक यादगार तारीख है, जब भारत की सेना ने 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था.

पूर्वी पाकिस्‍तान में पश्चिमी पाकिस्‍तान का दमन

अलग देश बनने के बाद कहने को तो पूर्वी पाकिस्‍तान भी पकिस्‍तान का ही हिस्‍सा था, लेकिन उनकी भाषा, संस्‍कृति, खान-पान और बुनियादी जीवन मूल्‍य बिलकुल अलग थे. पाकिस्तान के गठन के समय पश्चिमी क्षेत्र में पंजाबी, सिंधी, पठान, बलोच और मुजाहिरों की बहुत बड़ी आबादी थी, जबकि पूर्व हिस्से में बंगालियों का बहुमत था. इस्‍लाम धर्म को मानने के बावजूद उनकी सांस्‍कृतिक पहचान बांग्‍ला पहचान थी. वह बांग्‍ला लिपि पढ़ते, महिलाएं साड़ी पहनतीं और बिंदी-सिंदूर लगातीं.

 

साथ ही पश्चिमी पाकिस्‍तान का रवैया पूर्वी पाकिस्‍तान के साथ हमेशा ही भेदभावपूर्ण रहा. देश के दोनों हिस्‍सों के बीच सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक समानता भी नहीं थी. संसाधनों की बात करें तो पूर्वी पाकिस्तान बहुत समृद्ध था, लेकिन राजनीतिक बागडोर पूरी तरह पश्चिमी पाकिस्तान के हाथों में थी. सारे नेता वहां बैठे दूसरे हिस्‍से को नियंत्रित कर रहे थे. पूर्वी हिस्‍से में राजनीतिक चेतना और नेतृत्‍व के कौशल की कमी नहीं थी, लेकिन उन्‍हें पाकिस्‍तान की राजनीति में कभी बराबर का प्रतिनिधित्‍व मिला ही नहीं.

51 years of bangladesh liberation war and indo-pakistan war of 1971

शेख मुजीब-उर-रहमान

नतीजा ये हुआ कि एक हिस्‍सा तो आर्थिक रूप से समृद्ध होने लगा और दूसरे हिस्‍से में सामाजिक और आर्थिक विभेद और गहरा होता चला गया. इस विभेद को लेकर पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में जबरदस्त नाराजगी थी. वो यूं भी शुरू से ही खुद को पाकिस्‍तान के साथ आइडेंटीफाई नहीं करते थे. उनके लिए उनका “सोनार बांग्‍ला” और बांग्‍ला पहचान ज्‍यादा बड़ी थी.

शेख मुजीब-उर-रहमान और अवामी लीग

बांग्लादेश के हालात ऐसे हो चुके थे कि वह देश को एक और युद्ध और फिर आजादी की तरफ लेकर जाते. परिस्थितियों की नजाकत को समझकर नेतृत्‍व का बीड़ा उठाया शेख मुजीब-उर-रहमान ने. उन्‍होंने अवामी लीग नाम से एक पार्टी बनाई और पाकिस्तान के भीतर ही स्वायत्तता की मांग की.

1970 में पाकिस्‍तान में हुए आम चुनावों में पूर्वी क्षेत्र में शेख मुजीब-उर-रहमान की पार्टी को जबरदस्त जीत हासिल हुई. उनकी पार्टी को बहुमत भी मिला था, लेकिन उन्‍हें प्रधानमंत्री बनाने की बजाय पकड़कर जेल में डाल दिया गया. पूर्वी पाकिस्‍तान पहले भी दूसरे हिस्‍से के शोषण और अत्‍याचारों से तंग आ गया था. लेकिन इस घटना ने लंबे समय से सुलग रही आग में घी का काम किया और यहीं से पाकिस्तान के विभाजन की बुनियाद पड़ गई.

जनरल याहृया खान की चालबाजियां

जब शेख मुजीब-उर-रहमान को जेल में डाला गया और उसके खिलाफ विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए, उस वक्‍त पाकिस्‍तान के राष्‍ट्रपति  जनरल याह्या खान थे. पूर्वी हिस्से में फैली नाराजगी से निपटने का जिम्‍मा उन्‍होंने जनरल टिक्का खान को सौंप दिया.

याह्या खान और जनरल टिक्‍का दोनों का तरीका लोगों के असंतोष को दूर करने, उनकी मांगों को पूरा करने की बजाय उन्‍हें डराने-धमकाने और बलपूर्वक रोकने का था. वे यह भूल गए थे कि अगर जनता अपने पर उतर आए तो उन्‍हें भी मौत के घाट उतार सकती है.  

पूर्वी पाकिस्तान में सेना और पुलिस का नरसंहार

25 मार्च, 1971 को जनरल टिक्‍का के आदेश पर पूर्वी पाकिस्तान में सेना और पुलिस ने मिलकर जबर्दस्त नरसंहार किया. इससे उस हिस्‍से में डर फैलने की बजाय रोष और गुस्‍सा फैल गया. पाकिस्‍तानी फौज नि:शस्‍त्र, मासूम नागरिकों को मार रही थी. लोग वहां से भागकर भारत की ओर आने लगे.

भारत ने शुरू में किसी का पक्ष लेने की बजाय पश्चिमी पाकिस्‍तान से शांति की अपील की. उस पर अंतर्राष्‍ट्रीय दबाव बनाने की कोशिश की. लेकिन जब इन सारी कोशिशों का नतीजा सिफर रहा तो अप्रैल, 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि वे बांग्‍लादेश मुक्ति वाहिनी को अपना समर्थन देती हैं. भारत बांग्‍लादेश की आजादी की लड़ाई में उसके साथ है.

बांग्‍लादेश मुक्ति वाहिनी के साथ भारत

उसके बाद भारी संख्‍या में भारतीय सेना ने बांग्‍लादेश की जमीन पर बांग्‍लादेश मुक्ति वाहिनी के साथ खड़े होकर उनकी आजादी की लड़ाई में शिरकत की. 

पाकिस्‍तान ने नाराजगी में भारत पर भी हमला बोल दिया था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधी जंग हुई और इस लड़ाई में भारतीय सैनिकों ने  पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया.

और इसी के बाद दक्षिण एशिया में भारत के एक नए पड़ोसी मुल्‍क का उदय हुआ. नाम था- बांग्‍लादेश.  

भारत का यह निर्णय दरअसल अमेरिका की तरह पड़ोसी मुल्‍क के निजी मामलों में दखलंदाजी करना नहीं था, बल्कि अपनी आंखों के सामने शोषण और अत्‍याचार होते देख सही और न्‍याय का पक्ष लेना था, उसका साथ देना था. भारत के इस कदम का उस वक्‍त पूरे अंतर्राष्‍ट्रीय समुदाय ने स्‍वागत किया और इतिहास की किताबों में यह घटना सुनहरे अक्षरों में दर्ज की गई.


Edited by Manisha Pandey