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नहीं आता हर किसी को किताबों से प्यार करना

हिन्दी की वो ज़रूरी किताबें, जिन्हें साहित्य प्रेमी ज़रूर पढ़ें...

नहीं आता हर किसी को किताबों से प्यार करना

Thursday August 10, 2017 , 4 min Read

नेल्सन मंडेला को किताबों से खासा मोहब्बत थी। वह चुनौती और मुश्किल के पलों में जिस कविता को बहुत संभालकर रखते थे और बारबार पढ़ते थे, उसका नाम है 'इन्विक्टस'। यह एक लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है अपराजेय...

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किताबों की दुनिया बड़ी अनोखी होती है। इसमें काले-काले खूबसूरत शब्द मस्तिष्क से होते हुए आपके खयालों में जीवंत हो उठते हैं, वही शब्द जिनकी जीवंत होने से पहले सिर्फ कल्पना की जाती रही हो।

हर किसी को किताबों से प्यार करना नहीं आता है और जिसे किताबों से प्यार हो जाता है, उसकी जिंदगी की राह अदभुत ज्ञान से प्रज्ज्वलित हो उठती है। हर वक्त मन ऐसे सुखों से सराबोर रहने लगता है, जो और किसी भी काम से संभव नहीं। एक कवि की कुछ ऐसी ही पंक्तियां- किताबों से मुझे प्यार है, किताबों से, उनके पन्नों से, क्या क्या नहीं, कहा है किताबों ने, सारी दुनियां समेट रखी है अपने भीतर किताबों ने, गर्व है मुझे अपने आप पर, नहीं डूबा हूँ मैं शराबों कबाबों में, अहा... मुझे तो प्यार है किताबों से...। जाने-माने शायर, फिल्म पटकथाकार, गीतकार गुलजार लिखते हैं-

किताबों से कभी गुज़रो तो यूँ किरदार मिलते हैं,

गए वक़्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं,

जिसे हम दिल का वीराना समझकर छोड़ आये थे,

वहाँ उजड़े हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं।

आइए, जानते हैं कि नेल्सन मंडेला को किस तरह की किताब से प्यार था। वह चुनौती और मुश्किल के हर पल में जिस कविता को बहुत संभालकर रखते थे और बारबार पढ़ते थे, उसका नाम है 'इन्विक्टस'। यह एक लैटिन भाषा का शब्द है। इसका अर्थ अपराजेय। 'इन्विक्टस' ब्रिटिश शासन काल के दौरान 1875 में प्रकाशित हो चुकी एक कविता है। इसे ब्रिटिश कवि विलियम अर्नेस्ट हेनली ने लिखा था।

ऐसी कई किताबें हैं-जिन्हें मौका मिले तो जरूर पढ़ना चाहिए। जैसे कि शेखऱ एक जीवन (अज्ञेय), प्रथम प्रतिश्रुति (आशापूर्णा देवी), बलचनमा (नागार्जुन), मां (मक्सिम गोर्की), आपका बंटी (मन्नू भंडारी), अनटचेबल (मुल्कराज आनंद), युद्ध और शांति (लेव तोलस्तोय), टोबा टेक सिंह और अन्य कहानियां (सआदत हसन मंटो), जंगल (अप्टन सिंक्लेयर), रागदरबारी (श्रीलाल शुक्ल), मेरा दागिस्तान (रसूल हमजातोव), किसान (बाल्जॉक), गुनाहों के देवता (धर्मवीर भारती), फांसी के तख्ते से (जूलियस फ्यूचिक), गोदान (प्रेमचंद), हिंदी साहित्य का इतिहास (रामचंद्र शुक्ल), मधुशाला (हरिवंश राय बच्चन), कितने पाकिस्तान (कमलेश्वर) आदि। 

एक हैं अभिनेत्री सोनल सहगल, उनको तो खुद को किताबी कीड़ा कहलाना ज्यादा पसंद है। प्रसिद्ध लेखिका सूर्यबाला कहती हैं कि उनको आभास है, अपनी किताब से किसी को कितना प्यार होता है। बालीवुड की जानी-मानी अभिनेत्री काजोल का कहना है कि उन्हें सिनेमा देखने में नहीं, किताब पढ़ने में मजा आता है।

धूप में निकलो, घटाओं में नहा कर देखो,

जिन्दगी क्या है, किताबों को हटा कर देखो।

सोमेश सक्सेना की एक टिप्पणी यहां प्रस्तुत करने को जी चाहता है। वह लिखते हैं- "मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या भविष्य में पुस्तकों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और ई-बुक्स ही रह जायेंगे? क्या छपे हुये पन्नों का स्थान कम्प्युटर स्क्रीन ले लेगा? कहा जाता है कि पुस्तकें मनुष्य कि सबसे अच्छी मित्र होती हैं। मैं स्वयं भी यही मानता हूँ। किताबों से बचपन से ही लगाव रहा है और बिना किताबों के जीवन कि कल्पना मैं नहीं कर सकता। इसलिये यह कल्पना मेरे लिये कुछ कष्टप्रद है। पुस्तक प्रेमियों कि संख्या में पिछले कुछ अर्से से भारी गिरावट आयी है। चैनल क्रांति, इंटरनेट, मोबाइल फोन, एस एम एस और कम्प्युटर गेम्स के इस युग में किताबों से रुझान घटना स्वाभाविक है, फिर भी इस स्थिति को बहुत अधिक चिंताजनक तो नहीं कहा जा सकता। भले ही पुस्तक प्रेमी पहले कि तुलना में कम हुए हों पर फिर ऐसे लोगों की कमी नहीं है। जब तक पुस्तकों को प्यार करने वाले उन्हे दोस्त मानने वाले हैं, तब तक पुस्तकें भी रहेंगी।"

जाने-माने पत्रकार अनिल रघुराज अपना अनुभव साझा करते हुए लिखते हैं- "पेट में जठराग्नि जल रही हो तो कांकर-पाथर भी पचकर खून बन जाता है। उसी तरह दिमाग की जठराग्नि अगर प्रज्ज्वलित है तो सारी किताबों का सार हमारे अनुभवों से मिलकर सक्रिय व जीवंत ज्ञान बन जाता है। लेकिन अगर कोई अपच का शिकार है तो उसका मन लज़ीज़ पकवानों की तरफ भी झांकने का नहीं होता। मेरे, आप और हम जैसे ज्यादातर लोगों के साथ दिक्कत यही है कि हमने अपने अंदर तरह-तरह के इतने आलू-समोसे व पकौड़े भर रखे हैं, भांति-भांति का ऐसा कचरा भर रखा है कि सुंदर पकवान देखते ही हमें मितली आने लगती है। किताबें जी का जंजाल लगती हैं। देखा-देखी और सुनी-सुनाई में आकर उन्हें खरीद तो लाते हैं, लेकिन कभी उनमें डूबने का मन ही नहीं करता।" 

पढ़ें: नागार्जुन का गुस्सा और त्रिलोचन का ठहाका