Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
ADVERTISEMENT
Advertise with us

अखिलेश कहीं कांग्रेस के जाल में तो नहीं फंस रहे

कांग्रेस की सीमाओं को देखते हुए समाजवादी खेमे के लोग भी यह मान रहे हैं कि उसे ज्यादा सीटें दे दी गई हैं। उन्हें ये बात भी चिंताजनक लगती है, कि कांग्रेस का समर्थक मतदाता दूसरी वरीयता भाजपा को देता है, न कि सपा को। वैसे भी कांग्रेस का जनाधार तभी सिमट गया था जब उसने नरसिम्हा राव के समय बसपा से तालमेल किया था और केवल 125 सीटों पर लड़ने को तैयार हो गई थी।

"पिछले चुनावों में कांग्रेस के केवल 28 उम्मीदवार विजयी रहे थे और चुनाव आते-आते उनमें से कई दूसरे दलों में भी चले गए। समाजवादी पार्टी के मौजूदा विधायक 224 थे और पीस पार्टी के भी इक्का-दुक्का विधायक उसके साथ आ मिले थे। अब जो तालमेल हुआ है, उसमें सपा 298 और कांग्रेस के 105 उम्मीदवार मैदान में उतरने तय हुए हैं।"

image


"अखिलेश और उनके सलाहकारों ने पारिवारिक झगड़े में तो काफी चतुराई दिखाई, लेकिन गठबंधन में वो चतुराई गायब रही। ऐसे में बहुत संभव है कि आगे की राजनीति अखिलेश को कांग्रेस के दबाव में रहकर ही करनी पड़े।"

उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में पार्टी के अंदर फतह पाने के बाद अखिलेश ने पार्टी के बाहर की जंग जीतने की जुगत में कांग्रेस से तालमेल कर तो लिया है, लेकिन अब आशंका ये हो रही है कि कहीं वे कांग्रेस के अपेक्षाकृत ज्यादा घाघ नेताओं के जाल में न फंस जायें। इसमें कोई दो राय नहीं, कि फिलहाल समाजवादी पार्टी और कांग्रेस दोनों का ही हित गठबंधन करने में था और दोनों ने इस बात को समझा भी। ये अलग बात है कि समाजवादी पार्टी को इस गठबंधन में कई ऐसी सीटें तो कांग्रेस को देनी ही पड़ीं जिन पर उसके उम्मीदवार पिछली बार दूसरे नंबर पर थे, साथ ही अमेठी और रायबरेली समेत कुछ सीटें वे भी छोड़नी पड़ रही हैं, जिन पर उसके उम्मीदवार ही काबिज थे।

पिछले चुनावों में कांग्रेस के केवल 28 उम्मीदवार विजयी रहे थे और चुनाव आते-आते उनमें से कई दूसरे दलों में भी चले गए। समाजवादी पार्टी के मौजूदा विधायक 224 थे और पीस पार्टी के भी इक्का-दुक्का विधायक उसके साथ आ मिले थे। अब जो तालमेल हुआ है, उसमें सपा 298 और कांग्रेस के 105 उम्मीदवार मैदान में उतरने तय हुए हैं।

कांग्रेस की सीमाओं को देखते हुए समाजवादी खेमे के लोग भी यह मान रहे हैं कि उसे ज्यादा सीटें दे दी गई हैं। इन्हें यह बात भी चिंताजनक लगती है, कि कांग्रेस का समर्थक मतदाता दूसरी वरीयता भाजपा को देता है, न कि सपा को। वैसे भी कांग्रेस का जनाधार तभी सिमट गया था जब उसने नरसिम्हाराव के समय बसपा से तालमेल किया था और केवल 125 सीटों पर लड़ने को तैयार हो गई थी। उसी समय बाकी सीटों पर ज्यादातर कांग्रेसियों ने अपनी राजनीति खत्म होते देख दूसरी पार्टियों का रुख कर लिया था। अखिलेश राजनीतिक अनुभवहीनता के कारण इसलिए भी कांग्रेस के जाल में फँसते दिख रहे हैं, कि कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि सपा किसी भी तरह से अकेले सरकार न बना पाए और कांग्रेस पर निर्भर रहे ताकि लोकसभा चुनावों के समय उस पर दबाव बनाकर गठबंधन के तहत ज्यादा से ज्यादा सीटें ले ले और सपा के समर्थन से जितवा भी ले।

एक और चाल कांग्रेस और सपा के संयुक्त वाररूम के जरिए चली जा रही है। भाजपा और फिर जनता दल यूनाइटेड के प्रचार कार्य को संभालने वाले प्रशांत किशोर को राहुल गाँधी ने प्रमोट करके रणनीतिकार की भूमिका में हायर कर लिया है। उनके ब्रांड नाम के आगे सपा के वाररूम की टीम के सदस्य अपने को कमतर पाते हैं। ऐसे में संयुक्त वाररूम की कमान पीके के साथियों के हाथ में है। एक और रणनीति के तहत पीके अपने साथियों को सपा में दाखिल कराने में भी लग गए हैं। हाल ही में नीतीश के सलाहकार रहे घनश्याम तिवारी को समाजवादी पार्टी में सीधे प्रवक्ता नियुक्त किए जाने को इसी रूप में देखा जा रहा है। घनश्याम अपने को समाजवादी बताते हैं और ऐसे में समाजवादी विचारधारा के ही एक सत्तासीन दल जेडीयू को बिना किसी वजह के छोड़कर सपा में आना कई तरह के संदेह पैदा करता है।

कांग्रेस और सपा के तालमेल में रायबरेली और अमेठी की सपा के कब्जे वाली सीटें भी कांग्रेस ले रही है। अमूमन अपने कब्जे वाली सीटें कोई भी दल अपने सहयोगी को नहीं देता है और विशेष परिस्थितियों में ऐसा किया भी जाता है, तो उनके बदले दूसरी और संख्या में ज्यादा सीटें ली जाती हैं। कांग्रेस के घाघ रणनीतिकारों के सामने अखिलेश ऐसा भी नहीं कर पाए।

अब हालात ये है, कि कांग्रेस अमेठी और रायबरेली की बाकी सीटों पर भी अपने उम्मीदवार सीधे या बागी के तौर पर खड़ा करती दिख रही है। इस पूरे झगड़े में सपा को आठ-दस सीटों का सीधा नुकसान होता दिख रहा है। अखिलेश सबसे बड़ी चूक वार्ता के स्तर पर कर गए। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते उन्हें केवल राहुल गांधी से बात करनी चाहिए थी, लेकिन हुआ एकदम अलग। ज्यादातर बातें कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं से या फिर पीके की टीम से हुईं और राहुल अखिलेश से ऊँचा कद बनाए रखने में सफल रहे।

प्रियंका गांधी पूरी वार्ता से अलग रहीं और अंत समय में विशेष भूमिका में शामिल हुईं और उनके व्यक्तित्व के आगे कमतर महसूस करते हुए सपा ने उन्हें कुछ और सीटें दे डालीं। राहुल गाँधी इस समय पूरे गठबंधन के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर दिख रहे हैं, जबकि अखिलेश केवल एक क्षेत्रीय नेता के रूप में सामने आ रहे हैं। यह बात 2019 में राहुल के लिए तो लाभदायक हो सकती है, लेकिन अखिलेश की उभरती हुई छवि के लिए यह नुकसानदायक है।

रणनीति के तहत चतुराई दिखाते हुए अखिलेश चाहते तो कांग्रेस से कह सकते थे कि अगर उसे यूपी में असरहीन होने पर भी ज्यादा सीटें चाहिए तो बदले में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान या गुजरात में सपा के लिए भी उतनी सीटें छोड़ने का वादा करें। अखिलेश यह बात समझने और समझाने में सफल नहीं रहे हैं कि उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में बड़े दल की भूमिका में उनकी पार्टी है और कांग्रेस अपेक्षाकृत बहुत छोटी पार्टी है। ऐसी स्थिति में तो 2019 के लोकसभा चुनावों के समय अखिलेश को काफी कम सीटों पर मानने को मजबूर होना पड़ सकता है, क्योंकि तब उनके हाथ में दबाव के लिए कुछ नहीं रहेगा।

ऐसा लगता है कि अखिलेश और उनके सलाहकारों ने पारिवारिक झगड़े में तो काफी चतुराई दिखाई लेकिन गठबंधन में वो चतुराई गायब रही। ऐसे में बहुत संभव है कि आगे की राजनीति अखिलेश को कांग्रेस के दबाव में रहकर ही करनी पड़े।