Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
ADVERTISEMENT
Advertise with us

सौमित्र मोहन अब साहित्य के तलघर में दफ़्न नहीं!

पिछली सदी के प्रतिष्ठित कवि सौमित्र मोहन अपने ताजा काव्य-संग्रह 'आधा दिखता वह आदमी' के प्रकाशित होते ही एक बार फिर साहित्य के गलियारों में सुर्ख हो उठे हैं।

पिछली सदी के प्रतिष्ठित कवि सौमित्र मोहन अपने ताजा काव्य-संग्रह 'आधा दिखता वह आदमी' के प्रकाशित होते ही एक बार फिर साहित्य के गलियारों में सुर्ख हो उठे हैं। सौमित्र मोहन की आम अनुपस्थिति पर कवि विष्णु खरे कहते हैं कि ‘वह ऐसा देसी कवि है, जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है।’ उनके साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें पिछले कई दशकों से साहित्य के तलघर में दफ़्न कर दिया गया था।

सौमित्र मोहन

सौमित्र मोहन


लुकमान अली' मेरे लिए मात्र प्रतीक नहीं है - इसकी शारीरिक सत्ता है; फन्तासी की सत्ता है और मैं समझता हूं कि आज कविता में 'बुरे दिनों' का चित्रण या प्रतिक्रिया या एनकाउन्टर इसी फन्तासी से किया जा सकता है। इसी माध्यम से आज के अयथार्थ जैसे लगने वाले परिवेश में अपने जीवित होने को समझा जा सकता है।

भले ही अकविता के एक कोष्टबद्ध कवि की शक्ल में आम तौर से हिंदी साहित्य के सुधी जनों के लिए आसानी से उपलब्ध न हों, उनकी कविता की प्रासंगिकता और मूल्यवत्ता धूमकेतु जैसी है। आम तौर से सुपरिचित न होने की वजह ये रही है कि उन्हें आलोचना की गैर-मौजूदगी का खामियाजा उठाना पड़ा है। इस समय दिल्ली में रह रहे अस्सी वर्षीय प्रतिष्ठित कवि सौमित्र मोहन का जन्म 1938 में लाहौर में हुआ था। चाक़ू से खेलते हुए, निषेध, आधा दिखता वह आदमी, लुकमान अली तथा अन्य कविताएँ, संग्रहों के अलावा सौमित्र मोहन की अनूदित पुस्तकें हैं - दूर के पड़ोसी, बाणभट्ट, कबूतरों की उड़ान, देहरी में आज भी उगते हैं हमारे पेड़, राष्ट्रवाद, भारत की समकालीन कला आदि। वह 1965 से1967 तक 'अकविता' पत्रिका के विशेष सहयोगी रहे हैं।

वरिष्ठ कवि सौमित्र मोहन बताते हैं- 'काफी प्रतीक्षा के बाद मेरी संपूर्ण कविताओं का संग्रह 'आधा दिखता वह आदमी' प्रकाशित हो गया है। पचास वर्ष का मेरा कविता-लेखन अल्प ही माना जाएगा क्योंकि इसमें मात्र 149 कविताएँ हैं। आप चाहें तो मुझे आलसी या सनकी भी कह सकते हैं। पर यह सभी एक जगह उपलब्ध हैं, इस बात का मुझे बहुत संतोष है। एक तसल्ली यह भी है कि संभावना प्रकाशन ने इस कविता-संग्रह को सुरुचि और मनोयोग से छापा है। इसमें मेरे पहले संग्रहों 'चाकू से खेलते हुए', 'निषेध', और 'लुकमान अली तथा अन्य कविताएँ' के अलावा 1978-2017 की अवधि में लिखित कविताएँ भी शामिल हैं।

ख्यात कवि, आलोचक एवं प्रशासक हेमन्त शेष लिखते हैं - 'सौमित्र मोहन को भले ही ‘अकविता’ के एक ‘कोष्टबद्ध कवि’ की शक्ल में हिंदी-कविता के एक दौर-विशेष में, जहाँ अपने साथ के कुछेक कवियों – राजकमल चौधरी, मलयराज चौधुरी, जगदीश चतुर्वेदी, शलभ श्रीराम सिंह, मोना गुलाटी, गंगाप्रसाद विमल आदि के साथ जल्दी से पहचान लिया गया हो- भले ही इन सब की कीर्ति और कमोबेश उनकी कविता की ‘प्रासंगिकता’ या मूल्यवत्ता बस एक धूमकेतु की तरह ध्यानाकर्षक, पर क्षणिक रही हो- सहानुभूत आलोचना की गैर-मौजूदगी का खामियाजा सौमित्र मोहन को भी ज़रूर उठाना पड़ा होगा, क्यों कि एक काव्यान्दोलन के रूप में ‘अकविता’ का प्रभा-मंडल निष्प्राण और निस्तेज होते ही, उनकी बकाया गैर-आन्दोलनवादी कविता भी समय द्वारा (या कुछ हद तक आलोचना द्वारा ) हाशिये पर धकेल दी गयी। नामवर जी ने शायद ‘अकविता’ पर एक वाक्य भी नहीं लिखा। वाचाल-आलोचक अशोक वाजपेयी ने ज़रूर सौमित्र मोहन की कविताओं पर कुछेक पैरे लिखते इस आन्दोलन के दौरान ही उपजी उनकी ‘लुकमान अली’ कविता की मलामत इन शब्दों में की थी- “ पूरी कविता चित्रों, बिम्बों, नामों, चुस्त फिकरेबाजी, सामान्यीकरण का एक बेढब सा गोदाम बन कर रह गयी है। लुकमान अली जैसे सार्वजनिक चरित्र काव्य-नायक के होते हुए भी कविता में कोई गहरी नाटकीयता नहीं आ पाती और कविता भाषा और बुनियादी तौर पर ‘लिरिकल’ कल्पनाशीलता की, अगर कमलेश के एक शब्द का प्रयोग करें, ‘फिजूलखर्ची’ बन कर रह जाती है।” नतीजन सौमित्र जी को अपने वक्तव्य में कहना पड़ा है - “1960 के दशक में हुए लेखन को ज़ोरदार आलोचक नहीं मिले, अन्यथा इस पीढ़ी को ‘अराजक’ कहे जाने की शर्म नहीं उठानी पड़ती।” हालाँकि (आलोचक नहीं) कवि, केदारनाथ अग्रवाल की टिप्पणी को वह ‘अकुंठ, खरी और ‘पौज़िटिव’ प्रतिक्रिया’ के रूप में कृतज्ञता से याद करते हुए स्वीकारते हैं- ‘उस लेख ने लिखने का हौसला दिया।’ सौमित्र की कविताओं में आम तौर से ऐसे प्रयोग देखने को मिलते रहे हैं, जो समग्र हिंदी साहित्य में विरल कहे जा सकते हैं -

एक मेज़ में सुराख़ कर के वह नीचे समुद्र खोज रहा है

उसने अपनी जुराबें हाथ में पहन ली हैं

कल वह अपने पछतावे दूसरों की जेबों में रखता रहा था

उसने देखा था कि घुटनों में मुखौटे बाँधने से लोग डरते नहीं

वह इन सारी स्थितियों का ज़िम्मेदार खुद था

माफ़ कीजिये ! देखिये आप अज्ञेय पढ़ें या शमशेर,

आप अंडर वियर ज़रूर साफ़ और धुला हुआ पहनें ! खुदा हाफ़िज़!

सौमित्र मोहन की आम अनुपस्थिति पर कवि विष्णु खरे तो कहते हैं कि ‘वह ऐसा देसी कवि है, जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है।’ उनके साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें पिछले कई दशकों से साहित्य के तलघर में दफ़्न कर दिया गया। एक ‘कल्ट’ कवि और ‘लुकमान अली’ कविता से चर्चित/ प्रशंसित/ निंदित जो अब 80 वर्ष का है, पर क्या इधर कोई किसी ने उनपर आलेख लिखा है? उनपर केन्द्रित किसी पत्रिका का कोई अंक प्रकाशित हुआ है? किसी विश्वविद्यालय ने क्या उनपर कोई लघु शोध भी पूरा कराया है? जब दिल्ली के ही संदिग्ध कवियों के पास उनके तथाकथित संग्रहों से अधिक तमगे हैं और जिनपर बे-हया कारोबारी ‘आलोचकों’ ने किताबे संपादित भी कर रखी हैं, और मतिमन्द शोध निर्देशकों ने कूड़ा शोध करा रखा है, सौमित्र मोहन के पास ‘सम्मान/पुरस्कार’ की भी जगह ख़ाली है।'

वरिष्ठ रचनाकार स्वदेश दीपक की दृष्टि में ‘सौमित्र मोहन का लेखन अपने आपसे लड़ाई का दस्तावेज़ है।’ बाहर लड़ने के लिए पहले आत्म से लड़ना होता है, इसे ही मुक्तिबोध आत्म-संघर्ष कहते हैं। और यह भी कि ‘एक जनवादी – प्रगतिशील’ और मर्यादित माने जाने वाले केदारनाथ अग्रवाल ने लुकमान अली के लिए यह कहा है ‘फन्तासी’ की यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है। विष्णु खरे ठीक ही कहते हैं कि सौमित्र मोहन की कविताओं को पढ़ना, बर्दाश्त करना, समझ पाना आदि आज 60 वर्षों बाद भी आसान नहीं है।' सौमित्र मोहन की सर्वाधिक प्रचलित कविता है 'लुकमान अली', जो दस भागों में विभाजित है। उसके भाग-1 की पंक्तियां द्रष्टव्य हैं यहां -

झाड़ियों के पीछे एक बौना आदमी पेशाब करता हुआ गुनगुनाता है और सपने में

देखे हुए तेन्दुए के लिए आह भरता हुआ वापस चला जाता है। यह लुकमान

अली है : जिसे जानने के लिए चवन्नी मशीन में नहीं डालनी पड़ती।

लुकमान अली के लिए चीज़ें उतनी बड़ी नहीं हैं, जितना उन तक पहुँचना ।

वह पीले, लाल, नीले और काले पाजामे एक साथ पहनकर जब खड़ा होता

है तब उसकी चमत्कार-शक्ति उससे आगे निकल जाती है।

वह तीन लिखता है और लोग उसे गुट समझने लगते हैं और

प्रशंसा में नंगे पाँव अमूल्य चीज़ें भेंट देने आते हैं : मसलन,

गुप्तांगों के बाल, बच्चों के बिब और चाय के ख़ाली डिब्बे ।

वह इन्हें सम्भालकर रखता है और फिर इन्हें कबाड़ी को बेच

अफ़ीम बकरी को खिला देता है। यह उसका शौक है और इसके

लिए वह गंगाप्रसाद विमल से कभी नहीं पूछता ।

’लुकमान अली कहाँ और कैसे हैं ?’

अगर आपने अँगूठिए की कथा पढ़ी हो

तो आप इसे अपनी जेब से निकाल सकते हैं । इसका नाम

लेकर बड़े-बड़े हमले कर सकते हैं, पीठ पर बजरंग बली के चित्र दिखा सकते हैं,

आप आँखें बन्द करके अमरीका या रूस या चीन या किसी

भी देश से भीख माँग सकते हैं और भारतवासी कहला सकते

हैं : यह भी मुझे लुकमान अली बताता है।

सौमित्र मोहन कहते हैं कि 'लुकमान अली' मेरे लिए मात्र प्रतीक नहीं है - इसकी शारीरिक सत्ता है; फन्तासी की सत्ता है और मैं समझता हूं कि आज कविता में 'बुरे दिनों' का चित्रण या प्रतिक्रिया या एनकाउन्टर इसी फन्तासी से किया जा सकता है। इसी माध्यम से आज के अयथार्थ जैसे लगने वाले परिवेश में अपने जीवित होने को समझा जा सकता है। सद्यः प्रकाशित 'आधा दिखता वह आदमी' संग्रह में प्रकाशित अपनी बहुचर्चित कविता 'लुकमान अली' पर 'कविता-पश्चाताप का वक्तव्य' शीर्षक से कवि सौमित्र मोहन लिखते हैं- 'लुकमाल अली' आटो-राइटिंग नहीं है। मैं इसे लिखने के लिए पाँच महीनों तक 'घबराया' रहा हूं। 'लुकमान अली' की स्थितियों का सामना करते ही मुझमें से वे मनोवैज्ञानिक भय दूर होते रहे हैं, जो बचपन से मेरा पीछा करते रहे हैं।

मैं इसे अर्ध-जीवनीपरक कविता कह सकता हूं। केवल गोस्वामी लिखते हैं कि 'पचास वर्षों में कविता कई पड़ावों से होकर गुजरी है, जहां सौमित्र की उपस्थिति नगण्य रही है। इस पृष्ठ भूमि में इन कविताओं को पढ़ा जाना विशेष अनुभव होगा। बिना किसी प्रकार के पूर्वग्रह के इन कविताओं को पढ़े जाने का आग्रह तो होना ही चाहिए। कभी लगता था कि रचनात्मक जमीन सूख गई, उसमें दरारें पड़ गईं पर ऐसा नहीं था। भीतर कहीं बहुत गहरे नमी बाकी थी। हालात की हलचल उस मिट्टी को उलटती-पलटती रही। उनमें कभी कहीं-कहीं कोपलें फूटती रही होंगी अब कवि के बयान से यकीन हो रहा है कि जरूर फूटती रही होंगी कुछ कविताओ के रूप में, पर हैरानी इस बात की है कि कवि ने वर्षों तक उन्हें पाठकों के साथ साझा क्यों नहीं किया? इसे उसका संयम कहें या ... खैर यह स्वागत योग्य वक्तव्य है कि अब उनकी सम्पूर्ण कविताओं का संग्रह पाठकों के सामने है। सौमित्र के समकालीनों को उनकी रचना धर्मिता का पता है। वे इन कविताओं का सही मूल्यांकन करेंगे ही, आज की पीढ़ी को भी उस काल के काव्य परिदृश्य को जानने समझने का मौका मिलेगा।'

यह भी पढ़ें: भारतीय कबड्डी टीम में खेलने वाली एकमात्र मुस्लिम महिला खिलाड़ी शमा परवीन की कहानी