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पराक्रम दिवस: एक अजेय योद्धा, सुभाष चंद्र बोस

पराक्रम दिवस: एक अजेय योद्धा, सुभाष चंद्र बोस

Sunday January 23, 2022 , 6 min Read

"हिन्दुस्तान की आज़ादी में यूं तो हज़ारों, लाखों स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी आहुति दी... अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया... लेकिन, एक नाम ऐसा है जो आज के युवाओं को हमेशा प्रेरणा देता है और ज़ेहन में देश के लिए कुछ कर गुज़रने का जज़्बा पैदा करता है, वो नाम है नेताजी सुभा चंद्र बोस का।"

"दिल्ली चलो, जय हिन्द, तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा..." ये कुछ ऐसे नारे थे, जो नेता जी की सबसे बड़ी पहचान बनकर उभरे। वैसे तो सुभाष चंद्र बोस का स्मरण 365 दिन होना चाहिए, लेकिन आज उनके जन्मदिन पर उन्हें याद न करना देशभक्ति के साथ-साथ देश को भी भूल जाने जैसा होगा। नेताजी ने जो हमारे देश को दिया, वो हमेशा हर सच्चे भारतवासी के ज़ेहन में जीवित रहेगा।"

"निजी जीवन से देश बड़ा होता है

हम मिटते हैं, तब देश खड़ा होता है"

ऐसे ही कुछ थे मिट्टी के लाल नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जिन्होंने इन पंक्तियों को सार्थक किया। नेताजी ने अपना सबकुछ देश की आज़ादी के लिए दाव पर लगा दिया था। देश में आज़ादी के दिवानों के कई गाने और नारे प्रसिद्ध हुए हैं, उनमें से बोस का एक वाक्य हर नौजवान की ज़ुबान पर होता है, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।"

सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़िसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था। माता-पिता ने भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए बोस को इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया था। अंग्रेजी शासन काल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था, लेकिन उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया। उनके आदर्श थे, स्वामी विवेकानंद। नेताजी के नाम से प्रसिद्ध सुभाष चंद्र बोस ने भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर 1943 को आज़ाद हिन्द सरकार की स्थापना की तथा आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया। नेताजी अपनी आज़ाद हिन्द फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुंचे और यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा "तुम मुझे खून दो मैं तुन्हें आज़ादी दूंगा" दिया। आज़ाद हिन्द फौज में महिलाओं के लिए एक झांसी की रानी रेजमेंट भी बनाई गई। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचुरिया की तरफ जा रहे थे और इसी दौरान वे लापता हो गये।

"भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 35 रिश्तेदारों वालों दल के साथ दिल्ली में अपने सरकारी आवास पर बात करते हुए फाइलों को सार्वजनिक करने का निर्णय लिया था। पश्चिम बंगाल सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी 64 गुप्त फाइलों को कोलकाता पुलिस संग्रहालय में सार्वजनिक कर दिया गया है। अपने सार्वजनिक जीवन में नेताजी को कुल 11 बार कारावास हुआ था। महात्मा गांधी ने उन्हें देशभक्तों का देशभक्त कहा था।"

बचपन की एक घटना का सुभाष चंद्र बोस के ऊपर गहरा असर पड़ा था। जिन दिनों वे स्कूल में थे, उन दिनों किसी ने किसी हिन्दुस्तानी बच्चे को ब्लैक मंकी कह दिया था। सुभाष इस तरह की बातों से दु:खी होते थे और उनका विरोध भी करते थे। उनके समय की परिस्थितियों ने उन्हें उद्वेलित किया और उनके भीतर देशभक्ति की भावना का संचार किया। जानकारों की मानें, तो भारत में चाणक्य के बाद नेतीजी सुभाष चंद्र बोस ही अब तक के सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ रहे।

दर्शनशास्त्र नेताजी सुभाषचंद्र बोस का पसंदीदा विषय था। वे एक ब्रिलियंट स्टूडेंट थे। वे फिलॉसफर थे। वे मॉर्डन इंडिया के मेकर थे। अध्यात्म की यात्रा करते हुए, भारतीय इतिहास के साथ-साथ महापुरुषों के साहित्य को पढ़ते हुए, उन्होंने सोचा तीर्थ यात्रा की जाये और एक लंबी तीर्थ यात्रा की ओर वे निकल पड़े। उन तीर्थ स्थानों पर उन्होंने धर्म की हानि को बेहद करीब से देखा। वहां उन्होंने पाया कि उच्च हिन्दू धर्म की भिन्न-भिन्न तरीकों से जातिप्रथा, रुढ़ियों, कर्मकांडों के द्वारा दुर्गति हो रही है। एक जगह वे स्वयं लिखते हैं, कि "भारत के पास विश्व को देने के लिए दर्शन है, इतिहास है, विज्ञान है, धर्म है, वैल्यूज़ हैं।" लेकिन अपनी आध्यात्मिक यात्रा के दौरान उन्होंने पाया, कि दर्शन, इतिहास, धर्म, वैल्यूज़ सबकुछ आलूप हैं। धर्म के मूलभूत संस्कार गायब हैं। वे कहीं दिखाई नहीं देते। जातिप्रथा, रूढ़ियों, कर्मकांडों ने इन विशेषताओं को पूरी तरह से खत्म किया हुआ है। इन्हीं चिंताओं ने उन्हें देश की आज़ादी के साथ-साथ देश को बदलने की भी दिशा दी।

"सुभाषचंद्र बोस की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि जिन दिनों वे कोलकाता के मेयर बने उन दिनों वे जेल में बंद थे। उन्होंने स्वच्छता अभियान कई सालों पहले कोलकाता में शुरु कर दिया था, जिसे मौजूदा समय में फॉलो किया जा रह है। उनके एजेंडा के तहत चिकित्सकीय सेवाएं भी थीं, जिनका मकसद सभी को इलाज देना था। उन्होंने हमेशा सांस्कृतिक पर्व मनाने पर ज़ोर दिया। अंग्रेजी में अभिवादन (गुड मॉर्निंग, हाय, हैलो) के वे खिलाफ थे साथ ही उन्होंने उन दिनों स्मॉल स्केल इंडस्ट्री को बढ़ावा देने पर खासा ज़ोर दिया था।" 

एक समय ऐसा भी था, जब उनके ऊपर भारत में प्रवेश पर प्रतिबंध लग गया था। वे देश में नाम बदल कर आते थे। कुछ किताबों में इस बात की चर्चा साफ तौर पर की गई है, कि 1962 में जब वे अपने भाई सुरेशचंद से मिलने भारत आये, तो भाई ने कहा "भईया हम यदि तुम्हें स्वीकार भी करेंगे तो हमारे ऊपर विपत्ति आ जायेगी।" तिरस्कार के बावजूद नेताजी ने देश को दिशा देने का प्रयास किया, लेकिन उस समय मीडिया इतना खुला नहीं था। मीडिया सरकारी तंत्र के अधीन था, जिसके चलते नेताजी की बात को समाज में स्थापित नहीं होने दिया गया। 1964 में वे शांत हो गये और 1975 में उन्होंने भारत को पुन: स्थापित करने का प्रयास किया। कानपुर के फूलबाग मैदान में पांच लाख लोग थे, ऊपर से जूतों की बरसात कराई गई और उस कार्यक्रम को बरबाद करवाया गया। लेकिन नेताजी का देश के प्रति न तो प्रेम खत्म हुआ और न ही देश को दिशा देने का प्रयास। 

सुभाष चंद्र बोस की मुख्य लड़ाई थी, ब्रिटिश तंत्र से पूर्ण आज़ादी, जो देश को आज़ादी मिलने के बाद भी नहीं मिली थी और कहीं न कहीं देश अब तक उन बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। नेताजी जीवित हैं या नहीं हैं, ये कोई नहीं जानता, लेकिन उनका उद्देश्य आज भी अधूरा है।